दलित लेखक संजीव खुदशाह बिलासपुर छत्तीसगढ़ के रहने वाले हैं. एम.ए. एल.एल.बी. तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद थिएटर से लेकर पत्रकारिता तक में सक्रिय रहे. वे प्रगतिशील विचारक, कवि, कथाकार, समीक्षक, आलोचक एवं पत्रकार के रूप में जाने जाते हैं. "सफाई कामगार समुदाय" एवं "आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग" इनकी चर्चित कृतियां हैं. इनकी किताबें मराठी, पंजाबी एवं ओडिया सहित अन्य भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं. संजीव की पहचान मिमिक्री कलाकार और नाट्यकर्मी के रूप में भी है. इन्हें कई पुरस्कार एवं सम्मान से सम्मानित किए जा चुका है.
http://www.bhadas4media.com/print/7238-2012-12-12-08-43-56.htmlश्री टी.एस. गगन दूरदर्शन केन्द्र निदेशक रायपुर
''दलित चेतना एवं हिंदी
साहित्य`` विषय पर एक विचार गोष्ठी
में अपने उदबोधन में कहा की संजीव खुदशाह ने एक ज्वलंत विषय पर गंभीर बहस का मौका
दिया है, उनके तर्क, उनकी सहमती-असहमती पूर्वागह से परे है।
मासिक पत्रिका कथादेश जून २०११
श्री भीष्म नारायण सिंह
पूर्व राज्यपाल एवं सांसद
मुंशी प्रेमचंद से लेकर श्री संजीव खुदशाह और डॉ.पूरन सिंह तक अनेक
लेखकों ने शोषित-पीड़ितों के संबंध में बहुत कुछ लिखा है। उनकी पुस्तकों में इनके
साथ हुए दुर्व्यवहार इनकी समस्याऍं और इनकी सामाजिक स्थिति का काल्पनिक एवं आनुभविक
चित्रण है।
१० अगस्त २००९ लोकसभा भवन में दिये गये भाषण का अंश
संदर्भ मासिक पत्रिका सुलभ इंडिया अंक दिसंबर २००९
पृष्ठ १२
रमणिका गुप्ता
ये सुखद बात है कि आधुनिक भारत
में पिछड़े वर्ग की जांच पड़ताल लेखक संजीव खुदशाह ने अंबेडकरवादी दृष्टिकोण से की है. विडंबना
ये है कि हमारा पढ़ा-लिखा समाज भी आज तक
अपनी जाति नहीं छोड़ पाया हैतो हम अनपढ़ समाज से इसकी उम्मीद कैसे कर सकते हैंजो सदियों से जाति की
गुलामी को ढोता आ रहा है. समाजशास्त्रा के इस विषय पर पुस्तक लिखकर संजीव खुदशाह ने गंभीर बहस
का एक मौका दिया है.
मासिक पत्रिका कथादेश फरवरी २०१०
मस्तराम कपूर
आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग (पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताऍं) प्रतिभाशाली दलित लेखक संजीव खुदशाह की दूसरी महत्वपूर्ण शोधपूर्ण रचना है। इससे पहले उनकी 'सफाई कामगार समुदाय` काफी चर्चित रही और इस समुदाय संबंधी अध्ययन के लिए वाशिंगटन विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में ली गई थी।
युद्धरत आम आदमी मार्च अंक २०१०
रमेश चंदम मीणा
सोचें।' (मल-मूत्र... विचार की कसौटी
पर- 348) गांधी के चिंतन में दलितों, हरिजनों के लिए दया भाव और
अपने धर्म की रक्षा छुपी हुई थी। इसलिए दलित हो या महादलित इनके बदलाव का एक ही
उपाय है वह यह कि बाबा के शब्दों में शिक्षित बनों। संजीव खुदशाह जैसा आत्मविश्वास
सैकड़ों दलितों में भी आ सका तो यह शर्मनाक कृत्य हर सूरत में 2010 तक ही खत्म हो सकता है।
द पब्लिक एजेंडा ७ जुलाइ २०१०
डॉं. गंगेश गुन्जन
मुझे तो यह भी लगता है कि इसके कई अंश यदि घोर अशिक्षित लोगों को
भी रेडियो-पाठ की शैली में सुनाया जाय तो उन्हे इस पुस्तक का विषय और उनके लिए
इसकी उपयोगिता क्या है इस बात को समझने में कहीं से भी कठिनाई नही होगी। पढ़ना इसकी
उपयोगिता है, लेकिन सुन-सुनाकर भी इस किताब की आवश्यकता समझी जानी चाहिए।
मलमूत्र ढोता भारतऱ्युध्दरत आम आदमी विशेषांक
प्रभाकर चौबें
आज के समय अछूतों पर लिखना भी जोखिम भरा काम हो गया है-कई तरह के
आक्षेप और पूर्व निर्धारित आग्रह से परे हटना आसान नहीं है। इसलिए ''सफाई कामगार समुदाय`` पढ़ना सफाई कामगारों की
स्थिती तथा अछूत मानलेने की मानसिकता और उनके कारणों की पड़ताल करती एक रचना से
गुजरना है।``
अक्षर पर्व जनवरी 2005, रायपुर लोकायत मार्च 2006 दिल्ली
राजेन्द्र यादव
विश्लेषणात्मक, शोधात्मक एंव वैज्ञानिक
तथ्यों पर आधारित पुस्तक के लिए संजीव खुदशाह की प्रशंसा करता हूं। लोकापण में।
हंस माच 2010
जयप्रकाश वाल्मीकि
श्री संजीव खुदशाह एक ऐसी शख्सियत का नाम है, जिसने दलित साहित्य में
ज्यादा कुछ न लिखकर अपनी एक शोधपूर्ण पुस्तक ''सफाई कामगार समुदाय`` के व्दारा दलित लेखकों की
पंक्ति में अपनी एक जगह बनाई है और अब वे किसी परिचय के मोहताज नहीं रहे।
समयांतर
प्रफ्फुल्ल कोलख्यान
हिन्दी भाषा के वृहत्तर साहित्य में हिन्दी सामाजिकता का स्थान
निरंतर संकुचित होता जा रहा है। यह सच है कि भारतीय समाज के बहुत बड़े हिस्से के
जीवन यापन, उनकी सांस्कृतिक स्थितियों को समझने के लिए साहित्य में प्रमाणिक
आधार विरल होते जा रहे है। ऐसे माहौल में संजीव खुदशाह की किताब'सफाई कामगार समुदाय` का आना महत्वपूर्ण है।``
वागर्थ अक्टूबर 2005, भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता
आलोक कुमार सातपुते
लेखक ने सफ़ाई कामगार समुदाय के अन्तर्गत आने वाली जातियों को
अवर्ण माना है। उनका कहना है कि अवर्ण, सवर्ण का विपरीत शब्द है
आमतौर पर सवर्ण में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैण्य ही माने
जाते हैं। किन्तु णाब्दिक अर्थ से देखें तो अवर्ण का अर्थ जो चारों वर्णों के
अन्तर्गत नहीं आते हैं। ऐसे में अछूत या अतिणूद्र इन चतुर्वर्ण से बाहर की जातियाँ
हैं।
युद्धरत आम आदमी अप्रैल-जून 2006, नई दिल्ली
पंकज पराशर
''निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि लेखक ने सफाई के पेशे एवं सफाई
कर्म में लगे लोगों की दशा,अतीत और दशा के लिए ऐसा अध्ययन प्रस्तुत किया है जो धर्मांतरण से
हलकान हिंदूवादी नेताओं को बेनकाब करता हैं, साथ-ही-साथ प्रगतिशील और
स्थावर दोनों तरह के लोगों को सोचने के लिए बाध्य करता है। प्रयास स्वागत योग्य
हैं।``
कादम्बिनी अक्टूबर 2005 नईदिल्ली
मोहन दास नेमिशराय
स्वयं वाल्मीकि समाज का व्यक्ति चेतना शुन्य रहा। उसे क्या करना
चाहिए इस तक का निर्णय लेने का अधिकार भी उसे नहीं था। उसे कर्म और धर्म से बांध
दिया गया। यह भी एक कारण है जैसा स्वयं संजीव खुदशाह ने वाल्मीकि बनाम् हिन्दूकरण
के अंतर्गत लिखा भी है, आश्चर्य की बात है कि जिस धर्म के कारण उनकी यह दुर्दशा हुई, दलित आंदोलन का लाभ पाकर
उन्नति करने के बाद उसी हिन्दू धर्म को अपनाने तथा मजबूत करने में ये लोग लगे हैं।``
पुस्तक वार्ता, मई-जून 2006
''संजीव खुदशाह ने अपने पुस्तक ''सफाई कामगार समुदाय``
(2005) में छूटे हुए कुछ सवालों के समाधान की एक कोशिश की है। वे
कहानियाँ और कविताएँ लिखतें है, पर इतिहास और विचार के
क्षेत्र में यह उनकी पहली पुस्तक है। संजीव ने तथ्यों को जुटाने और उनका विश्लेषण
करने में वस्तुत: काफी मेहनत की है।``
वर्तमान साहित्य, फरवरी 2007
नरेन्द्र श्रीवास्तव
युवा संजीव खुदशाह की कृति 'सफाई कामगार समुदाय`
(राधाकृष्ण प्रकाणन
नई दिल्ली) को पढ़ने उपरान्त उस बाबत् कुछ व्यक्त करने से पहले यह कह देना जरूरी
है कि इसे एक मुकम्मल मजमून की शक्ल देकर सफ़ाई कामगार समुदाय पर बड़ी शिद्दत और
मशक्कत के साथ लिखी गई यह पहली किताब है।
डाँ. सुशीला टाकभौरें
'सफाई कामगार समुदय` पुस्तक में संजीव खुदशाह की
लेखन शैली प्रशंसनीय है। संक्षेप में छोटे-छोटे मुद्दों को उठाकर उन्होनें
विश्लेषण पध्दति से विषय को स्पष्ट किया है। लेखक की भाषा सन्तुलित और सारगर्भित
है। हिन्दी में जानकारी पूर्ण इस ग्रन्थ को लिखकर लेखक ने विशिष्ट कार्य किया है।
इसके लिए वे अभिनंदन के पात्र है। लेखन जगत को उनसे अनेक अपेक्षाऐं है।
मुकेश मानस
युवा साहित्यकार और समाजिक कार्यकर्ता संजीव खुदशाह की किताब ''सफाई कामगार समुदाय`` का प्रस्थान बिंदु यही विचार
और चिंता है। लेखक के अनुसार यह किताब सफाई कर्मचारियों पर कई वर्षों तक किए गए
असके विशद शोध का नतीजा है। और यह अच्छी बात है कि संजीव खुदशाह ने सफाई
कर्मचारियों पर केवल किताबी शोध नहीं किया है। उन्होने अपने जीवन के अनेक वर्ष
सफाई कामगारों के जीवन और जीवन स्थितियों को जानने-समझने में लगाएं हैं, उनके जीवन का कोना-कोना
झांका है। इसीलिए यह किताब इतनी दिलचस्प और पठनीय बन पाई ।
अपेक्षा संयुक्तांक 16-17 अक्टूबर दिसंबर 2006
राज वाल्मीकि
सफाई कामगारों के बारे में इतनी व्यापक जानकारी देने वाली कदाचित्
यह पहली पुस्तक है। निसंदेह लेखक बधाई के पात्र है। यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता
है कि सफाई कामगार समुदाय के लोगों को यह पुस्तक जागरूक बनाएगी। सफाई पेशे से
जुड़े कार्यकर्ताओं, बुध्दिजीवियों एवं आम आदमी सभी को यह पुस्तक पढ़नी चाहिए।
दैनिक नवभारत सोमवार 29 जनवरी 2007
गोल्डी एम. जॉर्ज
संजीव खुदशाह की रचना दर्शाय गये तमाम संदर्भ वस्तुस्थिति के
परिप्रेक्ष्य में अमूल्य है। और यह निश्चित ही बदलाव की प्रक्रिया में अभिन्न
हिस्सेदारी निभायेगी।
मलमूत्र ढोता भारतऱ्युध्दरत आम आदमी विशेषांक
अजय नावरिया
संजीव खुदशाह ने सफाई कामगार समुदाय पर एक गम्भीर और शोध परख
पुस्तक प्रस्तुत कि है। यह पुस्तक इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसमें मैला प्रथा की
शुरूआत कहां से हुई और कैसे यह वाल्मीकि जाति की पहचान के साथ जुड़ गई।
संघर्ष पत्रिका
बी. आर. साहू
पुरानी, प्राचीन व अवर्तमान बातों की श्रुति तथा नए आधुनिक व वर्तमान
तथ्यों का दर्शन और श्री संजीव द्वारा इन सब के मंथन से उद्भूत उनके निष्कर्ष
निर्णय या फैसले नहीं। गुंजाइश तो अब है, इस पुस्तक को पढ़ने के बाद
सचमुच कुछ करने कम से कम कुछ सोचने की।
विचार विमश एवं प्रतिक्रियाएँ
डा. सुधीर सागर
संजीव खुदशाह की पुस्तक ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग
-पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताएं`` चार अध्याय में पिछड़े वर्ग
की मीमांसा करती है। पुस्तक में वर्ग की जांच पड़ताल डा. अंबेडकर के वैचारिकी को
केन्द्र में रख कर लिखा गया है। जबकि लेखक ने स्वयं लिखा है कि शोध प्रकल्प के रूप
में काफी संदर्भ सामग्री एकत्रित की है। वेद, स्मृति ग्रेथो, इतिहासकारों एवं विचाराको के
मान्यताए शामिल है।
Forward
Press Magazine 2013 January
जीवेश प्रभाकर
उनकी खोजपूर्ण पुस्तक में हालांकि सभी तथ्यों एवं उद्धहरण को शामिल
किया जा पाना संभव नही हो सकता फिर भी यह एक गंभीर विमर्श की मगर पठनीय पुस्तक है।
प्रथम कृति ''सफाई कामगार समुदाय`` के पश्चात लेखक संजीव खुदशाह
की ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` लम्बे समय के अंतराल के
पश्चात आई है मगर इस पुस्तक के लिए की गई मेहनत के परिणामस्वरूप शोधार्थियों के
साथ ही आम पाठकों के लिए भी यह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है।
राजेश कुमार चौहान
''पिछड़ा वर्ग की सभी जातियॉं चाहे वह कायस्थ हो या तेली या भूमिहार
या खत्री सभी जातियां अपने आपको ब्राम्हण , क्षत्रिय या वैश्य होने का
दावा करती है।..... हालांकि ये दावे उच्च जातियों द्वारा कभी भी स्वीकार नहीं किये
गये। बल्कि ये पिछड़े वर्ग की जातियॉं जिन धर्म ग्रन्थों पर अकाट्य श्रध्दा रखती
है, जिनकी दिन-रात स्तुति करती है वे ही इन्हे उन्ही सवर्णो की नाजायज
सन्तान ठहराते है।``
उपरोक्त उद्धरण संजीव खुदशाह की हालिया प्रकाशित
पुस्तक 'आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग` से है। लगभग इसी आशय का एक
सूक्त वाक्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी कहा है-'भारत में छोटी से छोटी जाति
भी अपने से नीचे की जाति तलाश लेती है।` यहां संजीव खुदशाह और हजारी
प्रसाद द्विवेदी दोनो का एक साथ उल्लेख करने का प्रयोजन यह रेखांकित करना है कि जिस
टिप्पणी के लिए किसी सवर्ण को आला दर्जे का विद्वान दार्शनिक, चिंतक अथवा समाजशास्त्री मान
लिया जाता है, उसी अभिव्यक्ति के लिए किसी भी दलित लेखक पर संकीर्ण-मानसिकता और
जातिवादी होने का आरोप लगाया जाता है। अर्थात् जब हजारी प्रसाद द्विवेदी जातियता
पर लिखते हैं तो वे आला दर्जे के आचार्य मान लिए जाते हैं और यदि संजीव खुदशाह जातियों
के इतिहास को खंगाले तो उन्हे संकीर्ण दायरों से घिरा हुआ, आत्मवृत्त में घिरा हुआ अथवा
जातिवादी कहा जायेगा।
रमेश प्रजापति
समाजशास्त्र की ज्यादातर पुस्तकें अंग्रेजी में ही उपलब्ध होती थी, परन्तु पिछले कुछ वर्षो से
हिन्दी में समाजशास्त्र की पुस्तकों के आने से सामाजिक विज्ञान के छात्रों के लिए
संभावनाओं का एक नया दरवाजा खुला है। साथ ही हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्रों को भारत
की सामाजिक परम्परा से जुड़ने का अवसर भी प्राप्त हुआ है। आज इस श्रृंखला में एक
कड़ी युवा समाजशास्त्री संजीव खुदशाह की पुस्तक ''आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग`` भी जुड़ गई है। यह पुस्तक
लेखक का एक शोधात्मक ग्रंथ है। पुस्तक के अंतर्गत लेखक ने उत्तर वैदिक काल से चली
आ रही जाति प्रथा एवं वर्ण व्यवस्था को आधार बनाकर पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति, विकास-प्रक्रिया और उसकी
वर्तमान दशा-दिशा का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया है।
हंस जुलाइ 2010
विज्ञान भूषण
हाल मे ही प्रकाशित हुई पुस्तक 'आधुनिक भारत में पिछड़ा
वर्ग(पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताएं)` में पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति, समयानुसार उसके स्वरूप में
हुए परिवर्तनों ओर उनकी वर्तमान स्थिति के वर्णन के बहाने भारतीय जाति-व्यवस्था पर
भी अनेक दृष्टिकोणों से प्रकाश डाला गया है। विभिन्न मान्यताओं और धार्मिक ग्रंथो
के उध्दरणों की सहायता से लेखक संजीव खुदशाह ने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है
कि वास्तव में पिछड़ा वर्ग का जन्म भारतीय वर्ण व्यवस्था में कब और किन
परिस्थितियों में हुआ? तत्कालीन समाज में उनकी भुमिका और दशा का प्रामाणिक वर्णन की
स्थितियों पर भी गहन विमर्श प्रस्तुत किया है।
हरिभूमि 3 जनवरी 2010
संतोष सोनी
संजीव खुदशाह ने अपनी सद्य प्रकाशित पुस्तक आधुनिक भारत में पिछड़ा
वर्ग, (पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताऐं) में पिछड़ा वर्ग की उत्पत्ति, स्थिति तथा वर्गीकरण पर मानव
विकास की वैज्ञानिक अवधारणाओं से लेकर मानव सभ्यताओं के विकास क्रम में वर्ण
व्यवस्था एवं इसके इतिहास पर विभिन्न दृष्टिकोण से तथा मान्यताओं व उपलब्ध हिन्दु
मुस्लिम एवं इसाई धर्म ग्रंथों के आधार पर प्रकाश डाला है।