सफाई कामगार समुदाय
डॉं. गंगेश गुन्जन
संसार आज नित्यप्रति मानो सिमटता-सिकुड़ता जा है। अपने देश के भीतर का भी अधिकांश समाज इसी दौड़ में शामिल हो चुका है। ऐसे में इस प्रकार की पुस्तकें सामाजिक अध्ययन और आचार-विचार की दिशा में, आधुनिक भारतीय समाज के मौजूदा परिवेश को समझने में काम आनेवाली है।
देश और दुनिया के अधिकांश की सामाजिक संरचना में गहरे बैठे बीमारी की तरह, आदमी की गंदगी दूसरे एक लाचार आदमी के ही द्वारा सफाई की अमानवीय व्यवस्था, इस उंची वर्तमान सभ्यता की माथे पर कलंक ही तो है, स्वतंत्रता प्राप्त कर लेने के इतने स्वाधीन वर्षो के बाद भी, जात-पात, स्पृश्य-अस्पृश्य के प्रति देश के लोक-समाज का मन-मिज़ाज बहुत निश्छल नही था। ना ही इस विषयक गांधी-मन का आचरण-बोध ही सर्वस्वीकृत था।
उस पथ पर अग्रसर और बहुत दूर तक आगे निकल आये सामाजिक समरसता और न्याय की इस यात्रा में सुलभ-आंदोलन का देशव्यापी वातावरण बन सका और इसने, इस जातीय समाज में आत्मसम्मान की जो पत्यक्ष-परोक्ष चेतना और दृष्टि पैदा की, यथार्थवादी वैकल्पिक प्रयोग और उपाय सोचे-किये, उसकी प्रेरणा का रंग भी इस बहुत जरूरी अत: मूल्यवान किताब में परिलक्षित होता है। इसीलिए आकस्मिक नहीं है कि प्रकाशक ने इस पुस्तक की भूमिका सुलभ- आंदोलन के प्रणेता-संस्थापक डॉ विन्देश्वर पाठक से लिखवाई है।
भेदभाव आधारित अन्यायी जातिप्रथा जैसे मानव विरोधी चलन का परिष्कार-संस्कार करते हुए वसुधैव कुटुम्बकम के प्राचीन मौलिक भारतीय संकल्प को व्यवहार में पुनरूज्जीवित करने के मार्ग को नयी चिन्ता और आधुनिक समझ के साथ प्रशस्त करना अपरिहार्य है। सफाई कामगार समुदाय के ेलेखक ने इस मुद्दे को समझा है। लेखक की इसी समझ ने पुस्तक की उपयोगिता- आयु बहुत बढ़ा ली है।
बंगाल के भक्त कवि चण्डीदास ने कहा : सबार उपर मानुष सत्त ताहर उपर किच्छु नय। समस्त मनुष्यता के नीरोग भविष्य के लिये, इस ग्लोबल होते हुए विश्व समुदाय को, यह पाठ स्मरण करना, विकास के इसी कदम पर, जरूरी है।
''इस समाज के वर्ग ए में आनेवाले लोग आधा इस्लाम तथा आधा हिन्दू धर्म को मानते थे। इतना तो तय है कि इस पेशे में आनेवाले लोग विदेश से नही लाये गये बल्कि यहीं की उच्च जातियों से इनकी उत्पत्ति हुई।खासकर क्षत्रिय और ब्राम्हण जातियांे से।`` -इसी पुस्तक से पृ. ५
''किसी समय डोम वर्ग की जातियां श्रेष्ठ समझी जाती थी वे भी इस पेशे में आईं।`` जैसी जानकारियों वाली यह पुस्तक अपनी समस्तता में भले नही, किन्तु समाज के अधिकतम मानस को अपने दायरे में ला सकने में समर्थ हुई है। सुबुध्द-प्रबुघ्द पाठक समेत उनके लिए भी जो अल्प शिक्षित है। इस प्रकार मुझे तो महसूस हुआ है कि यह जो शोध का विषय है, या अधिक से अधिक कभी इतिहास के दायरे में भी ले जाया जा सकता है, अपने स्थापत्य में यह पुस्तक पढ़ते हुए मौलिक साहित्य लगती चलती है। कथानक की तरह।
प्रश्न यह उठता है कि आखिर किस विपत्ति या समस्या के कारण इन्हे यह गंदा और घृणित पेशा अपनाना पड़ा ?
मुझे तो यह भी लगता है कि इसके कई अंश यदि घोर अशिक्षित लोगों को भी रेडियो-पाठ की शैली में सुनाया जाय तो उन्हे इस पुस्तक का विषय और उनके लिए इसकी उपयोगिता क्या है इस बात को समझने में कहीं से भी कठिनाई नही होगी। पढ़ना इसकी उपयोगिता है, लेकिन सुन-सुनाकर भी इस किताब की आवश्यकता समझी जानी चाहिए।
सामाजिक परिप्रेक्ष्य इस पुस्तक में अपेक्षाकृत गौण है। इनकी उत्पत्ति, इतिहास एवं विकास पर विवेचना पर अधिक ध्यान दिया गया है। वैसे विषय की मांग भी है।
एक समय इस देश के लेखन में भोगे हुए यथार्थ के लिखने का बड़ा बोलबाला हुआ था, जिसकी भी एक ईमानदार उपस्थिति इस किताब में दीखती है। लेखक ने वर्षो इस समुदाय के बीच रहकर इनकी जीवन-स्थितियों की गहराई में जाकर अध्ययन किया है और मर्म के साथ समझा है तब लिखा है, तथ्यों को विश्वसनीयता से रखा है। प्रतिपाद्य विषय से लेखक की यह गहरी सम्बद्धता-संलग्नता पाठक के लिए भी पढ़ना सहज करती है।
इनकी प्रतिपादन-शैली में इसीलिये, इतिहास और तथ्यों की ताकत तो है लेकिन समाज मंे किसी वर्ग या वर्ग विशेष के विरुद्ध किसी प्रकार की गैर जरूरी आक्रमकता नहीं। ऐसी ज्वलंत समाज-सांस्कृतिक समस्याओं-विषयांे के विमर्श में आज प्रमुखता है - आक्रामक पक्षधरता और प्रत्याक्रमक विरोध। तिखे तेवरों के इस द्वेषी परिवेश मंे मूल मानवीय सहिष्णुता का गुण लगभग गायब ही हैं, और वर्ग -मित्र तथा वर्ग-शत्रु का एक नया ही आवतार हुआ लगता है, जिसने हमारी वैचारिक अर्हता का अपहरण कर लिया है। और वह अपहरण इतना देखार भी नहीं कि समाज इसको तत्काल पहचान सके और तब अपनी-अपनी बुद्धि, युक्ति के साथ इसे ग्रहण करे या खारिज कर सके। संवादों की इस आवाजाही मंे पारस्परिक क्रोध, अस्वीकार और संभव सीमा तक प्रतिशोधी मानस ही तैयार कर डाला गया है। मेरे विचार मंे यह इस संदर्भ का यह एक नया ही रोग हो रहा है साधारणत: प्रचलित आजकी व्यवहार शैली, सामाकजि सामस्या के इस अहम और नाजुक मामले को अपने-अपने दायर में ही परखने की हिमायत करती है। यह दुर्भाग्यपुर्ण ही है कि इतनी बड़ी बात को सत्ता और विपक्ष के अंदाज में हल्के-फुल्के तेवर की तरह ले लिया जाता है। एक संदेहास्पद दरार और दूरी तैयार कर इस संवेदनशील विषय पर व्यापक विमर्श नहीं होकर अधिकतर संकुचित चर्चा-प्रतिचर्चा का ही रूप दे दिया जाता है। जिससे परस्पर आपसी समझ और संवाद प्रदूषण का शिकार हो जाता है।
सफाई कामगार समुदाय पढ़ते हुए शिद्दत से महसूस होता है कि लेखक ने इस समकालीन ग्रंथि को समझा है। और अपनी इस प्रगतिशील लौकिक समझ के दायरे में ही इस विमर्श को रखकर देने की जो युक्ति की है वह सराहनीय है। पुस्तक में बरती गई अपने वास्तविक वय से बहुत बढ़कर लेखक द्वारा बरता गया संयम और विवेकी शालीनता दुर्लभ है। पाठक का ध्यान अवश्य जाएगा। आजकी इस डिजिटल-मुठ्ठी मंे समाती जाती हुई यह पूरी दुनियां में, जिसमें कुछ खतरनाक सामाजिक विषमताओं वाला अपना देश भारत भी है, ऐसे सभी विषय अप्रासंगिक होने के लिए तैयार हैं। प्राय: दिनकर जी ने या हंसकुमार तिवारी जी ने या किन्हीं ऐसे ही विचारवान कवि जी ने यह पंक्ति कही थी - 'दुनियां फूस बटोर चुकी है, मैं दो चिनगारी दे दूंगा।` सो वह दो चिनगारी इस तरह की तमाम सामाजिक कोढ़ों वाले महलों का लंका दहन करने को तैयार है। संजीव जी का यह अध्ययन इतर रुची रखने वाले पाठाकों का भी ध्यान खींचेगे।
किसी की भावना आहत किये बिना, पुस्तक, इस कलंकमयी परंपरा पर मौजूदा समाज को आत्मविश्लेषण के लिये प्रेरित करती है। आधुनिक सभ्यता के समक्ष जलता हुआ यह सवाल सामने है! कि मनुष्य को जानवर से भी बदतर, इस नारकीय जीवन स्थिति तक पहुंचाने के लिये कौन उत्तरदायी है? अतीत की इस अनीति में हमारा वर्तमान अर्थात्-समाज कहां तक दोषी है?
इस शोध प्रबन्ध में, उस सिद्धान्त से कुछ भिन्न बल्कि विपरीत स्थापना भी दी गई है जिसके अनुसार भंगी-समुदाय मुसलमानों की देन माने और बतलाये जाते रहे है। भूमिका लेखक डॉ पाठक भी सहमत है जो प्रस्तुत शोध की मान्यता है कि मानव सभ्यता की इस सबसे कुरूप विडंबना में हिन्दू भी पूर्णत: निर्दोष नहीं है, जिसमें मनुष्य के मल-मूत्र अपने सिर, कंधे पर ढोने को अभिशप्त है।
सभ्यता की यह कैसी इक्कीसवीं सदी और उपलब्धियों का कैसा महाशिखर तैयार किया है विश्व के मौजूदा ज्ञान-विज्ञान ने, जिसका सारा पराभव सिर्फ कुछ एक वर्ग के मनुष्यों के लिये ही रख दिया गया है। समाज की कितनी बड़ी आबादी युगऱ्युग से आज भी ज़ह़ालत ज़ालालत और दरिद्रता भरी ज़िन्दगी जीने का मानो श्राप भोग रही है।
तथाकथित वैज्ञानिक उत्कर्षो से जगमग इस वैभवपूर्ण महान युग में जवाबदेह राजनीति, धर्म, समाज की परम्परा खुद हम, यह सभ्य समाज है? कौन? मात्र अपने ही देश नही, विश्व के अन्य देशों के सामने भी विश्व मानवता के सम्मुख ही आज यह यक्ष-प्रश्न है।
इस समुदाय की उत्पत्ति सम्बन्धी कुल तीन परिकल्पनाएं लेखक ने की है। जाहिर है इसके बारे में उचित अपेक्षित तर्क भी रखे है।
समुदाय को दो आधारों पर रखकर, वर्गीकरण भी उपयुक्त लगता है। सफाई पेशा कोई एक जाति नही करती है, इसमें कई जातियां लगी हुई है।
अत: स्वाभाविक ही इस पुस्तक में उसके सूत्र देखने परखने की गंभीर कोशिश है कि आखिर इस पेशे से लोग जुड़े क्यों? इससे पहले इनकी जीविका-पेशा क्या थी? अपने नजरिये से इस पुस्तक में उत्तर ढूंढ़ने की गहरी चेष्टा है।
वसुधैव कुटुम्बकम् की अर्थ-अवधारणा को पूर्वाग्रह से मुक्त होकर विचार करने का आग्रह है लेखक का। एक उदार स्पष्टोक्ति है लेखक की ''इसकी प्रासंगिकता पर विचार क्रम में आप सोचें क्या बेहतर हो सकता है? यदि विसंगति है तो समाधान क्या है ?`` अर्थात हमें बतलाएं, मुझे बतलायें।
विषय के लिये जरूरी बिन्दुओं पर गंभीर मंथन के फलस्वरूप इसमें आई गुणवत्ता स्पष्ट परिलक्षित है। तथ्यान्वेषी विधि के सटीक उपयोग के सहारे यहां संदर्भो और इतिहास के वैसे भी प्रामाणिक प्रसंग प्रस्तुत किये गये है जो इस विषयक जानकारी में वर्तमान पीढ़ी के लिये उपयोगी योगदान बनेंगे । जनसाधारण के अनुभव और ज्ञान के लिये भी यह बड़े काम की होगी।
(क) जनसाधारण को शायद ही यह पता है कि जिस तरह ब्राम्हण अछूत से घृणा-भाव रखते और दूरी बरतते थे, उसी प्रकार अछूत भी ब्राम्हणों से घृणा करते थे। उनमें से कुछ जातियां ब्राम्हण को अपवित्र मानती है।
(ख) ''आज भी गांव में एक पैरियाह(अछूत) ब्राम्हणों की गली से नहीं गुजर सकता, यद्यपि शहरों में अब कोई उसे ब्राम्हणों के घर के पास से गुजरने से नहीं रोकता। किन्तु दूसरी ओर एक पैरियाह किसी भी स्थिति में एक ब्राम्हण को अपनी झोपड़ियों के बीच से नहीं गुजरने देता, उसका पक्का विश्वास है कि वह उनके विनाश का कारण होगा।`` श्री अब्बे दुब्याव, पृ सं. ३४
(ग) जैसे सूचना के स्तर पर यह जानकारी हमें चौकाती है कि ''बार नवागढ़ धमतरी के निकट वहां के आदिवासी वर्ष में एक बार ब्राम्हण की बलि देते थे`` श्री चमन हुमने ने लेखक को बतलाया था, पृ. सं. ३४
(घ) ये जातियां (तंजौर जिले की अछूत जातियॉं) किसी ब्राम्हण के उनके मुहल्ले में प्रवेश करने का बड़ा विरोध करती है। उनका विश्वास है कि इससे उनकी बड़ी हानि होगी। श्री हेमिंग्जवे पृ.सं. ३४
(च) ग्रुप बी की भंगी जातियां अपने संस्कार (विवाह मृत्यु आदि) ब्राम्हणों से नही करवाती, बल्की इनके अपने पुरोहित होते थे जो घर के बुजुर्ग या प्रबुध्द व्यक्ति होते थे। वे इन संस्कारों में ब्राम्हण को बुलाना महाविनाश का कारण समझते थे। पृ.सं. ३५
चमार, चमारी, लैरवा, माली, जाटव, मोची, रेगर नोना रोहिदास, रामनामी, सतनामी, सूर्यवंशी, सूर्यरामनामी, अहिरवार, चमार, भंगन, रैदास आदि ब्राम्हण को पुरोहित नही मानते और न ही इन पर श्रद्धा रखते है। पृ. वही
मैसूर में हसन जिले के निवासी होलियरों के बारे में जी.एस.एफ. मेकेन्सी ने लिखा है कि ''सामान्य रूप से जो ब्राम्हण किसी होलियर के हाथ से कुछ भी ग्रहण करने से इन्कार करते है इसका यही कारण बताते है।``
दूसरी ओर यह जानकारी रोचक है कि....''किन्तु फिर भी ब्राम्हण इसे अपने लिये बड़े सौभाग्य की बात समझते है यदि वे बिना अपमानित हुए होलिगिरी में से गुजर जायं। होलियरों को इस पर बड़ी आपत्ति है। यदि एक ब्राम्हण उनके मुहल्ले में जबर्दस्ती घुसे, तो वे सारे के सारे इकठ्ठे बाहर आकर उसे जुतिया देते है और कहा जाता है कि पहले वे उसे जान से भी मार डालते थे। दूसरी जातियों के लोग दरवाजे तक आ सकते है किन्तु घर में नही घुस सकते। ऐसा होने से होलियर पर दुर्भाग्य बरस पड़ेगा।`` यह अंधविश्वास बहुत कुछ जीवित है अभी।
यह जानना बड़ा दिलचस्प लगता है कि:
''उड़ीसा की कुंभी पटीया जाति के लोग, सब का छुआ खा सकते है किन्तु ब्राम्हण, राजा, नाई धेाबी उनके लिये अस्पृश्य है।`` भारत वर्ष में जाति भेद पृ.सं. १०१ द्वारा
जबकि उपर्युक्त चारो में प्रथम दो का स्थान तो सत्ता और शासक का रहा है।
(छ) मद्रास प्रान्त में कापू जाति की संख्या सबसे अधिक है कापुओं की मेट्लय शाखा अत्यन्त ब्राम्हण संद्वेषी है। पृ.सं. ३६
प्रश्न है कि परस्पर यह विरोध और घृणा क्यों है दोनो में ?
यह केवल राजनैतिक तो नही लगता। धार्मिक, लोकाचार आदि के नाम पर शास्त्रों का गलत प्रयोग जो पिछले कई दशकों से उच्च जातियों का मनुवादी प्रवृत्ति के नाम से समाज और राजनीतिक विचार धारा का केन्द्रीय विमर्श बन गया है-तथा अंधविश्वास, ज्यादा महत्वपूर्ण कारण लगते है। क्योकि ये ही स्पृश्य-अस्पृश्यक की मान्यतायें समय के साथ, स्वभाव संस्कार में परिणत होती चली गई।
इस पूरे विषय को अपेक्षित समग्रता और तर्क संगत संाचे में रखने की लेखकीय दृष्टि का आभास इस पुस्तक के प्रारूप को देखने से लगता है।
इसके पांच खण्ड है। जिसमें विभिन्न विवेचना के बिन्दु शीर्षक आधारित है। इसमें इस पूरे परिप्रेक्ष्य को शोधपरक गहराई से विवेचित करने का उल्लेखनीय कार्य किया गया है, ऐसा आभास होता है इसमें कोई संदेह नही। लेखक की यह भी विशेषता लगती है कि भारत देश मे इतने गहन और संवेदनशील विषय पर, पूर्वाग्रहमुक्त दृष्टि से लगभग नीर-क्षीर विवेकी कर्तव्य के साथ विवेचना की गई है। सफाई कामगार समुदाय की अतिप्राचीन सामाजिक परिस्थितियों का अद्यतन अध्ययन किया गया है। इतिहास के कालक्रम में, उनकी वर्तमान सामाजार्थिक दशा, समाज-संास्कृतिक स्वरूप, लौकिक धार्मिक मान्यतायें, जीवनयापन में व्याप्त हीनग्रन्थि किन्तु प्रतिशोध से भरी बेचैनी और हताशा का भाव लेकिन इन्हीं परिस्थितियों में पनप रही किंचित नयी समझ और यत्किंचित ही सही परन्तु युगीन लोकतांत्रिक-अधिकार बोध के साथ, अपनी जीवन पद्धति से छुटकारे की प्रवृत्ति और ललक के साथ, विश्वभर में उठती मानवाधिकार की आवाजों से परिचित होते चलने के साथ ही देश के लोकतंत्र में मिले अपने संवैधानिक अधिकारों के बारे में आ रही जागरूकता, ये कुछ ऐसे लक्षण है जिनसे, शिक्षा के प्रति इच्छा और पेट-पालन के लिये सम्मान से भरे आर्थिक-विकल्प की बेचैनी, इनमें आ चुकी है। चेतना से भरे दिशा-बोध से अब ये लैस हो रहे है। और इस किताब में संस्थागत और संगठनों से जुड़ी तमाम जो सूचनाएं दी गई है, उनके मार्फत यह भी सहज ही पता चलता है कि गुणवत्ता भरे जीवनऱ्यापन के लिए संविधान में प्रदत्त अधिकार, समाज और संगठनों-संस्थाओं के ऊर्जा-स्रोज में इस समाज का आत्मसम्मान पूर्ण जीवनयापन का भविष्य मौजूद है जिसे इन्हे विधिवत आकार-प्रकार देना है। अर्थात् यह वर्ग और समाज शिक्षित-प्रशिक्षित हो चुका है। अनुपात भले अभी बहुत संतोषजनक और संतुलित न हो। जहां तक इस पुस्तक की बात है, इसमें इन तथ्यों की रोशनी में अध्ययन-अनुशीलन का जिम्मेदारी भरा प्रयास किया गया है। यह ग्रंथ अपने विषय का एक उपयोगी दस्तावेज बनेगा, ऐसा आभास सहज ही होता है।
०५.०९.२००७ शिक्षक दिवस
डॉ. गंगेश गुंजन
७४-डी, कंचन जंगा अपार्टमेंट,
सेक्टर -५३, नोयडा-२०१३०१
मोबाईल ०९८९९४६४५७६
समीक्षित कृति का नाम :- सफाई कामगार समुदाय
लेखक :- संजीव खुदशाह
प्रकाशक :-राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा. लि. जगतपुरी नईदिल्ली
पृष्ठ सं. :-१४७ मूल्य :- १५०रू.
प्ैठछ.८१.८३६१.०२२.६
sirji,thoda gyan badho.
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