ओबीसी साहित्य की जरूरत
- संजीव खुदशाह
चाहे इसे माने या न माने लेकिन ये बात
तय है कि आज जो बहुजन साहित्य की अवधारणा की बात चली है उसके मूल में दलित साहित्य
का कान्सेप्ट है। दलित साहित्य ने जिस
मज़बूती के साथ साहित्य जगत में अपनी पैठ बनाई है उससे अन्य पीड़ित वर्ग निश्चित
रूप से औचक है। और वह परोक्ष अपरोक्ष रूप से इस साहित्यिक मुहिम का हिस्सा बनना
चाहता है। वह दलित साहित्य में दर्ज पीडा और विद्रोह को अपना समझता है लेकिन वह
कोशिशों के बावजूद इसका हिस्सा नही बन सका। इसके कारणों पर मैं बाद में चर्चा
करूगां। इसके पहले ये चर्चा जरूरी है कि बहुजन साहित्य की अवधारणा की जरूरत क्यो
है?
मैं समझता हूँ बहुजन साहित्य की अवधारणा
के दो महत्वपूर्ण कारण है पहला ओबीसी को दलित साहित्य में स्थान न मिल पाना। दूसरा
सवर्ण (द्विज) साहित्य (वर्तमान में मुख्यधारा का साहित्य) में ओबीसी साहित्य की
अभिव्यक्ति की संभावना शून्य होना। मै ओबीसी साहित्य की उपस्थिति का समर्थक हूँ
लेकिन ये साहित्य दलित साहित्य से किस प्रकार भिन्न होगा फिलहाल इस पर बात करना
जल्दबाजी समझता हूँ। तीसरा कारण है एक ऐसे
साहित्यिक छतरी का के निर्माण की आवश्यकता होना जिसमें सभी गैरब्राम्हणवादी
साहित्य समाहित हो जाये।
प्रमोद रंजन कहते है बहुजन साहित्य की
अवधारणा का जन्म फारवर्ड प्रेस के संपादकीय विभाग से हुआ। यह बात सही है कि हिन्दी
बेल्ट में बहुजन साहित्य की अवधारणा का प्रचार प्रसार और उसका िस्थरीकरण फारवर्ड प्रेस ने ही किया। और आज ये
दलित-बहुजनो की एक
महत्वपूर्ण पत्रिका के रूप में स्थापित हो चुकी है।
क्या दलित साहित्य से ओबीसी बाहर है ?
बहुजन साहित्य की अवधारणा के प्रश्न पर
कुछ लोगो का तर्क है कि दलित साहित्य में ओबीसी को स्थान नही मिलने के कारण बहुजन
साहित्य की अवधारणा की जरूरत पडी। यहां यह बताना जरूरी है कि दलित साहित्य के
निर्माण या प्रकिया में कोई ऐसा नियम नही है। जिसमें ये कहा गया हो की इसमें केवल
अनुसूचित जाति के लोग ही लिखेगे। न ही दलित का मतलब अनुसूचित जाति है। जबकि
ग़ौरतलब है कि दलित साहित्य ज्यादातर ओबीसी सिध्दांतकारो के सिद्धांत पर ही खड़ा
हुआ है। जैसे महात्मा फूले, ई
रामास्वामी पेरियार,
संत कबीर आदि। दलित साहित्य में ओबीसी क्यो दूर है
इस मुआमले मे जय प्रकाश कर्दम के 2012
फारवर्ड प्रेस बहुजन वार्षिकी में छपे लेख को उदधृत करना चाहूगां। जिसमें वे लिखते
है।
“यह दिक्कत ओबीसी साहित्य की नही ओबीसी
साहित्य कारों की है वे सवर्ण और दलित दोनो नावों पर एक साथ सवार होकर चलना चाहते
है, जो संभव नही है। इस बात पर गंभीरता से
विचार किया जाए कि सवर्ण साहित्य का पिछलग्गू बन कर उनको और उनके समाज को क्या मिला
? यदि वे स्वयं को दलित मानकर दलित समाज
और साहित्य के साथ सच्चे मन से जुडे जो कोई वजह नही कि उनको दलित साहित्य में
समुचित स्थान और सम्मान नही मिले। यदि वे पूरी निष्ठा से दलित साहित्य से जुडेगे
तो दलित साहित्यकार के रूप में रहकर और जगह बनाने से उन्हे कोई नही रोक सकता।” फारवर्ड प्रेस सिंतबर 2012 पृष्ठ
क्रमांक 53
यह उल्लेखनीय है कि दलितों ने दलित
साहित्य एवं विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए अपना खून तक बहाया है। ओबीसी के लिए
मण्डल आयोग लागू होने पर आरक्षण का झंडा दलितों ने ही बुलंद रखा। दलितों ने
सवर्णों के हमले को झेला जिनमें बहुसंख्यक ओबीसी थे। आज भी ओबीसी द्वारा दलितों पर
होने वाले जातीय हमले पर दलित अकेला लड़ता है। गोहाना, झज्जर और खैरलांजी इसके उदाहरण है। ओबीसी साहित्यकार मौन रहता है। यहां फर्क हम स्पष्ट देखते है कि
दलित ओबीसी के दर्द को अपना दर्द समझता है लेकिन ओबीसी दलितों के दर्द में मौन हो
जाता है। ऐसी स्थिति में ओबीसी और एस सी का एक साहित्यिक छतरी में आना कठिन दिखता
है। यही कारण है आम
एस सी यानी दलित ओबीसी को एक शोषक के तौर पर देखता है।
बहुजन साहित्य की अवधारणा में यही सबसे
बड़ा रोडा है क्योंकि शोषक कभी पीड़ित नही हो सकता । यदि वह पीड़ित है और वह
प्रतिरोध करना चाहता है तो इसकी सबसे पहली शर्त है वह शोषण बंद करे या उसका विरोध
दर्ज करे।
बहुजन साहित्य के इतिहास पर चर्चा
कुछ लोग बहुजन साहित्य (आशय
ओबीसी साहित्य से है) को 600 ई-र्पू से प्रारंभ मानते है। वे
कौत्य को वह व्यक्ति मानते है जिन्होंने भौतिक बुध्दि वाद से मिलता जुलता दर्शन
प्रारंभ किया। वे तंतुवाय परिवार से संबंधित थे। यह बात अपनी जगह ठीक है। लेकिन
वास्तव में बहुजन विचार धारा या साहित्य की शुरूआत बुद्ध से हुई। क्योंकि बुद्ध ने
ही सर्वप्रथम बहुजन शब्द का प्रयोग किया था। इसलिए बुद्ध के सिद्धांत बहुजन
साहित्य के मूल भूत सिद्धांत में शामिल होने चाहिए।
1.
वेदों को बकवास मानना
2.
ब्राम्हणी कर्म कांड
यज्ञ आदि को नही मानना।
3.
अनीश्वरवादी होना
4.
जातिप्रथा का विरोध
करना।
इस प्रकार बुध्द के सिद्धांत की एक
फ़ेहरिस्त है जो मानववादी विचार धारा को पुष्ट करता है। इस प्रकार जुलाहा जाति में
जन्मे कबीर भी दलित साहित्य के प्रर्वतक
माने जाते है। जबकि कबीर ओबीसी वर्ग से ताल्लुक रखते थे। मैं बहुजन साहित्य के
असल निर्माता महात्मा फूले को मानता हूँ। जिन्होंने बुद्ध कबीर की परंपरा को
पुर्नजीवित किया। गौरतलब है कि बुद्ध कबीर और फूले दलित साहित्य के मजबूत आधार
स्तम्भ है। जबकि तीनों ओबीसी वर्ग से ताल्लुक रखते है। (बुध्द शाक्य जाति के है और शाक्य नागवंशी कृषक अनार्य जाति है, विस्तृत विवरण देखने के लिए आप इन पंक्तियों
के लेखक की किताब “आधुनिक भारत मे पिछड़ा वर्ग-पूर्वाग्रह
मिथक एवं वास्तविकताएं” बुद्ध की जाति पर प्रश्न पृष्ठ क्रमांक
71 का अवलोकन किया जाना
चाहिए।)
वास्तविक ओबीसी कौन है?
ये जानकर बड़ा दुख होता है कि दलित साहित्य से बहुजन साहित्य के अलग अस्तित्व के पैरोकार साहित्यकार ये
नही जानते कि ओबीसी कौन है।
राजेन्द्र प्रसाद सिंह फारवर्ड प्रेस मार्च 2012 अंक में प्रकाशित लेख में ओबीसी
विमर्श (बहुजन साहित्य) पर चर्चा के दौरान
भारतेन्दु हरीशचंद्र,
मैथिली शरण गुप्त तथा
गांधी को ओबीसी बता कर फूले नही समाते है।
वे लिखते है “परंतु हिन्दी के द्विजवादी आलोचको ने भारतेन्दु मैथिली शरण
गुप्त, जय शंकर प्रसाद और रेणु जैसे ओबीसी रचना
कारों के मुल्यांकन में ऐसा धुंध फैला रखा है कि वे चीजे हमें दिखाई नही पड़ती है।” पृष्ठ 41 मार्च 2012 फारवर्ड प्रेस
एक जगह वे गांधी को ओबीसी बताते है
“महात्मा गांधी बाबा साहेब अंबेडकर और
राममनोहर लोहिया में दो गांधी और लोहिया ओबीसी बहुजन में आते है। जबकि अंबेडकर
दलित है। गांधी को बहुजन होने पर गर्व है। इसलिए उन्होने अपनी आत्मकथा के आरंभ में
लिखा है मै जाति का बनिया हूँ।”
पृष्ठ 42 मार्च 2012 फारवर्ड प्रेस
सभी जानते है कि किस प्रकार भारतेन्दु
हरिशचंन्द्र मैथिली शरण गुप्त आदि ने द्विज साहित्य को पुष्ट किया। यह तथ्य भी
सर्वविदीत है कि गांधी ने किस प्रकार साइमन कमीशन के मुआमले में अछुतो के अधिकार
के विरूद्ध अनशन किया था। और अछूतों की हार के रूप में पूना पैक्ट का जन्म हुआ।
गांधी वास्तव में द्विज वोट के समर्थक थे उनका मानना था कि इन्हे(आशय अजा अजजा और
पिछड़ा वर्ग से है) वोट का अधिकार देने से वोट खराब होगा। उनका कहना था ये हिन्दुओ का आंतरिक धार्मिक मामला
है इसे आपस में मिल बैठ कर निपटायेगे।
इसके बावजूद राजेन्द्र प्रसाद सिंह यह
लिखते है
“शारीरिक श्रम की श्रेष्ठता आजीवको ने
स्वीकारी थी। बुद्ध भी शारीरिक श्रम के पक्ष में है। कबीर और गांधी भी शारीरिक
श्रम की श्रेष्ठता को स्वीकारते है। कहने का मतलब यह है कि ओबीसी का कोई भी
दार्शनिक विचारक अथवा चिंतक ऐसा नही है जिन्होंने श्रम के महत्व को नकारा हो।” पृष्ठ 42 मार्च 2012 फारवर्ड प्रेस
यहां पर वे गांधी को ओबीसी का दार्शनिक
बताते है। बहुजनों को इस प्रकार गुमराह होने से बचना जरूरी है। क्योंकि दलित बहुजन
के दार्शनिक वही हो सकते है जो मन वचन और कर्म से दलित बहुजन के हितैषी हो भले ही वो इस
समुदाय का न हो।
प्रगतीशीलता का छद्म
यदि हिन्दी साहित्य को गौर से देखे तो
पाते है ये साहित्य दो भागो में बांटा जा सकता है। एक ब्राम्हणवादी(द्विज) साहित्य
जिसे हम आज मुख्य धारा का साहित्य कहते है इसमें भक्ति साहित्य भी शामिल है। दूसरा
गैर ब्राम्हणवादी साहित्य जिसमें दलित साहित्य, निगुर्ण धारा का साहित्य, बहुजन साहित्य शामिल है।
ब्राम्हणवादी साहित्य यथा स्थितीवादी
होकर प्रगतीशीलता का ढोग करता है। ब्राम्हणवादी लेखक (जो अज अजजा आबीसी भी हो सकता
है) अपने साहित्य में सामाजिक रूढ़ियों पर चोट नही करता बल्कि उन रूढियों पर से
आंखे मूंद लेता है। ब्राम्हणवादी साहित्यकार चापलूस होता है वह ऐसी कोई बात नही
लिखता जिससे द्विज व्यवस्था नाराज
हो। उसे ऐसा लगता है कि इन्हे नाराज करने से वह बहिस्कृत कर दिया जायेगा।
बहुजन अवधारणा का नायक
बहुजन साहित्य आज अपनी शैशव अवस्था में
है लेकिन इसके नायक को लेकर आज भी संशय है। जिस प्रकार दलित साहित्य का नायक डा
अंबेडकर है उसी प्रकार एक पथप्रदर्शक नायक बहुजन साहित्य में होने की आवश्यकता मै
समझता हूँ। कही कही देखा गया है कि पौराणिक मिथकों को नायक के रूप में स्थापित
करने की कोशिश की
गई है जैसे बलीराजा,
महिषासुर, रावण आदि।
फारवर्ड प्रेस के प्रमुख संपादक श्री आईवन कोस्का साक्षात्कार के
दौरान यह स्वीकार करते है
कि इस प्रकार पौराणिक नायकों को बहुजन नायक के रूप में प्रतिस्थापित करना एक आत्मधाती
कदम होगा। लेकिन लोगो का ध्यान आकर्षित करने तथा धार्मिक विरोध दर्ज करने तक यह
बात ठीक है।
पौराणिक नायको को महत्व देने का मतलब है
वेद पुराणो को जाने अनजाने महत्वपूर्ण बना देना। जब आप इन्हे महत्व देते है तो इस वैदिक जाल से
निकलने का
प्रश्न नही उठता। इतिहास गवाह है लालबेगी (सफाई कामगार) जाति ने 1920 के आस-पास
वाल्मीकि को अपना गुरू बना लिया। आज वे अपने आपको चाह कर भी ब्राम्हणवाद की
गिरफ़्त से आज़ाद नही कर पा रहे है। इसी काल में डोमार, हेला, एवं मखियार जाति (अन्य दलित जातियां) सुदर्शन को अपना नायक बनाया, उनका भी यही हश्र हुआ।
बहुजन साहित्य को इन पौराणिक नायकों की
कतई जरूरत नही क्योंकि बुद्ध से लेकर कबीर, फूले, चंदापूरे, ललईसिंह, कर्पूरी ठाकुर, पेरियार
समेत कई दार्शनिक नायक है। जिन्हे बहुजन अपना नायक चुन सकते है। महात्मा ज्योतिबा
फूले को बहुजन साहित्य के एक बहुत बडे हिस्से से नायक के रूप मे स्वीकृति मिल चुकी
है। आईवन कोस्का बताते है की फूले
और अम्बेडकर दोनो यूरोपियन विचारधारा से प्रभावित थे। उनके जीवन में इसाई
विचारधारा और देश में कार्यरत मिशनरी के क्रियाकलापों का गहरा प्रभाव पडा।
बहुजन साहित्य की अवधारणा के नामाकरण को
लेकर चर्चाये चल रही है। एक ऐसे नाम की आवश्यकता है जिसमें दलित साहित्य, ओबीसी
साहित्य, आदिवासी एवं स्त्री साहित्य समाहित हो सके। स्पष्ट है कि बहुजन का सीधा अर्थ है बहुसंख्यक
आबादी। इसका यह अर्थ कतई नही है जिससे यह मतलब निकाला जाय की बहुजन शोषित पीड़ित आबादी का नाम है। न
ही ये शब्द किसी आंदोलन या संघर्ष का संकेत देता है। बल्कि आम भारतीय बहुजन साहित्य को राजनीतिक पार्टी बहुजन
समाज पार्टी से जोड कर देखता है।
इसलिए ऐसे साहित्यिक शब्दावली की संभावनाओं पर विचार किया जाना चाहिए जो सभी
साहित्यिक वर्गो को एक में समाहित कर सके। जैसे दलित बहुजन साहित्य, अम्बेडकरवादी साहित्य या फूलेवादी
साहित्य इत्यादि। यहां मुझे ‘दलित-बहुजन साहित्य’ शब्दावली
इस अवधारणा के लिए उपयुक्त प्रतीत होता है। दलित बहुजन यानी शोषित बहुसंख्यक वर्ग
जिसमें स्त्री पुरूष अल्पसंख्यक अजा अजजा ओबीसी सभी शामिल है। और यह शब्दावली एक बडे समूह
द्वारा प्रयोग किया जा रहा है।
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