शुक्रवार, 12 जनवरी 2024

Cricket match in the stadium

 स्‍टेडियम में जाकर क्रिकेट मैच

संजीव खुदशाह

कल पहली बार  स्टेडियम में अंतरराष्ट्रीय राष्ट्रीय क्रिकेट देखने का मौका मिला।

यकीन मानिए तो क्रिकेट से मेरा विश्वास उठ चुका है। तब जब मैच फिक्सिंग के मामले में क्रिकेट की थू थू हुई थी। एक समय क्रिकेट को लेकर दीवानगी मेरे अंदर थी। लेकिन अब वह बात नहीं है टीवी पर भी क्रिकेट मैं बहुत कम देखता हूं। कोई बहुत खास मैच होता है तभी टीवी के सामने बैठता हूं।


कल मुझे अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच जो की रायपुर के शहीद वीर नारायण अंतरराष्ट्रीय स्टेडियम में खेला गया देखने का मौका मिला जो की मित्रों द्वारा प्रायोजित था।

स्टेडियम की ओर जाती हुई भीड़ देखकर अंदाजा लगाया जा सकता था कि क्रिकेट को लेकर कितनी दीवानगी है। बच्चे, बूढ़े, औरत, नौजवान, लड़कियां सब स्टेडियम की ओर जा रहे थे। गेट पर ही पानी के बोतल, सिक्के, खाने की वस्तुएं रखवा ली गई। भीतर जाने के बाद पता चला कि₹20 का पानी की बोतल ₹100 में और खाने के जो समान है। उनका रेट कितना ज्यादा की मत पूछिए।

जैसे ही मैं स्टेडियम के भीतर पहुंचा आवक रह गया। स्टेडियम में खचाखच भरी भीड़ और दूधिया रोशनी से नहाती खिलाड़ियों के मैदान। बेहद आकर्षक लग रहे थे। हम लोग जब अपनी सीट पर बैठकर क्रिकेट का आनंद लेने की कोशिश करने लगे तो महसूस हुआ की इससे ज्यादा अच्छा तो टीवी में लगता है। ऐसा लगता है कि हम खिलाड़ियों के साथ ही घूम रहे हैं या मैदान के बीच में है।

लेकिन क्रिकेट के मैदान में बात दूसरी हो जाती है। कौन बैटिंग कर रहा है? कौन बॉलिंग कर रहा है? आप समझ नहीं पाते. यह जानने के लिए डिस्प्ले बोर्ड जो मैदान में 1 या 2  होते हैं उनका सहारा लेना पड़ता है। बच्चे बूढ़े सब अपने गालों में तिरंगा झंडा बनाए हुए। भारतीय टीम की नीली शर्ट जो मैच के दौरान, एक-दो घंटे के लिए ही पहननी थी लोगों ने 150, 300 में खरीदा था। ऐसा नहीं लग रहा था की यह कार्यक्रम किसी विकासशील देश में हो रहा है। लोगों की खरीदने की ताकत पहले से कहीं अधिक है। टिकट की मूल या 3500 से 25000 तक थे।

क्रिकेट का मैच दरअसल एक इवेंट हो गया है। ओवर खत्म होने के बाद आकर्षक म्यूजिक बजाया जाता है। चौका- छक्का या विकेट गिरने पर भी चीयर गर्ल्स नाचती हैं या फिर लोकल कलाकार डांस करते हैं। और दर्शकों को टीम से कोई लेना-देना नहीं। देशभक्ति तो अपनी जगह है। लेकिन दर्शक सिर्फ और सिर्फ इंजॉय करने के लिए वहां पर जाते हैं। उन्हें हर बॉल पर हर रन पर चिल्लाना है, खुशियां मनाना है। यह बड़ा अच्छा संकेत है कम से कम अति राष्ट्रवाद और किसी देश को लेकर के वह वैमनस्यता वाली बात यहां पर नहीं दिखती है।

आम भारतीयों के जीवन में ऐसी कुछ कमी रह गई है जो उनकी खुशियों में बाधा है इस बाधा को दूर करती है क्रिकेट। जो मैदान में जाकर देखी जाती है। इसे आप  मैदान में जाकर देखें बिना महसूस नहीं कर सकते।

क्रिकेट मैच के ऑर्गेनाइजर आम जनता की इस जरूरत को समझ चुके हैं। इसीलिए इवेंट को इस तरह से रचा जाता है की क्रिकेट सिर्फ और सिर्फ एक मनोरंजन का खेल लगता है। जिसमें कोई देश जीते, कोई देश हरे। जो जनता अपनी पैसे को खर्च कर वहां पर आई है उसका सिर्फ और सिर्फ एक मकसद होता है एंजॉय करना। खुशियां मनाना। यह बात सही है कि अपने देश को हराते हुए देखना किसी को भी अच्छा नहीं लगता है। फिर भी खेल भावना लोगों में अपनी जगह बना रही है।

बॉलीवुड की फिल्में लगातार फ्लॉप हो रही है जिसका टिकट 150 से ₹400 का लेकिन लोग उसे नहीं देखने जाते हैं‌। जबकि क्रिकेट का टिकट 3000 से लेकर 25000 तक है। फिर भी लोग वहां जा रहे हैं क्योंकि वह एंजॉयमेंट, वह दीवानगी जो क्रिकेट में है वह फिल्में नहीं दे पा रही हैं। या कहीं और ऐसा मनोरंजन उनको नहीं मिल पा रहा है।

मुझे लगता है कि एक न एक बार इस तरह स्टेडियम में जाकर क्रिकेट मैच जरूर देखना चाहिए।

https://dailychhattisgarh.com/article-details.php?article=218913&path_article=11

Publish on 2 dec 2023

सोमवार, 17 जुलाई 2023

Pros and cons of uniform civil code समान नागरिक संहिता के नफे नुकसान

 

समान नागरिक संहिता के नफे नुकसान

संजीव खुदशाह

समान नागरिक संहिता, आजकल चारों ओर इस मुद्दे पर चर्चा हो रही है। चर्चा होने का कारण यह है की 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले केंद्र की सरकार (भाजपा सरकार) ने समान नागरिक संहिता लागू करने की बात रखी। प्रधान मंत्री श्री नरेन्‍द्र मोदी ने इस सं‍हिता को लेकर ब्‍यान दिया। आज हम यूनिफॉर्म सिविल कोड याने समान नागरिक संहिता के तमाम पहलुओं पर बात रखेंगे।

केंद्र सरकार के इस प्रस्ताव का एक तरफ स्वागत हो रहा है तो दूसरी तरफ इसकी निंदा भी की जा रही है। कहा जा रहा है इससे अल्पसंख्यकों के अधिकार का हनन होगा, विविधता की संस्कृति समाप्त हो जाएगी। यह भी कहा जा रहा है की मुसलमानों को ठिकाने लगाने के लिए यह कानून लाया जा रहा है।

वैसे केंद्र सरकार की तरफ से समान नागरिक संहिता का कोई मसौदा प्रस्तुत नहीं किया गया है। इस कारण केंद्र सरकार ठीक-ठीक क्या करना चाहती है, इस कानून को लाने के पीछे उनका क्या मकसद है? यह कहा नहीं जा सकता और जब तक कि मसौदा सामने ना आए तब तक इसके पक्ष या विपक्ष में कहना बहुत जल्दबाजी होगी। यह एक ऐसा मुद्दा है जिसे भा जा पा की मातृ संगठन आर एस एस ने बरसों से यूनिफॉर्म सिविल कोड की बात को रखा है, एक देश एक कानून की बात वे हमेशा कहते आऐ है और देश के बहुत सारे लोगों को इस कानून के पक्ष में राजी भी किया है। उनका तर्क है की महिलाओं और वंचितों को अलग-अलग संस्कृति और कानून के नाम पर शोषण होता है। इस कानून के सहारे उन शोषण को दूर किया जा सकता है। इसीलिए वह इस प्रकार के कानून की वकालत करती है।

संविधान क्या कहता है?

आइए जानने की कोशिश करते हैं कि भारत का संविधान इस मामले में क्या कहता है? जब भारतीय संविधान का निर्माण किया जा रहा था, तब समान नागरिक संहिता की आवश्यकता को महसूस किया गया था। प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉक्टर अंबेडकर भी समान नागरिक संहिता के पक्षधर थे और उसी पर यह काम भी कर रहे थे। भारतीय संविधान की धारा 44 में समान नागरिक संहिता को लागू करने के बारे में लिखा गया है। हिंदू कोड बिल को समान नागरिक संहिता का प्रथम सोपान कहा जा सकता है। जिसमें शादी, तलाक, बच्चा गोद लेना, उत्तराधिकार से जुड़े मामले को शामिल किया गया। जिसका उस समय कट्टर वादियों द्वारा विरोध किया गया था। जैसे कि आप सभी को मालूम है कि डॉक्टर अंबेडकर को कानून मंत्री रहते हुए इस हिंदू कोड बिल को पास ना करवाने के कारण मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। हालांकि बाद में हिंदू कोड बिल पास हुआ और देश में लागू हुआ। हिंदू कोड बिल में खासतौर पर हिन्‍दुओं के अलावा जैन, सिख, बौद्ध को भी शामिल किया गया है।

संविधान सभा के द्वारा प्रस्तावित समान नागरिक संहिता का लक्ष्य और अभी के सरकार के द्वारा प्रस्तावित समान नागरिक संहिता के लक्ष्‍य में अंतर है। अभी की सरकार किसी खास वर्ग को खुश करने के  लिए यह संहिता को लाने की बात कह रही है। लेकिन संविधान सभा के निर्माण के दौरान संविधान सभा के सदस्यों ने एक ऐसे भारत की कल्पना की जहां पर धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, परंपरा के नाम पर, संप्रदाय के नाम पर, महिलाओं बच्‍चो और बुजुर्गो का शोषण ना हो।

समान नागरिक संहिता में सबसे ज्यादा लाभ महिलाओं को होने वाला है क्योंकि धर्म संप्रदाय जाति वयवस्‍था अक्सर महिलाओं के हितों का दमन करती है। आप इसे एक उदाहरण से समझ सकते हैं मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार एक तलाकशुदा महिला को भरण पोषण का अधिकार नहीं है लेकिन हिंदू ला में यह अधिकार हिंदू महिलाओं को मिलता है।

इसी प्रकार कई आदिवासी समाजों में पिता की संपत्ति पर बेटियों को अधिकार नहीं मिलता क्योंकि यह उनकी परंपरा है, ऐसा उनका दावा है। कानून भी उसी मुताबिक बना हुआ है। जबकि यह अधिकार हिंदू कोड बिल में बेटियों को दिया गया है।

सामान नागरिक संहिता लागू होने पर देश की सारी महिलाओं, बच्‍चों, बुजुर्गो एवं वंचितों को एक जैसा अधिकार प्राप्त होगा। जैसा कि संविधान सभा के सदस्यों ने सपना देखा था।

यानी समान नागरिक संहिता एक सामाजिक मामलों से संबंधित कानून है, जो सभी पंथ के लिए विवाह, तलाक, भरण पोषण, विरासत व बच्चा गोद लेने में समान रूप से लागू होता है। दूसरे शब्दों में कहें अलग-अलग संप्रदायों के लिए अलग-अलग सिविल कानून न होना समान नागरिक संहिता की मूल भावना है।

समान नागरिक संहिता की भारत में क्या है चुनौतियां?

भारत एक ऐसा देश है जहां पर छुआछूत भेदभाव ऊंच-नीच शोषण का बोलबाला है। जहां पर एक जाति दूसरे जाति के समान नहीं है। प्रश्न उठता है कि क्या जब एक जाति दूसरी जाति के समान नहीं है तो समान नागरिक संहिता लागू की जा सकती है। उच्च जातियों द्वारा छोटी जातियों के ऊपर शोषण करने का वीडियो अक्सर वायरल होता रहता है, ऐसी घटनाएं समाचारों में अक्सर आती रहती है। ये घटनाएं इस ओर इशारा करती है कि‍ भारत में समान नागरिक संहिता लागू करने के पहले जातियों में समानता पर लाना होगा। कितनी ऐसी जातियां हैं जिनका प्रतिनिधित्व शासन-प्रशासन में आज भी नहीं है। और कई ऐसी जातियां हैं जो अपनी जनसंख्या के अनुपात से कई गुना ज्यादा प्रतिनिधित्व पर कब्जा बनाए बैठी हुई।

समान नागरिक संहिता पर टिप्पणी करने वालों का यह तर्क है कि भविष्य में समान नागरिक संहिता लागू हो जाने के बाद आरक्षण को भी निशाना बनाया जा सकता है। बुजुर्वा वर्ग इस कोशिश में है की आरक्षण को निष्प्रभावी बना दिया जाए । ऐसा भी हो सकता है समान नागरिक संहिता को लागू करने में आरक्षण एक रोड़े की तरह देखा जाएगा।

इससे ऐसा वर्ग जो अपनी जनसंख्या से कई गुना ज्यादा अनुपात में शासन प्रशासन पर कब्जा बनाए बैठा है। आरक्षण समाप्त हो जाने के बाद उसका कब्जा स्थाई हो जाएगा। और एससी एसटी ओबीसी एवं अल्‍पसंख्‍यक वर्ग हमेशा के लिए शासन प्रशासन से महरूम हो जाएंगे।

यह भी कहा जा रहा है की इस कानून के लागू होने के बाद सबसे ज्यादा नुकसान आदिवासियों का होगा उनकी जमीने छीन ली जा सकेगी। क्योंकि विशेष आदिवासी कानून किसी काम का नहीं रह जाएगा।

दलित आदिवासी जातियों में शादी और तलाक बेहद आम बात है। सामाजिक बैठकों में इन मामलों का निपटारा कर लिया जाता है। समान नागरिक संहिता लागू हो जाने के बाद हर बार कोर्ट जाना पड़ेगा। कोर्ट में भी प्रकरणों की संख्या बढ़ जाएगी।

चाहे जो भी हो हमारे पूर्वजों ने समान नागरिक संहिता का स्वप्न देखा है। जिसे उन्होंने संविधान में दर्ज भी किया है। इसीलिए समान नागरिक संहिता की जरूरत तो है। लेकिन यह देखा जाना होगा कि क्या देश इसके लिए तैयार है

? क्या इस कानून के लागू होने के पहले समानता आ चुकी है? धार्मिक समानता, जातिगत समानता, लैंगिक समानता आ चुकी है? समान नागरिक संहिता के लागू हो जाने के बाद या उसके पहले बहुत सारे ऐसे हितग्राही हैं जो कि धर्म के नाम पर परंपराओं के नाम पर संपत्ति और संस्थाओं पर कब्जा जमाए हुए हैं। उन्हें तकलीफ होगी और वह विरोध भी करेंगे जैसा कि हिंदू कोर्ट भी लागू होने के पहले हुआ था। ऐसा हो सकता है कि महिलाएं भी सामने आए और वह कहेंगे कि हमें अधिकार नहीं चाहिए, यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू मत करो। यह एकदम कॉमन सी बात है जब अमेरिका के गुलामों की बेड़ियां खोलने का आदेश जारी हुआ तो अमेरिका के गुलाम चिल्ला चिल्ला कर रोने लगे और कहने लगे कि यह हमारी बेड़िया नहीं है यह हमारे गहने है। और उसे वह पहनने के लिए जिद करने लगे। बदलाव के समय ऐसा होता है इन सब का मुकाबला करते हुए समान नागरिक संहिता को लागू करना एक चुनौती होगी। देखना यह होगा कि किस प्रकार सरकार तमाम संस्थाओं, संगठनों  के बीच सहमति बनाते हुए यह कानून लागू कर पाएगी।

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2022

22 Vows dispute and Agenda of RSS

 

आर एस एस का एजेंडा और 22 प्रतिज्ञाएं

संजीव खुदशाह 

पिछले दिनों 22 प्रतिज्ञा को लेकर पूरे देश में चर्चा छिड़ गई इसके पीछे आम आदमी पार्टी के मंत्री श्री राजेन्‍द्र पाल गौतम ने 22 प्रतिज्ञाएं को बौद्ध धर्म शिक्षा के कार्यक्रम में दोहराया और हिंदुत्व वादी लोगों ने इसे अपनी भावनाओं के आहत होने की बात कहकर इसे तूल दिया। इसके बाद अरविंद केजरीवाल ने श्री राजेन्‍द्र पा
ल गौतम को मंत्री पद से हटा दिया।

यहां पर 22 प्रतिज्ञाएं विशेष महत्वपूर्ण नहीं है। क्योंकि यह हमेशा से पढ़ी जाती रही हैं। तमाम बुद्धिस्ट कार्यक्रमों में, बहुजन कार्यक्रमों में यह 22 प्रतिज्ञाओं का पढ़ा जाना एक आम बात है। लेकिन इस छोटे से कारण को लेकर किसी मंत्री को मंत्री पद से हटा देना बड़ी घटना है। इस पर हम चर्चा करें इससे पहले धर्मांतरण को ले कर बात करते हैं।

यहां यह बताना चाहता हूं कि कोई भी धर्मांतरण में प्रतिज्ञा, कसम, शपथ लेना एक आम बात है। जब कोई व्यक्ति हिंदू से मुसलमान बनता है, हिंदू से ईसाई बनता है, तो उसे उसके पुराने धर्म को ना मानने की शपथ दिलाई जाती है। 22 प्रतिज्ञाएं कोई नई नहीं है। वैसे भी 22 प्रतिज्ञाओं में से केवल शुरू की 3 प्रतिज्ञा ही हिन्दू देवी देवता पर आधारित है। कई जगह ईसाई बनाते समय मां-बाप की शपथ दिलाई जाती है। पुराने देवी देवताओं को ना मानने की शपथ दिलाई जाती है। इसी प्रकार मुसलमान धर्म में प्रवेश के दौरान भी शपथ दिलाई जाती है। ऐसी शपथ

, जाहिर है कि मुस्लिम से हिंदू बनने के दौरान भी पुराने इष्ट देव, अल्लाह या भगवान , उन्हें ना मानने की शपथ दिलाई जाती है। अब प्रश्न उठता है कि जब यह बहुत छोटी सी बात है। तो इस बात को इतना तूल क्यों दिया जा रहा है। यह समझना जरूरी है जब यह छोटी सी बात है तो इस बात पर एक मंत्री को पद से हटाया क्यों गया। इसे भी समझना जरूरी है।

दरअसल बहुत सारे लोग आर एस एस के सही एजेंडे को नहीं समझ पाते हैं। लोग समझते हैं कि भारतीय जनता पार्टी को सत्‍ता में बनाए रखना ही आर एस एस का मकसद है। लेकिन यह सच्चाई नहीं है। सच्चाई यह है की आर एस एस के लिए भारतीय जनता पार्टी एक मोहरा मात्र है। दरअसल आर एस एस का मकसद है हिंदुत्व के मुद्दे को मेंस्ट्रीम में लाना, राजनीति की धुरी में हिंदुत्व को रखना है और आर एस एस अपने इस मकसद में पूरी तरह से कामयाब दिखती है। ऐसी बात नहीं है कि इससे पहले हिंदुत्व के मुद्दे पर पार्टियां बात नहीं करती थी। लेकिन 2014 के बाद में परिस्थितियों पूरी बदल गई। अब कोई भी पार्टी के एजेंडे में कौमी एकता, भाईचारा, तर्क शीलता, विज्ञान वाद नहीं है इसीलिए कांग्रेस के राहुल गांधी अपने जनेऊ को दिखाते फिरते हैं। मंदिर मंदिर माथा टेकते हैं। इसीलिए समाजवाद की बात करने वाली समाज वादी पार्टी ब्राह्मण सम्मेलन करती है। बहुजन की बात करने वाली बहुजन समाज पार्टी हाथी को गणेश बताती हैं। मायावती त्रिशूल लिए फिरती हैं। आम आदमी को लेकर चलने की बात करने वाली पार्टी के अध्यक्ष अरविंद केजरीवाल अपने आप को हनुमान का भक्त बताते हैं। यानी जितनी बड़ी पार्टियां हैं वह सब हिंदुत्व की तरफ बड़ी तेजी से बढ़ती हुई देखी जा सकती है। अगर आप। JDU, AIMIM और AIDMK को छोड़ दें तो सभी बड़ी पार्टियां हिंदुत्व के एजेंडे पर चलती हुई दिखती हैं।

दरअसल आर एस एस का भी मकसद यही है की हिंदुत्व को राजनीति की धुरी बनाया जाए। इसलिए आर एस एस के खिलाफ बात करने वाले राहुल गांधी भी अपने आप को हिंदुत्व से अलग नहीं दिखाना चाहते हैं। मुसलमानों की बात करने वाली आप पार्टी, समाज वादी पार्टी अपने आप को हिंदुत्व के एजेंडे से जुड़े रखना चाहते हैं। बहुजन समाज पार्टी ने अपनी विचारधारा को लगभग पूरा बदल दिया है। इसके पीछे कोई दबाव नहीं है। लेकिन आर एस एस ने जो माहौल बनाया है। जो भ्रम लोगों में पैदा किया है कि हिंदुत्व के बिना राजनीति नहीं की जा सकती। वह भ्रम पैदा करने में पूरी तरह से सफल हो गई। भारतीय जनता पार्टी को छोड़कर बाकी पार्टियों को लगता है कि वह भी हिंदुत्व को लेकर बात करेंगे तो लोग भाजपा को छोड़कर उन्‍हे वोट देगे। और वे सत्ता में आ जाएंगे। लेकिन यह उनका भ्रम है। सवर्ण हिन्‍दू किसी भी हाल में भारतीय जनता पार्टी का साथ नहीं छोड़ेंगे। बाकी जो 80% जनता है जो कि किसी ना किसी प्रकार से हिंदुत्व से पीड़ित है। उनके धर्म ग्रंथों से आहत है। वह हिंदुओं में शामिल हैं। वह जनता के लिए आज की तारीख में कोई ऑप्शन नहीं है। जो विज्ञान की बात करना चाहती है , जो जनता कौमी एकता को बढ़ाना चाहती है,  उस जनता के लिए आज कोई विकल्‍प नहीं है। क्योंकि कांग्रेस की सरकार भी जहां बन रही है वहां पर वे हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए बीजेपी को पीछे छोड़ देना चाह रहे हैं। अब आप समझ सकते हैं कि आर एस एस अपने मकसद में किस कदर सफल हुआ है। और इतनी छोटी सी बात कांग्रेस की विचारक नहीं समझ पा रहे हैं। इसे आर एस एस की सफलता के रूप में भी देखा जाना चाहिए।

आर एस एस के कार्यकर्ता, विचारक अक्सर यह बोलते हुए देखे जाते हैं कि देखो हमने कांग्रेस को मजबूर किया राम गमन पथ बनाने के लिए। हमने उन्हें जनेऊ दिखाने के लिए मजबूर कर दिया। हमने आम आदमी पार्टी के केजरीवाल को कृष्‍ण बनने के लिए मजबूर कर दिया। याने संघ ने जो भ्रम तैयार किया है उसमें भ्रमित होने के लिए सभी पार्टी आमादा है। होड़ लगी हुई है हिन्‍दुत्‍व के ऐजेन्‍डे में आने की।

80% जनता का क्या होगा?

यदि सवर्ण और कट्टर हिंदुओं को छोड़ दें। तो 80% जनता जिसमें ईसाई, मुस्लिम, सिक्‍ख, कबीरपंथी, रवीदासी तमाम पंथों को मानने वाले लोग। जिनमें ओबीसी एससी एसटी हिंदू भी शामिल हैं। उनके लिए आज कोई विकल्प नहीं है। क्योंकि भारत की जो 80% जनता है वह हिंदुओं के धर्म ग्रंथों से आहत है। और वह हिंदुत्व के एजेंडे पर नहीं विकास के एजेंडे पर गरीबी, भूखमरी, शिक्षा, स्वास्थ्य के मुद्दे पर केन्‍द्रीत राजनीति को देखना चाहती है। समता, समानता, भाईचारा पर केंद्रित राजनीति देखना चाहती है। लेकिन कोई पार्टी इस पथ पर चलती हुई नहीं दिखती है। इसीलिए मौजूद नरम दल गरम दल में किसी एक को चुनना उनकी मजबूरी हो जाती है। तमाम गोदी मीडिया होने के बावजूद भारत की लगभग 80% जनता देश के राजनीतिक माहौल को समझ रही है। यह खुशी की बात है। आप इस विकसित होती भारत की जनता की राजनीतिक समझ को सलाम कर सकते हैं। यही कारण है की पिछले 2014 से हिंदुत्व का माहौल होने के बावजूद बहुत सारे राज्यों में गैर भाजपा सरकार बनी है।

 

जब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के द्वारा धर्मांतरण किया गया तब पहली बार 22 प्रतिज्ञाएं उपस्थित लाखो की जनसंख्या को दिलाई गई। इसके बाद जहां भी धर्मांतरण होता है तो सबसे पहले 22 प्रतिज्ञाएं की शपथ दिलाई जाती है। उसके बाद ही बुद्ध की शरण में लाया जाता है। प्रश्न उठता है कि उस समय तथाकथित हिंदुओं की भावनाएं क्यों आहत नहीं हुई। बहुत सारे दलित बुद्धिजीवी कहते हैं कि डॉक्टर अंबेडकर के साहित्य का निचोड़ 22 प्रतिज्ञाएं हैं। अगर आप उनकी तमाम किताबें नहीं पढ़ पा रहे हैं लेकिन यदि उनकी 22 प्रतिज्ञाएं पढ़ ले तो आपको समझ आ जाएगा कि उनकी किताबों में क्या है।  संघ अपने एजेंडे में डॉक्टर अंबेडकर को रखती है जहां एक ओर गांधी की आलोचना करते हैं वहीं दूसरी ओर डॉक्टर अंबेडकर की प्रशंसा करते हैं। और उन्हें अपनी ओर बनाए रखने की कोशिश करते हैं। फिर यही काम आम आदमी पार्टी भी करती है। आम आदमी पार्टी के तमाम कार्यालयों में और जहां उनकी सरकार है उनके ऑफिस में डॉक्टर अंबेडकर की फोटो लगाना अनिवार्य कर दिया गया है। इसके बावजूद बाबा साहब की 22 प्रतिज्ञा से उन्हें परेशानी हुई। प्रश्न उठता है की क्या बहुजनों को लुभाने के लिए ही डॉ आंबेडकर की तस्वीर लगाई जा रही है? उनकी विचारधारा का क्या होगा? उनकी तमाम लिखी किताबों का क्या होगा? जिसे भारत सरकार ने प्रिंट करके प्रकाशित किया है? आखिर वह क्या कारण है जो कि आम आदमी पार्टी अपने आपको बाबा साहब के करीबी बताते हुए उनकी प्रतिज्ञा को पढ़ने वाले मंत्री को वह हटा देती है। इसका सीधा कारण है 15% सवर्ण जनता को खुश करने की कोशिश। जबकि कोई भी राजनीतिक पार्टी 15% सवर्ण जनता के वोटों से सरकार नहीं बना सकती। यह उन्हें मालूम है। लेकिन वे उनके गोदी मीडिया से डरते हैं, उनके खिलाफ आईटी सेल से डरते हैं, उनको लगता है कि वह यदि हिंदुत्व के खिलाफ जाएंगे तो उनका विनाश निश्चित है।

तो क्या करना चाहिए?

हिंदुत्व के एजेंडे को अगर छोड़ दें तो राजनीति के लिए एजेंटों की कमी नहीं है। समता, समानता, भाईचारा, तर्क शीलता, विकास, स्वास्थ्य , गरीबी, बेरोजगारी जैसे तमाम मुद्दे हैं। जिन्हें राजनीति की धूरी बनाकर विपक्ष आगे बढ़ सकता है। और जनता के लिए एक विकल्प बन सकता है। ऐसा करने के लिए उन्हें हिंदुत्व के विरोध में कोई बात बोलने की जरूरत नहीं है। हिंदुत्व विरोधी बनने की कोई जरूरत नहीं है। ना ही अपने आप को हिंदुत्व में घुसा हुआ बताने की जरूरत है। लेकिन आज के दौर का दुखद पहलू यह है की इतनी छोटी सी समझ यदि एक दो दलों को छोड़ दें तो किसी को भी नहीं है। काश भारत की राजनीतिक एजेंडा पर किसी धर्म के कब्जे के बजाए कौमी एकता की बात होती। बात होती विज्ञान की। बात होती भाईचारे की। बात होती शिक्षा स्वास्थ्य और विकास की।

 

रविवार, 19 अप्रैल 2020

Know that Dr. Ambedkar's two things which the did not accept by safai kamgar


जानिये डॉ अंबेडकर की वह दो बाते जिन्‍हे 
सफाई कामगार दलित जातियों ने नही माना

 संजीव खुदशाह

वैसे तो दलितों में विभिन्न जातियां होती है। विभिन्न जातियों के पेशे भी भिन्न भिन्न होते है। लोकिन पूरी दलित जातियों के बड़े समूह को दो भागों में बांट कर देखा जाता रहा है। पहला चमार दलित जातियां जो मरी गाय की खाल निकालती और उसका मांस खाती थी। दूसरा सफाई कामगार जातियां जो झाड़ू लगाने से लेकर पैखाना सिर पर ढोने का काम करती रही है।

यदि अंबेडकरी आंदोलन के पि‍रप्रेक्ष्य  में देखे तो चमार दलित जातियां आंदोलन के प्रभाव में जल्दीं आयी और तरक्की‍ कर गई। वही़ सफाई कामगार दलित जातियां अंबेडकरी आंदोलन में थोड़ी देर से आयी या कहे बहुत कम आई, पीछे रह गई। आइये आज इसके विभिन्न  पहलुओं पर पड़ताल करते है।
क्या है अंबेडकर का प्रभाव (आंदोलन) कौन सी ही वे दो बाते?
सन 1930 में डॉं अंबेडकर ने देखा की दलितों के साथ बेहद भेदभाव हो रहा है। उनका शोषण नही रूक रहा है। तो उन्होने दलितों से दो अपील की (1) अपना गांव या मुहल्ले  छोड़ दो, शहर में बस जाओं (2) अपना गंदा पुश्तैनी पेशा छोड़ कोई दूसरा पेशा अपनाओ। इन दो अह्वान का असर यह हुआ की दलित जाति शोषण शिकार अपने गांव को छोड़ कर शहर में आ बसी। इसके लिए उन्हे उच्च जाति के लोग उन्हे गांव छोड़कर जाने नही देना चाहते थे। इससे उनकी सुविधाओं और आराम पसंद जिदगी के खलल पैदा हो सकती थी। उनके घर बेगारी कौन करेगा? कौन उनके मरे जानवरों को फेकेगा?
दूसरा काम यह हुआ की दलित जातियां मरे जानवरों को फेकने चमड़े निकालने का काम करने से इनकार कर दिया। इसका असर यह हुआ की गांव में दलितों के साथ मार पीट की गई। दलितों की भूखे मरने की नौबत आ गई। बावजूद इसके बहुसंख्यक दलितों ने अपना रास्ता  नही छोड़ा। डां अंबेडकर के आह्वान पर कायम रहे। गौर तलब है ऐसा करने वाली दलित जातियां चमार वर्ग की थी। सफाई कामगारों ने डॉं अंबेडकर के दानो आह्वान का पालन नही किया। न वे आज भी कर रहे है। आज भी  वे अपनी जातिगत गंदी बस्ति‍यों में रहते है और अपना वही पुराना गंदा पेशा अपनाए हुये है।
इसके क्या कारण है यह ठीक ठीक बताना बेहद कठीन है। लेकिन तत्कालीन परिस्थितियों को देखकर कुछ निष्कर्ष पर पहुचा जा सकता है। उन्होने डॉं अंबेडकर के आह्वान को नही माना इसके निम्न कारण हो सकते है।
1) सुविधा - उन तक बात नही पहुची होगी की अपने शोषण कारी गांव को छोड़ दिया जाय। उस समय (1930) सफाई कामगार जातियां ज्यादातर शहरों में निवास करती थी। वैसा कष्टकारी जीवन उन्हे देखने को नही मिला जैसा गांव में दलितों को मिलता है। इसलिए उनको शहर में रहने के करण गांव छोड़ने का प्रश्नो नही उठता। रही बात उनकी गंदी बस्‍तियों को छोड़ने की तो उन्होने इसलिए नही छोड़ा होगा क्योकि उन्हे गांव के वनिस्पत कष्ट या शोषण कम रहा होगा। बात जो भी हो यह एक सच्चा ई है कि सफाई कामगारों ने अपनी गंदी बस्तियों को नही छोड़ा ।
2) आत्मो सम्मायन नही जागा- गंदे पेशे को छोड़ने का आह्वान भी सफाई कामगारों ने अनसुना कर दिया। इसका कारण था उनकी आर्थिक स्थिति, अंग्रेजों / अफसरों से निकटता जो उन्हे सुविधा भोगी बनाती थी। वे अफसरों की तिमारदारी से लेकर सभी गंदे काम करते थे। वे झाड़ु लगाते, नाली साफ करते, मैला ढोते, उनकी जूठन खाते। उन्हे कभी अपने आत्म सम्मान के अपमान होने का एहसास नही हुआ। यही सब बाते उन्हे पुस्तैनी पेशे पर एकाधिकार रखने हेतु प्ररित करती थी। इस लिए उन्होने डॉं अंबेडकर के इस आह्वान को भी नही माना।
3) सामाजिक नेतृत्व शुरू से आज तक सफाई कामगार जातियों में जो सामाजिक नेतृत्व् मिला चाहे वो जाति पंचायत के रूप में रहा या किसी धार्मिक नेता के रूप में उन्होने हमेशा सफाई कामगारों का शोषण किया। उन्हे डॉं अंबेडकर के विरुध भड़काया। कहा की वे सिर्फ चमारो के नेता है। इस काम में हिन्दूवादी लोग / राजनीतिक पार्टीयां मदद करती रही। सामाजिक नेता अपनी राजनीति चमकाने के लिए नये नये गुरूओं की पूजा करने लगे जैसे वाल्मीकि, सुदर्शन, गोगापीर, मांतग, देवक ऋषि आदि आदि। वे सारे काम इन समाजिक नेताओं द्वारा किये गये जो इन्हे अंबेडकरी आंदोलन से दूर रखे जाने के लिए किये जाने जरूरी थे। इसका एक बड़ा कारण गांधी का प्रभाव भी रहा है।
4) गांधी का प्रभाव- इसी दौरान (1932) गांधी ने हरिजन सेवा समिति का गठन किया। वे हरिजन नामक अंग्रेजी पत्र प्रकाशित करते थे। इसके केन्द्र में उन्होने सफाई कामगारों को रखा। वे हिन्दूवादी थे और वे नही चाहते थे की दलित इस पेशे को छोड़े। उन्होने उल्टे यह कहा की ‘’ यदि मेरा अगला जन्म होगा तो मै एक भंगी के घर जन्म  लेना पसंद करूगा।‘’ इसका प्रभाव यह पड़ा की सफाई कामगार अपने पेशे के प्रति झूठे उत्साह से भरा गये। आत्मसम्मान के उलट अपने आपको फेविकोल से इस पेशे से जोड़ लिया।
अब प्रश्न उठता है कि सफाई कामगारों में आत्मसम्मान कब जागेगा। कब वे अपना पुश्तैनी पेशा एवं गंदी बस्तियां छोड़ेगे। कब अंबेडकरी आंदोलन से जुड़ेगे?
1) सफाई कामगारों के बर्बादी के कारण समाजिक नेता- सफाई कामगारों का सबसे बड़ा नुकसान उनके ही समाजिक नेताओं ने किया। इतिहास गवाह है कि किसी भी सामाजिक नेता ने डॉं अंबेडकर के दोनो आह्वान को पूरा करने में कोई रूची नही दिखाई । उल्टे वे पार्टी के टिकट पाने पद  पाने के निजी लालाच में डॉं अंबेडकर के विरुध लोगो को भड़काते रहे। यह प्रकिया आज भी जारी है। 
2) धर्मान्धता यह देखा गया है जो दलित जातियां पिछड़ी या गरीबी का शिकार रही है वे अति धार्मिकता से ग्रसि‍त रही है। सफाई कामगारों के साथ भी यही हुआ। जाति शोषण से परेशान होकर यदि कोई धर्मांतरण करना चाहता तो उसे किसी काल्पनिक गुरू के सहारे धर्माधता में ढकेल दिया जाता। वे गरीब होने के बावजूद सारे कर्म काण्ड कर्ज लेकर करती। भले ही बच्चों को शिक्षा देने के लिए पैसे न हो। आज भी धर्मांधता सफाई कामगारों के पिछडे़पन का एक बड़ा करण है।
3) नशा-सफाई कामगार के परिवार ज्यादतर नशे के गिरफ्त में होते है। नशे के कारण वे अपने पेशे आत्म सम्मान के बारे में सोच नही पाते है। नशा करना घर की महिलाओं से या आपस में झगड़ना दैनिक दिन चर्या का अहम हिस्सा  है।
4) आलस- आमतौर पर सफाई कामगारों द्वारा यह सुना जाता है कि अपना वाला काम करो बड़े मजे है। रोज सुबह एक दो घंटा काम करों। दिन भर का आराम। इस काम में मेहनत कम होने की एक वजह के कारण लोग इस काम को छोड़़ना नही चाहते यह देखा गया है। दूसरा यह है कि घरों में सेफ्टी टैक साफ करने के उचे दाम मिलते है। अगर एक दिन में दो घरो का काम मिल गया तो इतने पैसे आ जाते है कि एक हफ्ता काम करने की जरूरत नही पड़ती। शहरी करण ने आम लोगो को इस काम के उचे दाम देने के लिए मजबूर किया है।
तो प्रश्न यह उठता है कि सफाई कामगार कब अपनी गंदी बस्ती और गंदे पेशे को छोड़ेगा?
 यह तभी होगा जब वह अंबेडकरी आंदोलन से जुड़ेगा। सामाजिक नेता, धर्मांधता, नशे के गिरफ्त्‍ से बाहर निकलेगा आलस को त्यागेगा। उसे खुद सोचना होगा क्यों  वह आज तक इतना पिछडा है। परियार कहते है जिस समाज का आत्मसम्मान नही होता वह कीड़ों का एक झुण्ड के बराबर है। इसलिए आत्मसम्मान जगाना होगा। इस काम में समाज के ही अंबेडकरवादी पेरियार वादी बुध्दजीवियों सामाजिक कार्यकर्ताओं को आगे आना होगा तभी इस समाज में आत्मसम्मान जागेगा और सफाई कामगार समुदाय अंबेडकरी आंदोलन से जुड़ेगा।


रविवार, 29 दिसंबर 2019

Dalit Panther is the name of the authors' ground movement


लेखकों के जमीनी आंदोलन का नाम है दलित पैंथर
संजीव खुदशाह
वंचित वर्ग के आंदोलन का विश्व में एक अलग इतिहास है और उसका एक अपना मकाम है।  विश्व के वंचितों के आंदोलन का इतिहास, दलित पैंथर के जिक्र के बिना पूरा नहीं हो सकता। बहुत थोड़े समय चले इस दलित आंदोलन ने भारत में अपनी अमिट छाप छोड़ी है। आज जब हम ज वि पवार की किताब "दलित पैंथर एक अधिकारीक इतिहास" पढ़ते हैं तो हमें जानकारी मिलती है की उन्होंने क्या-क्या काम किया और किन हालातों में उपलब्धियां हासिल की?
ऐसा माना जाता रहा है की दलित पैंथर, अमेरिकी अश्वेत आंदोलन के ब्लैक पैंथर से प्रभावित हैं। यदपि ये लगभग समकालीन थे । ब्लैक पैंथर की स्थापना अमेरिका में 15 अक्टूबर 1966 को हुई थी जबकि दलित पैंथर का जन्म भारत में 29 मई 1972 को हुआ।
जिस समय भारत में दलित पैंथर की स्थापना हो रही थी। महाराष्ट्र राज्य में दलितों के प्रति अछूत पन की भावना और जातिगत शोषण की स्थिति चरम में थी। दैनिक अखबार दलितों के शोषण की खबरों से भरे होते थे। बे लगाम सामंती वर्ग जो शोषण कर रहा था। पुलिस प्रशासन शोषको के साथ खड़ा था और राज्य सरकार मानो इस शोषण में मौन सहमति दे रही थी। शिवसेना के गुंडे दलितों के साथ अत्याचार कर रहे थे। कांग्रेस की सरकार दलितों की नहीं सुन रही थी।
दलित महिलाओं के साथ बलात्कार करना। अपने खेतों में बेगारी कराना। दलित बस्तियों के कुओं में मल मूत्र डाल देना। उन्हें बहिष्कृत करना। उच्च जातियों का रोज का काम हो गया था। ऐसी परिस्थिति में उस समय दलितों के लिए काम कर रही राजनीतिक पार्टी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया कुछ नहीं कर पा रही थी या कहें शोषक पार्टियों की तरफ थी।
ऐसे समय में दलित पैंथर की स्थापना हुई। ज वि पवार की माने तो दलित पैंथर के शुरुआती दौर में नामदेव ढसाल, ज वि पवार, राजा ढाले, दया पवार, अर्जुन डांगले, विजय गिरकर, प्रहलाद चेदवनकर, रामदास सोरटे, मारुति सरोटे, कुडी राम थोरात, उत्तम खरात और अर्जुन कस्बे जैसे लोग शामिल थे। सभी दलित लेखक थे। कुछ लेखकों की गिनती नामी मराठी  साहित्यकारों में होती थी।
दलित पैंथर के पहले बयान में कहा गया कि "महाराष्ट्र में जातिगत पूर्वाग्रह पर बेलगाम हो गए हैं और धनी किसान, सत्ताधारी और ऊंची जातियों के गुंडे जघन्य अपराध कर रहे हैं। इस तरह के अमानवीय जातिवादी तत्वों से निपटने के लिए मुंबई के विद्रोही युवकों ने एक नए संगठन "दलित पैंथर" की स्थापना की है।"
शुरू में इस संगठन से मुंबई के ढोर चाल (छोटी जातियों के लिए प्रयुक्त शब्द) जहां नामी कवि नामदेव ढसाल रहा करते थे और कमाठीपुरा फर्स्ट लेन सफाई कर्मचारियों के लिए आवंटित मकान जिसे सिद्धार्थनगर भी कहा जाता था। जहां ज वि पवार रहते थे। के मोहल्ले के लोग जुड़ रहे थे । याने यहीं से दलित पैंथर की शुरुआत हुई।
12 अगस्त 1972 को एरण गांव में घटी एक घटना ने पूरे महाराष्ट्र को हिला कर रख दिया वहां रामदास नारनवरे नामक एक दलित किसान की क्रूरता पूर्वक हत्या कर दी गई। उसके पास 8 एकड़ भूमि थी और चार भाई मिलकर शांति और प्रसन्नता पूर्वक जीवन यापन कर रहे थे। अपने आत्म सम्मान और अपनी निर्भरता के कारण वे गांव वालों के आंखों की किरकिरी बने हुए थे। वह गांव वालों की खास करके सामंतों की जी हजूरी नहीं करते थे। इसीलिए गांव वाले उन्हें सबक सिखाने का मौका ढूंढ रहे थे। गांव में हैजा की बीमारी से 2 लोगों की मृत्यु ने उन्हें मौका दे दिया। गांव के लोगों ने बैठक बुलायी और उन्होंने निर्णय लिया कि गांव के देवी से सलाह लेंगे। एक भक्त के ऊपर देवी आई और उन्होंने इसके लिए रामदास नारनवरे को ही जिम्मेदार बताया। उन्होंने बताया कि वे श्मशान घाट जाकर शैतान को प्रसन्न करने के लिए तांत्रिक प्रयोग करते हैं। इसी कारण गांव में हैजा फैला है। इससे बचाव का एक ही तरीका है नारनवरे की बलि।
गांव वालों ने विचार करना शुरू किया की बलि देने का क्या तरीका होगा। वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मनुस्मृति में वर्णित तरीका ही सबसे बढ़िया होगा। वह उन्हें जबर्दस्ती पड़ोसी गांव पाटनसावंगी के मुखिया के पास ले गये। मनुस्मृति में निर्धारित नियमों के अनुसार नारनवरे की बलि दी गई। पहले उसके कान और नाक काटे गए फिर गला। उसके शव को एक कुएं में फेंक दिया गया। शव 2 दिन तक पानी में तैरता रहा। पुलिस ने इस मामले को रफा-दफा कर दिया। पोस्टमार्टम किया गया सरकारी सर्जन ने उसमें लिखा है कि मौत पानी में डूबने से हुई। क्योंकि मृतक दलित था इसलिए इस मामले को दबा दिया गया और लाश को दफना दिया गया। परंतु मीडिया को इस भयावह हत्याकांड की खबर लग गई और इस बारे में दैनिक अखबारों में खबर छपने लगी तो शव को फिर से निकालकर पोस्टमार्टम करवाना पड़ा। तब कहीं जाकर मामला खुला। इस मामले में 9 लोगों को गिरफ्तार किया गया।
दलित पैंथर एक समय पूरे महाराष्ट्र में सक्रिय था। जहां कहीं भी दलितों के साथ शोषण की सूचना मिलती। सारे पैंथर वहां पहुंच जाते हैं और दलितों को न्याय दिलाने का प्रयास करते हैं। एक बार राजगुरूनगर तहसील के अस्खेड़गांव में किसी उच्च जाति के व्यक्ति ने दलित किसान बिठूर दगड़ु मोरे की कनपटी पर बंदूक सटाकर 30 एकड़ भूमि को जबरन कब्जा कर लिया और उसमें फसल लेने लगा। जैसे ही दलित पैंथर को इसकी सूचना मिली। मुंबई से 92 दलित पैंथर तुरंत गांव पहुंचे और उस दबाव में आकर उसे  जमीन वापस करना पड़ा, मुआवजा भी देना पड़ा। इस तरह जहां भी शोषण होता दलित पैंथर खड़े हो जाते। साथ साथ पैंथर के सदस्य न्यूज़पेपर साहित्यिक पत्रिकाओं में भी कॉलम लिख रहे थे। कविताएं लिख रहे थे। गौरतलब यह है कि दलित पैंथर के सभी सदस्य गरीबी परिस्थिति से आते थे। कोई  टैक्सी चलाता था। कोई कपड़ा मिल में मजदूर था। कई सरकारी नौकरियों में थे। ज्यादातर लोग तंग गलियों , झुग्गियों, गंदी बस्तियों में रहते थे।
गैर दलितों को भी सहयोग किया।
दलित पैंथर शोषण के खिलाफ खड़े थे। कुछ प्रगतिशील सवर्ण भी दलित पैंथर के साथ थे। इसके कारण उन्हें अपनी नौकरी में समस्या आती थी। बड़े अधिकारी उन्हें सस्पेंड करने या नौकरी से बर्खास्त करने का नोटिस देते । दलित पैंथर ऐसे शोषण के खिलाफ उठ खड़े होते और उन्हें शोषण से मुक्ति दिलाते थे।यह संगठन दलितों में किसी एक जाति तक सिमटा हुआ नहीं था गैर बौद्ध दलित युवक बहुत मात्रा में इस संगठन के सदस्य थे।
दलित पैंथर पर अब तक चार किताबें लिखी जा चुकी है। जिसके लेखक हैं ज वि पवार, नामदेव ढसाल, अजय कुमार, शरण कुमार लिंबाले। दलित आंदोलन को समझने के लिए खास तौर पर दलित पैंथर के आंदोलन को समझने के लिए इन चारों किताबों को पढ़ना जरूरी है।
श्री पवार अपनी किताब में बताते हैं कि जगन्नाथ पुरी के शंकराचार्य निरंजन तीर्थ ने एक बार कहा था कि कोई मोची चाहे कितना ही पढ़ लिख ले वह मोची ही रहेगा और एक अछूत हमेशा अछूत ही रहेगा। दलित पैंथर को यह बर्दाश्त नहीं था। दलित पैंथर ने जगह-जगह शंकराचार्य का विरोध किया और महाराष्ट्र में उनके हर कार्यक्रम में बाधा डाली गई। शंकराचार्य इतना डर गए कि कई सालों तक महाराष्ट्र का दौरा नहीं किए।
एक बार दलित पैंथर ने महाराष्ट्र में दलितों पर हो रहे हमले के विरोध में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की रैली में विरोध करने का प्रेस रिलीज जारी किया। इससे पहले भी बड़े बड़े नेताओं के कार्यक्रमों और रैलियों में बाधा डाल चुके थे। प्रशासन भय ग्रस्त थी। उन्होंने प्रधानमंत्री से दलित पैंथर के नेताओं की मुलाकात करवाई ताकि कार्यक्रम निर्विघ्न रूप से आयोजित किया जा सके। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि दलित पैंथर कितना प्रभावशाली थे।
दलित पैंथर हमेशा राजनीति को प्रभावित करते रहे हैं लेकिन उनका दावा था कि वह एक गैर राजनीतिक सामाजिक संगठन है। वह डॉक्टर अंबेडकर के आदर्श पर चलते हैं। दलित पैंथर ने अपने 5 साल के कार्यकाल में संघर्ष के दौरान कइ पैंथरों को जान से हाथ धोना पड़ा कई पुलिस की मुठभेड़ में मारे गए।
दलित पैंथर के बाद कोई भी ऐसा संगठन सामने नहीं आया जो इसकी कमी पूरी करता हो। कुछ लोगों ने जरूर दावा किया कि वह दलित पैंथर अभी भी चला रहे हैं। लेकिन वह सिर्फ कागजों में था। वर्तमान में भीम आर्मी की सक्रियता बढ़ी है और भीम आर्मी के सदस्य दलित पैंथर की तरह ही काम कर रहे हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि भीम आर्मी को दलित लेखकों का साथ नहीं मिला। जबकि दलित पैंथर को लेखकों ने ही खड़ा किया था। दलित पैंथर और भीम आर्मी में बेसिक फर्क यह है कि दलित पैंथर का दावा था कि वह अंबेडकरी सिद्धांत को लेकर काम कर रहे हैं। जबकि भीम आर्मी के नेता कहते हैं की वह संविधान की रक्षा के लिए काम कर रहे हैं। 
ज वी पवार अपनी किताब में बताते हैं कि दलित पैंथर के पतन का सबसे बड़ा कारण था। पैंथर के बीच में कई गुटों का उभर जाना। कई बार यह होता था कि एक ही शहर में दलित पैंथर के अलग-अलग कार्यक्रम, अलग-अलग गुट के लोग करते थे। इससे आम जनता और कार्यकर्ताओं में कन्फ्यूजन पैदा होता था। कुछ जगह दलित पैंथर के लोग पद में आने के बाद वसूली का धंधा करते थे और खुद दलितों का शोषण करने लगे थे। इसीलिए एक प्रेस रिलीज जारी करके दलित पैंथर को आधिकारिक रूप से भंग कर दिया गया।
ब्लैक पैंथर की तरह दलित पैंथर का भी कार्यकाल बेहद कम था। ब्लैक पैंथर का कार्यकाल सिर्फ 2 साल का था। लेकिन उन्हें अमेरिका में पूर्ण सफलता मिल गई। दलित पैंथर का कार्यकाल सिर्फ 5 वर्ष का था जिसने पूरे भारत के दलित आंदोलन को प्रभावित किया और आज भी प्रेरणा का एक स्रोत है। लेकिन आज भी दलितों के साथ होने वाले शोषण और भेदभाव में कोई कमी नहीं आई है।
यह दलित आंदोलन, दलित लेखकों ने ही खड़ा किया था। आज की तरह जब दलित लेखक एक दूसरे की टांग खींचने में आमादा है । व्यक्तिवाद और जातिवाद का खेल, खेल रहे हैं । बहुत हुआ तो अपने आप को लेखन तक सीमित कर के आत्ममुग्धता में खोए हुए हैं। केवल लिखकर अपने काम का इतिश्री मानते हैं। उनके लिए दलित पैंथर एक  मिसाल की तरह है। देखना यह है क्या आज के दलित लेखक इससे कोई सबक ले पाएंगे?
PUBLISH IN NAVBHARAT 29/12/2019

सोमवार, 19 नवंबर 2018

Know how valuable your vote

जानिए कितना बहुमूल्य है आपका वोट

संजीव खुदशाह
भारत के ग्रामीण मतदाताओं में वोट के प्रति जागरूकता शहरी मतदाताओं के वनिस्पत कुछ ज्यादा होती है। आंकड़े बताते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में मतदान का प्रतिशत ज्यादा होता है और शहर के क्षेत्रों में मतदान का प्रतिशत कम होता है। इसके कुछ कारण है, शहरी मतदाता पढ़ा लिखा सक्षम होने के बावजूद कुछ भ्रम पाले हुए रहता है। जिसके कारण वह वोट डालने नहीं जाता है आइए जाने वह कौन कौन सी वजह है।
2 उसे यह भ्रम होता है कि- मैंने अगर वोट नहीं दिया तो क्या होगा ? सभी लोग वोट देंगे मेरे एक वोट से कुछ होने जाने वाला नहीं है।
3 कई बार उसकी सोच रहती है कि - उस दिन डिसाइड करेंगे वोट देना है या नहीं। समय मिला तो वोट देंगे नहीं मिला तो नहीं देंगे। आलस्य के भावना।
4 कुछ उल्‍झन का बहाना होता है जैसे- मुझे मालूम नहीं है कहां पर वोट देने जाना है। मतदाता सूची में मेरा नाम है या नहीं?

5 कभी वह अहंकारी हो जाता है सोचता है कि - वोट देने चला भी जाऊंगा तो मेरे जैसा व्यक्ति जिंदगी में कभी भी लाइन में खड़ा नहीं हुआ है। मैं लाइन में क्यों खड़े हो ऊंगा।
6 संकोच करता है - मुझे किससे पूछना है कि मेरा मतदान केंद्र कहां पर है। सूची में कहां पर मेरा नाम है। इसके संकोच के कारण शहरी लोग वोट देने नहीं जा पाते हैं।
जबकि मतदान संबंधी पूरी जानकारी चुनाव आयुक्‍त द्वारा इस वेबसाइट में मुहैया कराई गई है कोई भी व्‍यक्ति अपने नाम मतदान केन्‍द्र वोटर आई डी की जानकारी आसानी से ले सकता है1
पूरे देश के किसी भी राज्‍य के लिए https://eci.nic.in/eci_main1/Linkto_erollpdf.aspx,
इन तमाम कारणों से वह वोट देने नहीं जाता है। और फिर बाकी के 5 साल कोसता रहता है अपने ही प्रतिनिधियों को, कि वह फलां काम नहीं करते हैं। उन्होंने यह काम गलत किया है। और ऐसा होना चाहिए था। गलत आदमी चुना गया। जबकि वह स्‍वयं वोट न देकर अपनी जिम्‍मदारी नही निभाता है।
राजनीतिक पार्टी शहरी मतदाताओं को प्रेरित करने में उदासीनता
ज्यादातर ऐसा माना जाता है कि शहरी पढ़ा लिखा मतदाता अपने विवेक और ज्ञान का प्रयोग करके मत दान देते हैं। और किसी भी लालच जैसे दारू साड़ी कपड़ा आदि में ना आकर विवेक के आधार पर वोट देना पसंद करते हैं। इस कारण राजनीतिक पार्टियां शहरी मतदाताओं को वोट डालने के लिए ज्यादा प्रेरित नहीं करती है। क्योंकि ग्रामीण मतदाताओं के वनिस्पत शहरी मतदाताओं के पास उम्मीदवारों के संबंध में ज्यादा जानकारी होती है।
शहरी मतदाताओं में अवेयरनेस जागरूकता की कमी
ज्यादातर यह माना जाता है कि शहरी मतदाता जागरूक होता है। लेकिन सोशल मामलों में या कहें मतदान के मामलों में शहरी मतदाताओं में अवेयरनेस की कमी होती है। ज्यादातर पॉश इलाकों में मतदान का प्रतिशत बेहद कम होता है, जहां पर बुद्धिमान और रसूख वाले लोग बसते हैं। वहीं दूसरी ओर शहर के ही स्लम और झुग्गी झोपड़ी वाले एरिया में मतदान का प्रतिशत अधिक होता है।
चुनाव आयुक्‍त जागरूकता मुहिम
चुनाव आयुक्‍त के द्वारा मतदान के प्रति मतदाता की रूची बढाने के लिए विज्ञापन फलैक्‍स नुक्‍कड नाटक रैली का प्रयोग किया जा रहा है, और मतदान हेतु प्रेरीत करने में कोई कसर नही छोड़ी जा रही  है।
आपका एक वोट क्या क्या कर सकता है
कुछ मतदाता यह समझते हैं कि उनके एक वोट देने नहीं देने से क्या फर्क पड़ेगा। दरअसल उनका एक वोट जितने उम्मीदवार खड़े हैं। उन सभी को प्रभावित करता है। मान लीजिए 15 उम्मीदवार हैं। तो आपका एक वोट जिसे आप दे रहे हैं उसे आगे बढ़ाए गा और इतनी ही संख्या में वोट बाकी  उम्मीदवारों से कम हो जाएंगे। क्‍योकि वोट की संख्‍या निश्चित होती है।
आपने अपना वोट नहीं दिया तो क्या होगा
यदि आपने अपना वोट नहीं दिया है तो एक गलत उम्मीदवार चुना जा सकता है। एक अच्छा उम्मीदवार चुनने से महरूम हो सकता है। योग्‍य उम्‍मीदवार आपकी समस्‍याओं को समझ सकता है, जनहीत के मुद्दो को शासन के समक्ष उठा सकता है। वहीं यदि कोई भ्रष्‍ट उम्‍मीदवार विजयी होता है तो वह जन विरोधी  कार्य करेगा, जनता को आपस में लड़वायेगा, दंगे करवायेगा, जनता द्वारा जमा किये टैक्‍स के पैसे का दुरुपयोग करेगा, अपन घर भरेगा। यदि आप अपना वोट नोटा को भी देते हैं तो भी यह संदेश जाता है कि मौजूदा उम्मीदवारों में से कोई भी आपको पसंद नहीं है। लोकतंत्र में आपको हर प्रकार से अपनी बात को रखने का मौका मिलता है और वोटिंग या चुनाव प्रथा लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करती है। भारत का लोकतांत्रिक इतिहास इस बात का गवाह है कि जब जब पढ़ा-लिखा और समझदार मतदाता मत डालने के लिए भारी संख्या में निकलता है तो लोकतंत्र में अप्रत्याशित परिणाम आते हैं। आईये हम भारत के एक एक मतदाता यह सुनिश्चि‍त करे की वे अपना वोट जरूर दे और भारतीय लोकतंत्र को मज़बूती प्रदान करे।