पुस्तक समीक्षा
संस्कृत सबसे नई और कृत्रिम भाष्ाा है।
संजीव खुदशाह
भाषा की उत्पत्ति के विषय में अधिकांश प्राचीन
जनों का यह विश्वास था कि यह ईश्वर कृत है। बाइबिल के अनुसार भाषा की उत्पत्ति आदम
के साथ हुई। वह देवताओं की भाषा को समझते थे।
कुरान की एक आयत के अनुसार भी “उसने आदम को नाम सिखाए, सारे के सारे नाम।” मिश्री अपनी भाषा को देवताओं की सृष्टि मानते थे।
सत्रह वी शताब्दी तक स्वीडन के एक भाषा शास्त्री का यह निश्चित मत था कि ईडन के बाग में ईश्वर,
आदम और सांप क्रमश: स्विस, डेनिस और फ़्रेंच भाषा में बात करते थे। इसी
प्रकार भारत में कुछ लोग संस्कृत को देव भाषा मानते है और वेद आदी संस्कृत
ग्रंथ अपौरूषेय बताते है।
प्रस्तुत किताब “आर्य द्रविड भाषाओं का अंत: संबंध” में इन सब मुद्दों पर विस्तार से विमर्श किया
गया है। इस किताब में लगभग 15
अध्याय है। अध्यायों का शीर्षक रोचक है। जैसे प्राच्य विद्या की मनोवैज्ञानिक
पृष्ठभूमि, भाषा की उत्पत्ति और
विकास, संस्कृत धातुओं की
पृष्ठभूमि, संस्कृत और द्रविड भाषाएं, आर्य द्रविड शब्द भंडार की जङे आदी।
इस किताब के आमुख में लेखक प्रकाशक के
बारे में एक अजीब टिप्पणी करते है। जैसे की किसी मजबूरी में उन्हे यह किताब इस प्रकाशक से प्रकाशित
करने हेतु बाध्य होना पङा।
“मेरे अपने जीवन और मेरी कतिपय पुस्तको के साथ
ऐसा ही रहा है। उसी का परिणाम है कि जहां इस पुस्तक का प्रकाशन एक अन्य
प्रतिष्ठान से होना था, वहां
इसे सस्ता
साहित्य मंडल से प्रकाशित कराने का निर्णय लेना पङा।”
ग़ौरतलब है कि इस किताब का पहले 1973
में प्रकाशन हो चुका, यह इसका पुन: प्रकाशन है।
बहरहाल “प्राच्य विद्या की मनोवैज्ञानिक पृष्ठ भूमि” अध्याय शीर्षक में वे लिखते है प्राच्य भाषा
विद्वानों ने संस्कृत सहित अन्य भाषाओं का जो अध्ययन, ग्रंथो के अनुवाद लिखे। उसका एक मात्र उद्देश्य था।
हिन्दू धर्म का नाश करना ईसाई धर्म का प्रचार करना। लेखक का मानना है कि
ईस्ट इंडिया कम्पनी और अन्य अँग्रेज़ अफ़सर इसी लक्ष्य से वेदो स्मृतियों का
अनुवाद प्रकाशन में अहम भूमिका निभाते थे। वे मेक्समुलर जैसे विद्वान पर
प्रश्न उठाते हुए लिखते है।
“संस्कृत के अध्येता मैक्समूलर का जो गौरव
पूर्ण स्थान है उसके विषय में कुछ कहने की आवश्यकता नही।
प्राच्यविद्या के क्षेत्र में शायद ही किसी अन्य विद्वान ने इतना बङा काम किया हो
जितना इस जर्मन विद्वान ने। पर अपनी सीमाओं से वह भी उपर नही उठ सका था और
उसकी यह सीमा भारतीय सामग्री को समझने के मार्ग में उसकी सबसे बडी बाधा थी”
देखे पृष्ठ 50
वे आगे एक पत्र के हवाले से कहते है,
16 दिसंबर, 1868 को भारत सचिव ड्यूक आँफ आर्गाइल को पत्र
में उन्होने लिखा था, “भारत
का पुरातन धर्म रसातल को जाने वाला है और यदि ईसाइयत इसका स्थान लेने को अग्रसर नही
होती तो इसमें किसकी गलती है।” देखे पृष्ठ 51
यदि ऐसा सही भी था इसके बावजूद इन विदेशी विद्वानों के
श्रम को कम करके नही आंका जा सकता क्योकि कई शासक आये लेकिन इस प्रकार की खोज
किसी ने नही की। जबकि यह सर्वज्ञ है कि किस प्रकार भारत के संस्कृत साहित्य को छिपा कर रखा गया।
उसे पढना तो दूर देखने तक का हक नही था। उसे देव भाषा ईश्वर कृत ग्रंथ कहा गया जो
गैरब्राम्हणों के सिर्फ देखने या सुनने से ही अपवित्र हो जाता था।
मैक्यमूलर सहित अन्य पाश्चात्य
विद्वानों ने न सिर्फ इन किताबों को पढा बल्कि इसका अनुवाद अंग्रेजी में
किया तथा दुनिया को ये बतला दिया की इसमें रहस्य जैसा कुछ नही है। आज ये
किताबें अंग्रेज़ी से अनूदित होकर हिन्दी में उपलब्ध है। हमें तो इन पाश्चात्य
विद्वानों का ऋणी होना चाहिए जिन्होंने कई अपठ्य प्राचीन भाषाओं को पढा और उसका मतलब बताया। जिन
शिलालेखों पर ग्वाले बैठा करते थे या जो सिर्फ पूजा करने के काम आती थी।
उन्होने इनके ऐतिहासिक महत्व को बताया।
सकारात्मक तथ्य यह है कि भगवान सिंह
संस्कृत सहित अन्य भाषाओं को देवताओं से उत्पन्न भाषा नही मानते। किंतु
आर्य और द्रविड़ भाषाओं को एक ही कुल की भाषा मानते है। “आर्य और द्रविड भाषाएं परस्पर भिन्न कुलों की
भाषाएं नही है अपितु वे एक ही भाषाई पर्यावरण से निकली है
निश्चय ही उनका संबंध प्राचीन
अवस्थाओं पर जाकर जुडता है न कि ऊपरी स्तर पर” देखे अध्याय शीर्षक “भाषा की उत्पत्ती और विकास” पृष्ठ 103
वे वैदिक एवं संस्कृत दोनो को ही कृत्रिम
भाषाएं मानते है । वे प्राकृत के बारे में कहते है “प्राकृत नाम से इतना तो स्पष्ट है कि यह
नाम संस्कृत के विकास के बाद पडा था और इसका लक्ष्य संस्कृत का जन बोलियों
से भेद प्रकट करना था। प्रकृत या प्रकृति शब्द से इस शब्द की व्युत्पत्ति यह प्रकट करती है कि यह सामान्य
या अशिक्षित जन समाज की भाषा थी, जबकि संस्कृत विशिष्ट वर्ग की, विशिष्ट प्रयोजन से निर्मित भाषा।” देखे पृष्ट 131
इसी तारतम्य में वे डा चाटुर्ज्या के हवाले से
लिखते है कि प्राकृत भाषाओं से ही कृत्रिम भाषाएं वैदिक एवं संस्कृत का विकास हुआ। इस
अध्याय “वैदिक, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और आधुनिक बोलियाँ” में वे यह नई स्थापना देते है। जो महत्वपूर्ण है।
1- संस्कृत अलौकिक या देव भाषा नही है।
2- संस्कृत और वैदिक भाषाएं कृत्रिम भाषा है।
इनका कभी भी आम बोलचाल में प्रयोग नही हुआ।
3- उक्त दोनो भाषाओं का विकास प्राकृत से हुआ।
4- प्राकृत जो आम जन समाज की भाषा थी, का नामाकरण संस्कृत के विकास के बाद हुआ।
5- द्रविड भाषा की उत्पत्ति संस्कृत से नही
हुई है।
उनकी इस स्थापना से यह बात सिद्ध होती है कि
संस्कृत आर्यों की भाषा नही है क्योंकि इसका विकास प्राकृत से हुआ है प्राकृत जन मानस
की भाषा थी। आर्यों की नही।
द्रविड भाषा के बारे में लेखक भगवान सिंह
द्रविड भाषा के विद्वान काल्डवेल के हवाले से लिखते है कि द्रविड भाषा
की उत्पत्ति संस्कृत से नही हुई है। “काल्डवेल की अनेक स्थापनाओं में संशोधन हुआ है,
परंतु द्रविड भाषा के पृथक परिवार की अवधारणा और
तथ्य कि इसकी उत्पत्ति संस्कृत से नही हुई है, अकाट्य मानी जाती है। यह सच है कि द्रविड भाषाओं की
जननी संस्कृत
नही है, परंतु उतना ही सच यह
भी है कि उत्तर भारत की आधुनिक बोलियों की जननी भी संस्कृत नही है।” अध्याय शीर्षक “संस्कृत और द्रविड भाषाएं” देखे पृष्ठ 155
यह एक बेहतरीन किताब है। शोधात्मक भाषा
शैली में
लिखी यह किताब आम पाठक के लिए भी रोचक है। लेखक ने प्राकृत संस्कृत से लेकर द्रविड़
भाषा के अंत:संबंध को बडी गहराई और शिद्दत से प्रस्तुत किया है। आशा करता हूँ
भाषा विज्ञान से सरोकार करने वालो के लिए यह एक बहुमूल्य किताब सिद्ध होगी।
किताब का नाम - आर्य द्रविड भाषाओं
का अंत: संबंध (2013)
लेखक -
भगवान सिंह
पृष्ठ
-275 ISBN
-978-81-7309-674-7(PB)
मूल्य
-160 रू
प्रकाश्ाक -
सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन
एन - 77, कनॉट सर्कस, नई
दिल्ली 110001
प्रसिध्द पत्रिका युध्दरत आम आदमी के जुलाई 2014 में प्रकाशित
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