- संजीव खुदशाह
बहुत हद तक यह फिल्म अन्ना के आंदोलन से प्रभावित दिखती है।
जिस प्रकार अन्ना का इलीट क्लास आंदोलन जनलोकपाल से सारे भ्रष्टाचार के सफाया का दावा
करता था। उसी प्रकार यह फिल्म भी पेन्डीगं आवेदन के निराकरण से भ्रष्टाचार का सफ़ाया
करने का अनोखा सत्याग्रह करता है। दरअसल यह फिल्म भी अन्ना के अभिजात्यवादी आंदोलन
के तर्ज पर भ्रष्टाचार के मूल कारण धार्मिक और जातिगत भ्रष्टाचार को जङ से उखाङने
से परहेज करता है।
प्रकाश झा की फिल्म सत्याग्रह
सरकारी भ्रष्टाचार पर केन्द्रित है। यह एक ऐसे बुजुर्ग पिता द्वारका आनंद उर्फ़ दादू
की कहानी है, जो अपने ईन्जीनियर बेटे अखिलेश के साथ अम्बिकापुर मे रहता है। अखिलेश
कि मौत एक सडक हादसे में हो जाती है। गृह मंत्री बलराम सिंह (मनोज बाजपेई) 25 लाख
मुआवजे का ऐलान करते है। इस राशि को प्राप्त करने के लिए अखिलेश की विधवा कलेक्टर
आफिस के चक्कर लगाती है। लेकिन रिश्वत नही देने के कारण उसे मुआवजा नही दिया जाता
है। परेशान होकर अखिलेश के पिता द्वाराका आनंद कलेक्टर को थप्पङ मार देता है। और उसे
जेल में बंद कर दिया जाता है।
गाँधीवादी द्वारकानाथ आनंद (अमिताभ बच्चन) अंबिकापुर
के एक सरकारी स्कूल का रिटायर्ड प्रिसिंपल है, जो अपने दकियानूसी
आदर्शों पर चलने के लिए जाने जाता है। अर्जुन राजवंश ( अर्जुन रामपाल) जो द्वाराका
आनंद का बिगडैल शिष्य है उसके बचाव के लिए आता है। जब यह खबर विदेश मे रह रहे, अखिलेश
के रईस व्यापारी दोस्त, मानव राधवेन्द्र ( अजय देवगन) को लगती है तो वह अंबिकापुर आ
जाता है। यह वही दोस्त है जिसे द्वाराका आनंद हमेशा नीचा दिखाने की कोशिश करता रहता
था।
मानव अपने खर्च पर पोस्टर छपवाकर चौक चौराहे पर लगवाता
है। फेसबुक सहित सभी इंटरनेट माध्यम से फ़र्ज़ी फोटो और लाइक संख्या दिखा कर कैम्पेन
करता है। इस कैम्पेन में दादु को भ्रष्टाचार विरोधी आईकन की तरह पेश किया जाता है।
यहां यह बखूबी दिखाया गया है कि किस प्रकार टी.आर.पी. के लिए लार टपकाती इलेक्ट्रानिक
मीडिया फेसबुक की फ़र्ज़ी भीड़(लाईक) और फोटो के झांसे में आकर सचमुच एक बङा कैम्पेन
खङा करती है।
इसी केम्पेन के इर्द
गिर्द यह फिल्म घूमती है। बहुत हद तक यह फिल्म अन्ना के आंदोलन से प्रभावित दिखती है।
जिस प्रकार अन्ना का इलीट क्लास आंदोलन जनलोकपाल से सारे भ्रष्टाचार के सफाया का दावा
करता था। उसी प्रकार यह फिल्म भी पेन्डीगं आवेदन के निराकरण से भ्रष्टाचार का सफ़ाया
करने का अनोखा सत्याग्रह करता है। दरअसल यह फिल्म भी अन्ना के अभिजात्यवादी आंदोलन
के तर्ज पर भ्रष्टाचार के मूल कारण धार्मिक और जातिगत भ्रष्टाचार को जङ से उखाङने
से परहेज करता है।
सत्याग्रह का नायक दादू
अपनी निजी लड़ाई को सार्वजनिक लड़ाई मे तब्दील कर देता है और खुद नायक बन बैठता है।
वास्तविक जीवन में ऐसी घटना कम ही घटती है। यह बात ग़ौर तलब है की अन्ना की तरह दादू
भी सरकारी भ्रष्टाचार को ही भ्रष्टाचार मानते है। निजी, धार्मिक और जातिगत शोषण को अपनी महान संस्कृति का
अंग मानते है। शायद इसलिए की इन जगहों पर भ्रष्टाचार करने का अधिकार सिर्फ इन्ही इलीट
क्लास के पास होता है।
चूकि प्रकाश झा एक मंजे हुए फ़िल्मकार है और वे इससे
पहले राजनीति, आरक्षण जैसी फ़िल्मे
बना चुके है। उनसे अपेक्षा थी कि वे भ्रष्टाचार की जङ तक जाते और उसके मूल कारणों को
इस फिल्म के माध्यम से अवगत कराते। लेकिन उन्होने ऐसा नही किया।
तकनीकी दृष्टिकोण से यह एक अच्छी फिल्म बन पड़ी है।
अर्जुन रामपाल, अमिताभ बच्चन ने अपने
किरदार के साथ न्याय किया है। लेकिन मनोज बाजपेयी कुटील नेता के रोल में अपनी पिछली
फ़िल्मो की तरह उबाऊ अभिनय करते है। अजय देवगन मानव की भूमिका में जान डालने में ना
कामयाब रहे है। उनका हर स्थान पर एक ही तरह से डायलॉग डिलीवरी कही-कही ऊब पैदा करता
है। करीना कपूर को टीवी रिपोर्टर के रूप में करने के लिए ज्यादा कुछ नही था। बीच-बीच
में वह आंदोलन का हिस्सा बनकर कन्फयूजन पैदा करती है। वही बे वजह मानव से रोमांस करते
देखना फिल्म की गंभीरता को खत्म करता है।
कहानी, पटकथा कमजोर
है वही स्क्रीन प्ले, डायरेक्शन, संगीत उम्दा है। ऐसे लोग जो थोड़ा भी समाज और राजनीति
से सरोकार रखते है उन्हे ये फिल्म अवश्य देखनी चाहिए।
फिल्म का नाम – सत्याग्रह
अवधि--192 मिनट
निर्देशक—प्रकाश झा
बैनर—U.T.V. Motion Pictures
Publish in Forward Press December 2013