शनिवार, 4 अगस्त 2012

कहानी एक पटवारी की डायरी से


संजीव खुदशाह
ये वाकया उस वक्त का है जब एक पटवारी को अलग-अलग स्थानों में अपनी सेवायें देनी पड़ती थी। कभी तहसील कार्यालय में, कभी जिला कार्यालय में, तो कभी अपने हल्के में। चूकि नई-नई नौकरी थी, इसलिए काम एव व्यवस्था को समझने में कठिनाई हो रही थी। तहसील में होने वाली मासिक बैठक में एस.डी.एम. एवं तहसीलदार की डांट खाना एक आम बात हो चली थी। वैसे भी हम नये पटवारी मीटिंग में हमेशा कोप-भाजन के पात्र बने रहते थे। 5-5 वर्ष के रिकार्ड पूरे नहीं होने का खामियाज़ा हमें भुगतना पड़ता था। उपर से तनख्वाह के दिन चंदे के नाम पर जबरन वसूली नौकरी को नीरस बना देती थी। कहा जाता है कि इस पेशे में सीधे-साधे इमानदार व्यकित को पूरा जीवन संघर्ष करना पड़ता है। लेकिन कुछ अधिकारी ऐसे भी थे, जो हमें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया करते थे और हमारा मार्गदर्शन करते थे। काम तो इतना था की यदि रात-दिन भी करे तो भी पूरा न होता। इस कारण आम जनता पटवारी को ढूंढती रहती हैं। कई बार पटवारी संघ वालों ने अपनी बात इस बाबत उठाई भी, लेकिन इसका कोई असर नही हुआ जबकि सभी कर्मचारी संघो में पटवारी संघ को एकिटव माना जाता हैं। कई बार कर्मचारी की प्रताड़ना के विरूद्ध संघ ने त्वरित कार्यवाही की और शासन ने तुरंत कदम उठाया ।

एक ऐसी ही घटना मुझे याद है। पामगढ़ तहसील के एक पटवारी रिखीराम साहू की सिथति काफी दयनीय थी। तीन छोटे बच्चे एवं पत्नी के साथ वह अपने हल्के में ही रहता था। उसकी पत्नी कई महीने से बीमार चल रही थी। मर्ज गंभीर था, उसे इलाज के लिए काफी रूपयों की आवश्यकता थी। नौकरी की व्ययस्तता के कारण वह घर में समय नहीं दे पा रहा था। कहते है, जब मुसीबत आती है, तो चारों तरफ से आती है। घर की चिन्ता के कारण वह अपना काम सही ढंग से नहीं कर पा रहा था। मासिक मीटिंग में टारगेट पूरा नही होने के कारण तहसीलदार ने उसका वेतन रोक दिया। ये तो वही बात हुई कि गरीबी उपर से आटा गीला। यह प्रहार व सह न सका। उसने तहसीलदार से बड़ी मिन्नते की, गिड़गिड़ाया, किन्तु तहसीलदार ने उसकी एक न सुनी। ज्यादातर अधिकारी ऐसे वक्त अपनी सेवा सुश्रुषा की आशा करते है, लेकिन उसके पास तो कुछ न था। सारे पैसे पत्नी के इलाज में खर्च हो जाते थें। जैसे-तैसे उधार लेकर वह काम चला रहा था कि डाक्टर ने बताया कि एक महीने के भीतर पत्नी का आपे्रशन करना होगा, जिस पर तीस हजार रूपये खर्च होगा। आपरेश नही कराने पर कुछ भी हो सकता है। डाक्टर के इस कथन पर उसके आंखों के सामने अंघेरा छा गया। इतने बड़े संसार में वो अपने आपको अकेला महसूस करने लगा। कुछ साथी पटवारियों ने उसे सलाह दी की वह चिकित्सा अग्रिम या जी.पी.एफ. एडवांस निकलवा ले तो उसका काम चल सकता है। उसने कहा तहसीलदार वेतन तो नही दे रहा है एडवांस कैसे देगा। साथियों ने कहा हम सभी तुम्हारे लिए मिन्नते करेगें। तुम हमारे साथ चलों । उसका विधिवत आवेदन जमा करवाया गया तथा तहसीलदार श्यामनारायण वाजपेई से गुजारिश की और वस्तु-सिथति से अवगत कराया गया। श्री वाजपेई ने कहा रूपये तुम्हे 10 दिन के भीतर मिल जायेंगे। यह बात सुन कर रिखीराम साहू को बड़ी शांति मिली। वह मन ही मन सोचने लगा, कितने अच्छे लोग इस संसार में बसते है, उसे ऐसा लगा उसकी सभी समस्याओं का निराकरण हो गया। उसे चारों तरफ खड़े लोग फरिश्ते से नजर आने लगे। वह खुशी-खुशी अपने घर गया। और अपनी बीमार पत्नी को सारी बात कह सुनाई -अब तुम जल्दी ठीक हो जाओगी। साहब ने मेरी विनती सुन ली है दस दिनो के भीतर रूपया मिल जायेगा, तुम्हारा आप्रेशन होगा, फिर सब ठीक। बीमार पत्नी के चेहरे पर भी कई महीने बाद मुस्कराहट तैर गई। क्योकि पति के चेहरे में दर्द, वह लगातार देख रही थी। अपने लिए पति को खुश देखना उसके लिए एक सुखद एहसास था।

देखते-देखते दस दिन बीत गये। रिखीराम पैसे लेने तहसील आफिस गया। तहसीलदार किसी अन्य काम में व्यस्त था। उसने क्लर्क से अपने एडवांस के बाबत पूछताछ की। क्लर्क ने जवाब दिया कि पैसे तो स्वीकृत नही हुऐ है। तहसीलदार से मिल लो वो कहेगे, तो ही तुम्हे पैसे मिल सकेगे। उसके पैरों के नीचे से जैसे धरती निकलती हुई सी प्रतीत होने लगी। वह अपने-आप को संभालते हुए कहा ''क्यों क्या बात है? पैसे आ चुके है तो मुझे दे दो। मै बाद में साहब से मिल लूंगा।, ''साहब ने कहा पहले तुम से मिलने के लिए-क्लर्क ने दोहराया । रिखीराम साहू तुरंत तहसीलदार के चेम्बर में गया। वहां कुछ मेहमानों के साथ साहब चाय बिस्कीट फरमा रहे थे। अपनी आपसी बातचीत में व्यस्त थे। रिखीराम हिम्मत करके आगे बढ़ा । कहने लगा 'साहब क्लर्क मेरे पैसे नही दे रहा है। तहसीलदार ने गहरी आवाज में कहा- '' देख नही रहा है हम व्यस्त है। बाद में आना। ये कहकर किसी अन्य बातों के परिप्रेक्ष्य में ठहाके लगाकर हसने लगा। इस ठहाके की आवाज रिखीराम साहू को किसी बम फटने की आवाज की तरह उसके दिल-दिमाग को कौंध गई। वह बाहर आकर कई घंटे शून्य सा खड़ा रहा। आस पास आने जाने वाले व्यकितयों से बेखबर, परिसर में ही खड़े पेड़ की छाया तले चबूतरे मे बैठा रहा। एक घंटे बाद जब वह सामान्य हुआ तो वह तहसील आफिस की ओर लपका। तहसीलदार के रीडर ने बताया। साहब तो दौरे पर चले गये है। शाम तक आयेगे। यह सुनकर रिखीराम को लगा कि उसके सुन्न दिमाग पर किसी ने हथौड़ा दे मारा हो। वह फिर उसी पेड़ की छाया में आकर बैठ गया। इन्तजार करते-करते शाम हो चली। इस बीच कर्इ बार उसने तहसीलदार के रीडर से पूछताछ की, लेकिन नकारात्मक उत्तर ही मिलता रहा।

साढ़े छै बजे के आस-पास, धूप ढल चूकि थी, आसमान लालिमा के साथ अंधेरा लिये हुए था। इतने में तहसीलदार की जीप आ धमकी। रिखीराम को ऐसा लगा जैसे डूबते को तिनके का सहारा मिल गया हो। तहसीलदार अपने चेम्बर में चले गये। समय पाते ही रिखीराम साहू भी वहां गया और विनती करने लगा- सर क्लर्क पैसे नही दे रहा है। मुझे इलाज के लिए तुरंत जाना है। तहसीलदार ने कहा-''देखो तुम बहुत नेतागिरी दिखाते हो, संघ का दबाव डलवाते हो। तुमने मुझे बेवकूफ समझ रखा है । पहले दस हजार रूपये जमा करो, तभी मै तुम्हारे पैसे स्वीकृत करूगां। रिखीराम साहू तहसीलदार का पैर पकड़कर गिड़गिड़ाने लगा- ''सर मेरी तनख्वाह भी नही मिली है, मै इतने पैसे कहा से लाउंगा। पत्नी का इलाज हो जाने दो मै आपको रूपये लाकर दे दूगां।। बड़ी मिन्नत करने के बाद भी तहसीलदार टस से मस न हुआ। शाम ढल चुकी थी, तहसीलदार जीप में बैठकर अपने बंगले की ओर कूच कर चूका था। पूरे आफिस में वीरानी छा गई। चपरासी भी सभी कमरों को एक-एक कर बंद करता जा रहा था, लेकिन रिखीराम वहीं चबूतरे पर बैठा रहा। चौकीदार ने आकर कहा-''बाबू आफिस बंद हो चुका है कल आना। रिखीराम बोझिल कदमों से आगे बढ़ने लगा। वह कौन सा मुह लेकर घर जायेगा, उसे समझ में नही आ रहा था। घरवाली को क्या जवाब देगा उसके सोच से बाहर था। रात बहुत हो रही थी। घर वाले उसका इंतजार कर रहे थे, पूरी रात तक।

सुबह तहसील आफिस में गहमा-गहमी थी । चर्चा हो रही थी कि एक पटवारी ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। सब इसके मुख्य कारणो को जान रहे थे। संघ वालो ने एस.डी.एम. से एक मीटिंग ली तथा तहसीलदार के कारण हुई आत्महत्या की रिपोर्ट पुलिस में दर्ज करने की गुजारिश की। एस.डी.एम. ने आनन-फानन बैक डेट में उसके पैसे सेंन्कसन करवा लिये। स्थानीय प्रशासन पूरे मामले को रफा-दफा करने में लगा हुआ था। संघ का दबाव भी काम नही आ रहा था। इसी परिप्रेक्ष्य में संघ ने पूरे जिले की बैठक आयोजित की। संघ का जिला अध्यक्ष काफी एकिटव था। उसने कलेक्टर से भी बात की, लेकिन बात नही बनी । न ही दोषी तहसीलदार के उपर कोई मामला बनाया जा सका।

थक हार कर संघ ने फैसला किया कि इस प्रकरण को मीडिया में लाया जाय, तभी काम बनेगा। संघ के लेटर-पैड में एक प्रेस विज्ञाप्ति बनाई गई, जिसमें सबूतों के साथ तहसीलदार व्दारा रिखीराम को प्रताडि़त किये जाने का जिक्र था। चूकि मै बिलासपुर का रहने वाला था तथा मेरा एक दोस्त श्री आलोक जैन एक बड़े न्यूज़ पेपर में उपसंपादक था, इसलिए मेरे द्वारा दिये गये न्यूज या विज्ञापन को वह प्राथमिकता से प्रकाशित करवा लेता था। संघ ने वह विज्ञापन पहले की तरह मुझे दे दी तथा उसे प्रकाशित करवाने का जिम्मा भी मुझे सौपा। मैने भी तत्परता से उसे अपने उपसंपादक मित्र आलोक को दे दी।

इस तरह एक दिन बीत गया, दूसरा दिन बीत गया, लेकिन सामाचार प्रकाशित नहीं हुई। संघ का मुझ पर दबाव बढ़ने लगा। सभी कहने लगे क्या हुआ विज्ञपित कब आयेगी? जल्दी करो, नही तो समझौते के लिए दबाव बढ़ता जायेगा। क्या हम एक और आत्महत्या का इन्तजार करते रहेगे ? चार दिनों के बाद मै उस न्यूज पेपर के कार्यालय गया। वहां आलोक बैठा था। मैने पूछा -''क्या बात है यार आलोक वह न्यूज अब तक नही आई। आलोक अन्जान बनने की कोशिश करने लगा। मैने फिर अपना प्रश्न दोहराया। आलोक उलझन भरी मुद्रा मे मुझसे कहने लगा- ''छोड़ न यार उस मुददे को। मैने कहा आखिर न्यूज क्यो नही छपी मुझे बताओं? आलोक ने कहा ''यार उस न्यूज में तहसीलदार का टाइटल देखकर संपादक ने उसे छापने से मनाकर दिया ।

4 टिप्‍पणियां:

  1. Sanjivji, it is really painful to read how an govt employee, a patwari is exploited and ends his life. Thanks for sharing this reality. I am interested to know , did he get the justice? What happened to his family? Did his wife got operated? What are his children doing? Are they getting good education?
    Regards
    Dr Satish Shambharkar

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  2. हमारी व्यवस्था सड़ गल चुकी है। हम व आप हर रोज अपने आसपास ऐसे वाकयों से मुखातिब होते रहते हैं। पता नहीं, इसका समाधान क्या है?

    सहजता से कुछ नहीं बदलने वाला। हम दो भागों में बुरी तरह बंट चुके हैं। भूमिका निभाने के वक्त या तो हम शोषक होते हैं या पीडि़त, और तीसरा पक्ष तमाशाबीन।
    ........और, मेरा स्पष्ट मानना है कि जहंा हम कमजोर है वहंा पीडि़त है, जहंा मजबूत है वहां शोषक बन जाते हैँ। दरअसल हम कर चरित्रों को एक साथ जी रहे हैँ।
    बात सीधी है जहंा धन संपत्ति है, वह हर जगह मजबूत है
    जहां गरीब है, वहां पीड़ा

    हिंदुस्तान में समग्र अर्थोन्मुखी हो चुके समाज इन्हीं दो पाटों से जूझ रहा है।
    यहंा भी एक ओर मजा है तो दूसरी ओर सजा

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  3. बहुत सही कहा है रितेश जी ..
    जहाँ हम कमजोर है वहां पीडि़त हैं, जहाँ मजबूत हैं, वहां शोषक बन जाते हैं।

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  4. सही है रितेश जी ... जहाँ हम कमजोर है वहां पीडि़त हैं, जहाँ मजबूत हैं, वहां शोषक बन जाते हैं।

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