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बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

अन्ना इन भ्रष्टाचारों पर मौन क्यों है ?

संजीव खुदशाह
अन्ना तथा कथित पाक-साफ छबी के बताये जाते है। यहां पाक छबी के भी अपने-अपने पैमाने है। चाहे कुछ भी हो अन्ना अपने आपको आम भारतीय का प्रतिनीधि बताते है जो कम से कम लोकतंत्र में एक सफेद झूठ जैसा है। चंद शहरी लोगों को लेकर सिविल सोसाईटी का निमार्ण करने कि प्रक्रिया, आम भारतीय की जुबान बनने का प्रमाण पत्र नही है। दरअसल प्रश्न ये उठता है कि क्या ये सोसाईटी चंद तथाकथित बुध्दिजीवि, धनी, राजनेताओं का जमावड़ा है जिसमें कुछ पर्दे के सामने है कुछ पर्दे के पीछे ?

यदि अन्ना और उसके प्रमुख सहयोगियों कि बात करे तो वे गांधीवादी होने के बहाने हमेशा हिन्दूवाद को ही बढ़ावा देते है। उनके इस आन्दोलन में दलित आदिवासी एवं अल्पसंख्यक का कोई स्थान नही है यदि स्थान है भी तो केवल भीड़ बढ़ाने के लिए। इस आन्दोलन में हावी वे ही लोग है जो समाजिक धार्मिक भ्रष्टाचार के मुद्दे पर मौन रहते है।

अन्ना के आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य लोकपाल है न कि भ्रष्टाचार का खत्मा
अन्ना ने लोकपाल विधेयक पर अपना ध्यान केन्द्रित किया है। यहां प्रश्न यह उठता है कि क्या सिवील सोसायटी का जनलोकपाल के पास हो जाने पर भ्रष्टाचार समाप्त हो जायेगा? क्या प्रधानमंत्री को लोकपाल के नीचे लाने पर भ्रष्टाचार खत्म हो जायेगा। शायद सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए ये जुमले अच्छे लगते है लेकिन ऐसा लोकपाल लागू होने पर लोकतंत्र को ही खतरा हो सकता है। चुने हुए प्रतिनीधि का महत्व खत्म हो जायेगा। अन्ना के साथ-साथ आम जनता को गुमराह करने का सबसे बड़ा काम चंद धर्मवादी मीडिया भी कर रही है। जो अन्ना को एक हीरों कि तरह पेश कर रही है । आखिर टी आर पी भी तो काई चीज़ है चाहे इसके लिए समाजिक हितों की ही क्यो न बली देनी पड़े।  इस काम के लिए प्राईवेट न्यूज चैनलो को महारत हासिल है।
इन भ्रष्टाचार पर अन्ना मौन है
उपरी तौर पर जो भ्रष्टाचार हो रहा है उसका कारण यह है कि हमारे रोम रोम में भ्रष्टाचार व्याप्त है जबतक भारत का आम आदमी भ्रष्ट रहेगा तब तक ऐसे हजारो लोकपाल बिल व्यवस्था को बदलने मे असक्षम रहेगे। आईये अब आपको बताते है कि भ्रष्टाचार की शुरूआत कहा से हो रही है।
बच्चे के जन्म से भ्रष्टाचार- आज एक आम भारतीय के घर कोई महिला गर्भवती होती है, तो भ्रष्टाचार प्रारंभ हो जाता है। परिवार के लोग लड़का होने के लिए मन्नत, चिरैरी करते है जो आगे बढ़कर सोनोग्राफी तक पहुच जाता है। लड़का हुआ तो भ्रष्टाचार को आचार बनायेगा, लड़की हुई तो वो भी उसी भ्रष्टाचार का अभिन्न अंग बनेगी। क्लास में पास होना तो भ्रष्टाचार, एंडमिशन होना हो तो भ्रष्टाचार। रोम-रोम में भ्रष्टाचार बसा है तो जब वो बच्चा या बच्ची बड़ी होकर उच्चे ओहदे में आने के बाद भ्रष्टाचार में लिप्त नही होगे ऐसा कैसे हो सकता है।
धार्मिक भ्रष्टाचार- भारत में जिस प्रकार से धार्मिक भ्रष्टाचार को मान्यता है वह किसी वहसी समाज में ही संभव है। मनुस्मृति, वराह पुराण, भागवत गीता आदि हिन्दू धर्म ग्रंथ हमेशा उच-नीच को ही बढ़ावा देते है। जिससे जाति भेद, लिंग भेद को धार्मिक स्वीकृति मिलती है। इन्ही धर्म ग्रंथो से जिन जातियों को शोषण करने का अधिकार मिलता है वे हिन्दूवाद को बढ़ाना चाहते है तथा वे ये भी चाहते कि भारत का संविधान इन धर्म ग्रन्थो से प्रतिस्थापित हो जाये ताकि भ्रष्टाचार में उनका ऐकाधिकार रहे। यदि अन्ना वास्तव में भ्रष्टाचार मिटाना चाहते है तो इन उच-नीच को बढ़ावा देने वाले धर्म ग्रन्थों की मान्यता रद्ध करवाये उसकी सार्वजनिक होली जलाये। लेकिन वे ऐसा नही करेगे क्योकि कोई अपने पैरो में कुल्हाड़ी क्यो मारेगा। यानि जिससे हमे हानी हो रही हो वो भ्रष्टाचार खत्म होना चाहिए और जिससे हमे लाभ हो रहा हो वो भ्रष्टाचार जारी रहना चाहिए। ऐसा शिक्षीत समाज का मानना है।
समाजिक भ्रष्टाचार- भारत में सामाजिक भ्रष्टाचार धर्म ग्रंथो की कोख से पैदा हुआ है। जिसके गिरफ्त में हिन्दू तो है ही साथ में मुस्लिम, सिक्ख, जैन, बौध्द, इसाई भी इससे अछूते नही है। यानि ये नही कहा जा सकता की फला धर्म में समाजिक भ्रष्टाचार नही है। भारत में जिस भी धर्म ने प्रवेश किया वे समाजिक भ्रष्टाचार से नही बच सके क्योकि जितने भी लोगो ने उन धर्मो को अपनाया वे पहले से ही समाजिक भ्रष्टाचार में लिप्त थे। बहुत इमानदार समझने वाला व्यक्ति भी यदि अपनी कालोनी मे गैस सिलेडर की ट्राली आते देख ५० रूपये ज्यादा देकर अपनी पारी आये बिना सिलेडर लेने में कोई गलती नही समझता है। उसे लगता है कि उसने कोई भ्रष्टाचार नही किया। यहां बिना लाईन पर खड़े हुये ब्लैक में टिकिट लेना, टैक्स चोरी करना, सीना जोरी कर प्रशासन से नियम विरूध काम करवाना, अपनी जाति भाई के लोगो को फायदा पहुचांना भ्रष्टाचार में शामिल नही है।
राजनीतिक भ्रष्टाचार-पहले के बजाय आज राजनीतिक भ्रष्टाचार कम है, आज जो भ्रष्टाचार दिख रहा है जिसके विरूध अन्ना लाम बंद हो रहे है वो दरअसल राजनीतिक भ्रष्टाचार ही है पहले सामंति युग में यह भ्रष्टाचार चरम पर था जहां एक ओर किसी वर्ग को देवतुल्य सुविधाऐ थी तो एक वृहद जन समुदाय को जानवर से भी बदतर समझा जाता था। उसे मानव अधिकार भी प्राप्त नही थे। लेकिन अब तक ज्ञात भारत के इतिहास में पहली बार लोकतंत्र लागू हुआ है और हासिये पर पड़े उस वर्ग को भी थोड़े बहुत मानव अधिकार प्राप्त हुऐ है। उसके बावजूद आज का भारत अन्य देशो के मुकाबले राजनीतिक मुआमले में ज्यादा भ्रष्ट है। ये महज इत्तेफाक नही है कि आजादी के तुरंत बाद भारत के प्रधानमंत्री सहित देश के सभी राज्यो के मुख्यमंत्री किसी एक ही जाति से ताल्लुक रखते थे।
प्रशासन में भ्रष्टाचार- चूकि भारत में राजनीतिक शक्ति किसी एक वर्ग के पास थी इसलिए प्रशासन में भी उसी वर्ग का राज था और वे लोग भ्रष्टाचार को सदाचार समझ कर निभाते आये। जब तक राजनेता भ्रष्ट रहेगे उनके द्वारा संचालित प्रशासन भी भ्रष्ट ही रहेगा। आज प्रशासन की कार्यविधी इतनी जटील है कि एक साधारण से कर्लक के पास ये अधिकार है कि वह फाईल को रोक ले या आगे बढने दे। प्रशासन में जवाबदेही को लेकर आज भी संदेह है। अधिकारी अरामतलब है तो कर्मचारी काम के बोझ तले दबा जा रहा है। काम की अधिकाता वेतन में विसंगती वर्तमान में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के लिए जिम्मेदार है। महत्चपूर्ण पद पर बैठे अधिकारी कर्मचारी का वेतन इतना कम है कि वे अपने परिवार का पोषण करने में असक्षम पाते है। और महत्वपूर्ण कार्य में भ्रष्टाचार के आफर को वे ठुकरा नही पाते। इसलिए प्रशासन में भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए सबसे पहले हर पदो की जवाबदेही निश्चित की जानी चाहिए साथ ही पदानुसार वेतन सुविधाओं की विसंगती को खत्म किया जाना चाहिए।
प्राईवेट क्षेत्रो में भ्रष्टाचार चरम पर है -आज प्राईवेट क्षेत्रों में भ्रष्टाचार चरम पर है जिसके तरफ कोई ध्यान नही देता है। इसके लिए मै एक उदाहरण देना जरूरी समझता हू। एक लोकप्रिय राष्ट्रीय समाचार पत्र ने १०० पद सर्वेयर का निकाला जिसमें युवक युवती की भर्ती की गई ५०००/- वेतन की बात हुई। सर्वेयर को समाचार पत्र का विज्ञापन करना था तीन महिने शहर गांव की गली-गली की खाक छानी और सामाचार पत्र की चल पड़ी । उस समाचार पत्र ने इन्हे एक-एक महिने का वेतन थमाया और तुम्हारी जरूरत नही कह कर नौकरी से निकाल दिया। ये भर्तियां पहले से ही सुनियोजित होती है। इसी प्रकार का छल फैक्टी में, दुकानो में, घर में काम करने वाले नौकरो के साथ रोज घटीत होता है लेकिन आवाज कौन उठाये। बड़ी-बड़ी नेशनल इन्टरनेशनल कम्पनीयां इस काम में माहिर है। चाहे मामला जमीन हड़पने का हो या ३जी घोटाले का। लोगो से महिनो काम लिया जाता लेकिन वेतन नसीब नही होता। शिकायत कहां करे। प्रशासन में भ्रष्टाचार हो तो उसकी शिकायत उसके बड़े अधिकारियों से कि जा सकती है प्राईवेट सेक्टर में शिकायत किससे करे।
बेहतर होता अन्ना भ्रष्टाचार को गहराई से समझते और उसे समूल उखाड़ने की मुहीम चलाते किन्तु ये मुहिम आम लोगो की मुहिम नही है इसलिए इस बात की गुन्जाईश भी नही है जिसके लिए मैने तर्क उपर दिये है। दरअसल जबतक अन्ना या अन्ना जैसे लोग धार्मिकवाद का मोह नही त्यागेगें तब तक भारत से भ्रष्टाचार का खात्मा नही होगा यदि भ्रष्टाचार है तो है चाहे वह किसी भी मुआमले में हो वह गलत है उसका खात्मा होना चाहिए। लोकपाल तो लोकप्रियता और टीआरपी का खेल है इससे न कुछ खास होना है न वे (आश्य आन्ना आंदोलन से है) ऐसा कुछ खास होने देना चाहते है।


शुक्रवार, 10 जून 2011

क्रीमिलेयर की औलादें

संजीव खुदशाह
एक डिप्टी कलेक्टर ने अपनी विद्वता को प्रदर्शित करते हुए बड़े ही गंभीर लहजे में कहा-''यार आरक्षण जैसी सुविधायें अत्यंत पिछड़े लोगों के लिए है उपर उठे लोग यानी क्रीमिलेयर को चाहिए की वे अपने अन्य भाई बन्धुओं के लिए आरक्षण का लाभ लेना बंद कर दे ताकि उन्हे भी मौका मिल सकें। हम जैसे लोगों को भी लाभ लेना बंद कर देना चाहिए।`` क्रीमिलेयर को इस तरह परिभाषित करने तथा आरक्षण पर ऐसे तर्क देने पर मुझे उस अधिकारी पर बड़ा आश्चर्य हुआ। आश्चर्य इसलिए और भी ज्यादा हुआ की वे स्वयं सुनार जाति के है जो ओ.बी.सी. से ताल्लुक रखती है।
भारतीय समाज में सुनारों की स्थिती किसी से छिपी नही है। सेठों के यहां जेवरों के लेबर के रूप में ये जातियां कालकोठरी नुमा परिस्थियों में काम करती है। बारीक तकनीकि काम तथा रसायनिक धुयें से घिरे होने पर इन्हे दमा, फेफड़े सम्बधी बिमारियों की शिकायत आमतौर पर रहती है। उस पर भी काम की महत्ता के अनुपात में बेहद कम मजदूरी इन्हे दी जाती। सोने जैसी महत्वपूर्ण धातु के कारीगर होने के गुमान तथा ज्वैलरी के चमकधमक भरे शोरूम में इनकी आवाज कण्ठ से उपर नही निकल पाती है।
यह चिन्ता का विषय है कि कितनी सोनी जाति के लोग प्रथम श्रेणी अधिकारी बने है? कितने मंत्री बने है? कितने लोग ज्वैलरी शोरूम के मालिक हैइन प्रश्न के उत्तर में आकड़ा नगण्य है। सिर्फ सुनार ही नही सारी अगड़ी/पिछड़ी माने जानी वाली ओ.बी.सी. की जातियों की स्थिति ऐसी ही है।
क्रीमिलेयर एक ऐसा शब्दचक्र है जो सामान्य बुध्दिवाले व्यक्ति का दिवाला निकाल दे। आईये इस शब्द से मै आपका परिचय कराता हूं। क्रीमिलेयर शब्द गरम दूद्ध के उपर जमी मलाई की परत के लिए इजाद हुआ है। यानी दूद्ध का वो उपरी हिस्सा जिसमें क्रीम ही क्रीम है।
पिछड़ा वर्ग आरक्षण के संबंध में इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश में किया गया था। बस इस शब्द को सामंतवादियों ने कैच कर लिया और आरक्षण को भोथवा (प्रभाव कम करने) करने के लिए इसे एक औजार के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। जिसमें वे बहुत हद तक सफल भी हुए। यहां मै आपकों ये बताना भी जरूरी समझता हूं कि कानून में इस शब्द का कही प्रयोग नही किया गया है, न ही सरकारी तौर पर इस मामले में सर्वस्वीकृत शब्द है।
फिर भी सामंतवादियों ने तथा उनके प्रतीनिधियों ने (जो प्रगतिशीलता या बुद्धजीवियों का मुखौटा पहने हुए है) ने अतिपिछड़ी जातियों के आरक्षण जैसी सुविधाओं के विरोध में इस शब्द का जम कर प्रयोग किया। दरअसल उनके निशाने में वे लोग थे जिन्होने आरक्षण का लाभ लेकर सरकारी नौकरी में अपना स्थान बनाया। ये बात सामंतवादियों के सहन से बाहर थी कि एक निम्न जाति का व्यक्ति उनके बराबर आकर बैठे। इसलिए सबसे पहले उन्होने क्रीमिलेयर और नान क्रीमिलेयर दो पार्ट किये।
क्रीमिलेयर को कहा अपने से नीचे के लिए ये सुविधायें लेना बंन्द कर दो। नान क्रीमिलेयर से कहा क्रीमिलेयर तुम्हारा हक मार रहे है। अब तुम्हे इनसे संघर्ष करना है। ये प्रक्रम फूट डालों, राज करो की नीति जैसा था। नानाक्रीमिलेयर (ऐसे स्वजाति बंधु जिन्होने आरक्षण का लाभ अभी तक नही लिया है) तो इन बातों में नही आये, लेकिन अपने आपको  क्रीमिलेयर समझने वाले लोग जल्द ही इनके झांसे में आ गये। इन्होने न तो सही वस्तुस्थिती को समझने की कोशिश की, न ही आकड़ों  पर ध्यान दिया। भ्रमीत तर्को पर वे गुमराह होते गये। भले ही इन लोगों ने आरक्षण का लाभ लेना नही छोड़ा, किन्तु इन सामंतवादियों के सिद्धांत के समर्थन में आ खड़े हुए।
सच्चाई क्या है?
सच्चाई यह है कि कुल आरक्षण हितग्राहियों का मात्र ७% प्रतिशत ही क्रीमिलेयर में आता है। जो इनकी आखों में खटकते है। दूसरी ओर आज भी हजारों बैकलाग (बैकलाग वह खाली पड़े आरक्षित पद है जो अजा अजजा तथा पिछड़ा वर्ग द्वारा आज तक नही भरे जा सके।) खाली पड़े है जिन्हे भरने हेतु आरक्षण हितग्राही आवेदन भी नही दे रहे है। यदि क्रीमिलेयर भी अपना अधिकार छोड़ दे तो बैकलाग पूरी की पूरी खाली रह जायेगी और इनकी शातिर चाल कामयाब हो जायेगी। क्योकि खाली पद को उपयुक्त आवेदक नही कहकर जनरल शीट घोषित कर दिया जाता है।
इस प्रकार प्रगतिशीलतावादियों की चाल कामयाब हो जाती है। अब प्राकृतिक न्याय की कसौटी पर यह प्रश्न खड़ा होता है कि क्या ऐसे क्रीमिलेयर को आरक्षण आदि लाभ लेना छोड़ देना चाहिए? इसके जवाब में एक प्रश्न और उदित होता है कि आरक्षण का मुख्य लक्ष्य क्या था? वास्तव में उस प्रश्न का जवाब इस प्रश्न के उत्तर में छिपा है । आरक्षण का मुख्य उद्देश्य है सामाजिक समानता लाना है  न की आर्थिक समानता। समाजिक समानता हेतु शासन प्रशासन में बराबर की भागीदारी आवश्यक है। और समाजिक समानता का अर्थ यह नही है कि एक साथ बैठकर खाना, घूमना या पिक्चर देखना। सामाजिक समानता की पुष्टी इस बात से होगी जब ब्राम्हण अपनी बेटी का रिश्ता लेकर दलित के घर जायेगा। यानी जाति का महत्व खत्म हो जायेगा। जब तक एक जाति अपने आपको उची समझती रहेगी दूसरी छोटी जाति प्रताड़ित होती रहेगी। दिखावटी समानता चाहे कितनी भी हो जाय। चाहे क्रीमिलेयर कितना ही तरक्की कर जाये जाति के लांछन से नही बच पाता है। जब उसे उतनी ही लांच्छना का शिकार होना पड़ता है जितना उसके गरीब समाजिक बंधु तो क्यो क्रीमिलेयर आरक्षण के अधिकार को छोड़ दे। मै ऐसे भंगी जाति में जन्मे व्यक्ति को जानता हूं जो राज्यपाल जैसे महत्वपूर्ण पद पर आने के बाद भी जातिगत लांच्छन से नही बच सके। उसी प्रकार सवर्ण मीडिया द्वारा लालु यादव को मसखरा तथा मायावती को बदमीजाज प्रचारित करना उसी जातिगत लांछना का ही परिणाम है।
अब क्रीमिलेयर या उनकी औलादों को कौन सिखाये की कुत्ता का गूं बनना या छोबी का कुत्ता बनना एक ही मतलब है बताया तो उसे जा सकता है जो ये माने की उसे जानना बांकी है जो स्वयंभू ज्ञाता है उन्हे तो समय ही सिखा सकता है । काश समाजिक चेतना की बयार जो नीचे के तबके में बह रही है उपर के तबके को भी कुछ हवा देती (क्रीमिलेयर से आश्य है)।