सुदर्शन समाज की
परिकल्पना का ऐतिहासिक परिदृश्य
सुदर्शन समाज का
इतिहास
संजीव खुदशाह
मूलत: बघेलखण्ड और बुंदेलखण्ड (आज
मप्र और उप्र के कुछ हिस्से) में निवास करने वाली डोमार जाति जो भंगी व्यवसाय में जुडी
हुई है। ने अचानक 1941 के आस पास अपने आपको सुदर्शन नाम के पौराणिक ऋषि से जोड लिया।
वे अपनी जाति की पहचान सुदर्शन समाज के रूप में बताने लगे। वे ऐसा क्यो करने लगे ? क्या कारण थे ? इसका जवाब बताने से पहले अन्य भंगी
व्यवसाय से जुड़ी वाल्मीकि समाज के बारे में जानना जरूरी है।
1920 से 1930 ईस्वी के आस पास की
बात है जब डाँ अंबेडकर दलितों के उद्धारक के रूप में उभरते जा रहे थे। वे दलितों को
उत्पीङन से बचने के लिए गांव से शहर में आकर बसने की सलाह दे रहे थे साथ ही अपने पुश्तैनी
व्यवसाय को छोड़ने की अपील कर रहे थे। इस समय देश के लाखों दलित अपने घृणित व्यवसाय
को छोड़कर शहर में अन्य व्यवसाय की तलाश कर रहे थे। इसी दौरान पंजाब की चूहङा जाति(पखाना
सफाई में लिप्त थी) के लोग जो बालाशाह और लालबेग को अपना धर्म गुरू मानते थे। इनमें बडी मात्रा में ईसाई धर्म की ओर झुकाव हाेने
लगा और जो लोग ईसाई धर्म को ग्रहण कर लेते वे गंदे काम को करना बंद कर देते। इसी समय
पंजाब के लाहौर और जालंधर इत्यादि बडे. शहरों में आर्य समाज और कांग्रेसियों का प्रभाव
था उन्होने गौर किया कि यदि ऐसा ही धर्म परिवर्तन चलता रहा तो पखाने साफ करने वाला
कोई भी नही रहेगा। इन्हे हिन्दू बना ये रखने के लिए हिन्दुओं ने प्रचार शुरू किया कि
तुम हिन्दू हो। बाला शाह बबरीक आदि को वाल्मीकि बनाया गया। उन्हे गोमांस न खाने को
राजी किया गया। ऐडवोकेट भगवान दास अपनी किताब बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर और भंगी जातियां
में लिखते है “बाला शाह बबरीक आदि को वाल्मीकि बनाया गया। उन्हे गोमांस
न खाने को राजी किया गया। अपने खर्चे लाल बेग के बौद्ध स्तूपों की तरह ढाई ईट से बने
थानों की जगह मंदिर बनाये जाने लगे। कुर्सीनामों की जगह रामायण का पाठ और होशियारपुर
के एक ब्राह्मण द्वारा लिखी आरती ‘ओम जय जगदीश हरे’ गाई जाने लगी। हिन्दुकरण को मजबूती देने के लिए पंजाब के एक ब्राह्मण श्री अमीचन्द्र
शर्मा ने एक पुस्तक ‘वाल्मीकि प्रकाश’ के नाम से छपवाई जिसमें इस बात पर जोर दिया गया कि भंगी चुहडा वाल्मीकि का वंशज
नही, अनुयायी है। उधर गांधी जी ने भी इस नये नाम की सराहना की और
अपना आशीर्वाद दिया।”
ग़ौरतलब है कि सन् 1931 में जाति
नाम वाल्मीकि को सरकारी स्वीकृति मिल गयी। पंजाब हरियाणा के बाहर अन्य भंगी जातियां
इससे प्रभावित नही हुई। किंतु इन जातियों के लोग भी इसाई और मुस्लिम धर्म की ओर बढ
रहे थे एवं तरक्की कर रहे थे। जो व्यक्ति इसाई या मुस्लिम धर्म में चला जाता वह गंदे
पेशे को छोङ देता। हिन्दु वादियों ने इन्हे भी एक-एक संत थोप दिया, और उस संत को उनका कुल गुरू बताया गया।, उनके बीच धार्मिक किताबे
मुफ्त में बांटी गई, उन्हे कहा गया की तुम्हारे कुल के
देवी देवता मरही माई, देसाई दाई, ज्वाला माई, कालका माई कोई और नही दुर्गा के ही अन्य नाम है, इस तरह इन गैर हिन्दु जातियों को हिन्दु धर्म में बिना दीक्षा के मिला दिया गया।
कुछ जातियां स्वयं धार्मिक किताबों में अपने संतो की खोज करने लगे। इसके तीन कारण थे।
1. लालबेगियों के द्वारा वाल्मीकि जयंती मनाने और
सभा करने की प्रक्रिया को संगठित होना समझते थे। इस प्रकार वे भी संगठित होना चाहते
थे।
2. सरकार के द्वारा किसी प्रकार के फायदे मिलने की
लालसा थी।
3. गंदे जाति नाम से छुटकारा पाने की मजबूरी थी।
अब प्रश्न ये उठता है कि लालबेगियों
की तरह उनकी भी जरूरते समान थी इसके बावजूद वे वाल्मीकि नाम से क्यो नही जुङे। इसके
भी तीन कारण है।
1. वे अपने आपको लालबेगियों से अलग मानते
थे।
2. वाल्मीकि नाम से जुडकर वे अपने जाति
अस्तित्व को समाप्त नही करना चाहते थे।
3. वाल्मीकि में लालबेगियों के एकाधिकार
के कारण वे अपने हितों को लेकर असुरक्षित थे।
इस प्रकार बांकी भंगी जातियां
अपने अपने गुरूओं की तलाश करने लगी। इस कार्य में हिन्दुवादियों ने अपना सहयोग दिया। धानुक
जाति ने अपने आपकों धानुक ऋषि से, डोम ने देवक ऋषि से, मातंग ने मातंग ऋषि से और डोमरों ने सुदर्शन ऋषि से अपने आपको जोडा। चूकि चर्चा
का विषय सुदर्शन समाज पर है इसलिए मै इस पर विस्तार से चर्चा करूगां।
सुदर्शन समाज की शुरूआत 1941 के बाद हुई ऐसी जानकारी
मिलती है। स्व रामसिंग खरे जो डोमार जाति के थे, ने सर्वप्रथम सुदर्शन सेवा
समाज की स्थापना पंश्चिम बंगाल के खडगपुर में की। स्व रामसिंग खरे के सहयोगी थे स्व
भीमसेन मंझारे, स्व लालुदयाल कन्हैया, स्व रामलाल शुक्ला, स्व पन्ना लाल व्यास। यहां सुदर्शन सेवा समाज की ओर से एक स्कूल भी चलाया जा रहा
था। बाद में मध्यप्रदेश के बिलासपुर (अब छत्तीसगढ.) में करबला नामक स्थान में एक सुदर्शन
आश्रम की स्थापना उन्होने ने की। आज यहां पर एक बडा सुदर्शन समाज भवन नगर निगम की मदद
से बनवाया गया है। इस बीच सुदर्शन समाज का सम्मेलन कानपुर,
खडगपुर, नागपुर, जबलपुर एवं बिलासपुर में आयोजित किया गया। रामसिंग खरे
मूलत: हमीरपुर बांदा के रहने वाले थे। वे खडगपुर में निवास करते थे लेकिन पूरे जीवन
भर सुदर्शन ऋषि के नाम पर समाज को जोङने के लिए पूरे देश में दौरा किया करते थे। इसके
पहले डोमार जाति सुदर्शन या सुपच ऋषि से परिचित नही थी।
ऐसी जानकारी मिलती है कि की स्व रामसिंग
खरे बंगाल नागपुर रेल्वे में सफाई कर्मचारी के पद पर कार्यरत थे, बाद में वे हेल्थ इंस्पैक्टर होकर सेवानिवृत्त हुये। उन्होने रेल सफाई कमर्चारियों
की समस्याओं को लेकर कई कार्य किये। रेल सफाई कर्मचारियों के पद्दोन्ती का श्रेय उन्ही
के प्रयास को जाता है। स्व पन्नालाल के पुत्र राजकिशोर व्यास बताते है कि 1940 से पहले वे अपने सहयोगियों के साथ दिल्ली में
गांधीजी से मिले थे। गांधी ने उनके सुदर्शन ऋषि के कान्सेप्ट को आर्शिवाद दिया था ऐसा
अंदाजा लगाया जाता है। लेकिन सर्वप्रथम सुदर्शन ऋषि या सुपच ऋषि के बारे में उन्हे
कोन बताया ये कह पाना कठीन है।
स्वपच क्या है? स्वपच का तत्सम श्वपच है। जिसका अर्थ कुत्ते का मांस
खाने वाले लोग।
श्वान+पच= कुत्ते का मांस खाने वाले[1]
किन्ही अन्य संदर्भ में चांडाल को
भी श्वपच कहा जाता है। यानि जिस किसी ने भी स्व रामसिंग खरे को सुपच या सुदर्शन ऋषि
का कान्सेप्ट दिया था वो बडा ही घूर्त आदमी रहा होगा। क्योकि स्व रामसिंग खरे और उनके
साथी ज्यादा पढे लिखे नही थे। यदि उन्हे ये जानकारी होती की सुपच का अर्थ कुत्ते का
मांस खाने वाला है तो वे किसी भी हाल में सुदर्शन ऋषि को नही अपनाते।
सुदर्शन ऋषि की उत्पत्ति- यहां यह बताना जरूरी है
सुदर्शन ऋषि के परोकार महाभारत के एक प्रसंग से सुदर्शन ऋषि को जोडते है। जिसकी कथा
कबीर मंसूर में मिलती है की महाभारत युध्द के बाद युधिष्ठीर को अत्यन्त पश्चाताप हुआ
कि उन्होने अपने ही रिश्तेदारो की हत्या कर यह राजपाट पया है जिसके कारण उन्हे नरक
भोगना पडेगा। श्री कृष्ण ने उन्हे इस संकट से मुक्ति के लिए यज्ञ करने की सलाह दी, जिसमें सभी साधु-संतों को भोजन कराए जाने का निर्देश दिया और कहा कि जब आकाश में
घंटा सात बार बजेगा तभी यज्ञ पूरा हुआ माना जाएगा अन्यथा नही। इस प्रकार सभी सन्तों
को बुलाकर भोजन कराया गया, किन्तु कोई घंटा नही बजा। तत्पश्चात्
श्रीकृष्ण के कहने पर सुदर्शन ऋषि को बङी मिन्नत करके बुलाया गया एवं भोजन कराया गया।
इसके बाद आकाशीय घंटा बजता है।[2] इसी प्रकार का विवरण सुख सागर नामक ग्रन्थ में भी
मिलता है। गौरतलब है इस कथा में सुदर्शन को नीच जाति का बतलाया गया।
क्या महाभारत में सुदर्शन
ऋषि का विवरण मिलता है? यह एक आश्चर्य है की जिस
क्था को कबीर मंसूर या सुखसागर मे महाभारत से जोडकर बताया गया है वह मूल महाभारत मे
है ही नही । इस कारण सुदर्शन का महाभारत से कोई संबंध साबित नही होता है।
इतिहास में क्या कहीं सुदर्शन
ऋषि का विवरण मिलता है? नागपुर विश्वविद्यालय के पाली भाषा
के अध्यक्ष डॉ विमल किर्ती बताते है कि बौद्ध काल में सुदर्शन नाम के एक बौद्ध भिक्षु
का जिक्र मिलता है। वे आगे कहते है चूकि सारे दलित पूर्व में बौध्द ही थे इसलिए ऐसा
हो सकता है सुदर्शन ऋषि कोई और नही वही बौद्ध भिक्षु ही रहे होगे।
कौन-कौन सी जातियां सुदर्शन
समाज से जुडी है? डोमार के वे लोग जो सुदर्शन
के समर्थक है, ये दावा करते है कि डोम-डुमार, हेला, मखिया, धनकर, बसोर, धानुक, नगाडची आदि सभी सुदर्शन को मानते है। लेकिन ये एक झूठ
है, सच्चाई ये है कि केवल डोमार(डुमार) या अन्य जाति के वे परिवार
जिन्होने इनसे वैवाहिक संबंध बनाये है सुदर्शन को मानते है। यहां ये भी बताना जरूरी
है की ऐसे लोग जो पढ लिख गये और सुदर्शन की सच्चाई से वाकिफ हो गये वे सुदर्शन को मानना
बंद कर दिये। क्योंकि सुदर्शन आज डुमार समाज की गुलामी का प्रतीक है। यह एक ऐसा थोपा
हुआ कलंक है जिसने इस जाति को हिन्दू धर्म का गुलाम बनाकर दलित आंदोलन से दूर कर दिया।
इस कलंक को जितना जल्दी हो मिटा दिया जाय उतना अच्छा है।
सुदर्शन ऋषि से जुडने के
कारण होने वाली हानि
० अम्बेडकर के दलित आंदोलन से दूरी-
पूरे देश में दलित आंदोलन चला जो ब्राम्हणवाद के विरोध में खडा हुआ। जिसमें जाटव, चमार, महार, रविदास आदि जाति शामिल हुई और तरक्की
कर गई। जो दलित जातियां गुरू, ऋषि के चक्कर में रही वे पिछडती
गई। सांमंतवादी, ब्राम्हणवादी ताक़तें ये चाहती है की वे अंबेडकर से दूर
रहे और गंदे पेशे को ना छोड़े ताकि उनके सुख में कोई खलल न हो।
० अपने गौरवशाली इतिहास को भूला दिया
गया – अम्बेडकरवाद जहां एक ओर अपने इतिहास को जानने के लिए प्रेरित
करता है। आपने उदृधारक और शोषण कर्ता के बीच फर्क करना सिखाता है। वहीं सुदर्शन जैसे
गुरूओं के साथ आने के कारण ये इतिहास ब्राम्हणवादी आडंबरो अंधविश्वासों में खो गया।
अपने गौरवशाली इतिहास को अपने हाथों मिटा दिया।
० अपनी अवैदिक संस्कृति को मिटा जा
रहा है- दलितों की महिला प्रधान, गैरब्राम्हणी, अवैदिक संस्कृति को मिटाया गया। डोमार समाज में कभी किसी अवसर या संस्कार में ब्राह्मण
को नही बुलाया जाता था। क्योकि इनकी अपनी अवैदिक संस्कृति थी। इनकी अपनी पूजा की शैली, भजन गायन पध्दती थी, छिटकी बुदकी थी जिसे सुदर्शन के नाम
पर हिन्दुकरण होने के कारण आज पूरी तरह मिटा दिया गया।
० केवल हिन्दू जज मान बनकर रह गये-
आज डोमार लोग केवल हिन्दू समाज के जज मान बन कर रह गये। वे अनुसूचित जाति में आते है
और डाँ अंबेडकर के प्रयास से दलित होने का लाभ जैसे – आरक्षण, छात्रवृत्ति, नौकरी, व्यवसाय, ऐट्रोसिटी, सबसीडी का फायदा तो जमकर उठाते है। लेकिन जब चढ़ावा देने
की बारी आती है तो वे वैष्णो देवी या किसी गुरू के द्वार जाते है। डाँ अम्बेडकर को
मानने में आज भी संकोच करते है।
० पुश्तैनी भंगी व्यवसाय से छुटकारा
नही मिल पाया-भारत की लगभग दलित जातियां जो अंबेडकर आंदोलन से जुड़ीं उन्होने संघर्ष
करके अपना पुश्तैनी गंदे पेशे से छुटकारा पा लिया। लेकिन जो जातियां हिन्दू धर्म की
गुरू या ऋषि की ओर गई वे गंदे पेशे में सुधार तो चाहती है लेकिन छोड़ना नही चाहती।
डोमार जाति के नेता सफाई में सुविधा, पैसा की मांग तो करते है
लेकिन पेशे को छोड़ने की मांग नही करते ।
० गुमराह करने वाले समाजिक नेता कुकुरमुत्ते
की तरह पैदा हो गये- चूकि अम्बेडकरी आंदोलन सच्चे और झूठ में फर्क करना सिखाता है इसलिए
आप अपने मार्ग दर्शक खुद बन जाते है। और आपको किसी नेता की जरूरत नही पडती। लेकिन सुदर्शन
समाज में ऐसे नेताओं की कमी नही है जो आपको सुदर्शन के नाम पर गुमराह करने में कोई
कसर नही रखेगे। वे चाहेंगे आप अपने गंदे पेशे को करते रहे और सुदर्शन का भजन गाते रहे
ताकि उनकी राजनीतिक रोटियाँ सिकती रहे।
डाँ अंबेडकर की ओर एक कदम- पहले इस समाज के लोग सुदर्शन
के साथ अंबेडकर का फोटो लगाते थे। लेकिन अब वे सुदर्शन के फोटो को हटा रहे हे। दलित
मुव्हमेन्ट ऐसोसियेशन रायपुर, अंबेडकर विकास समिति जबलपुर, समाजिक विकास केन्द्र नागपुर इसके ज्वलंत उदाहरण है। डुमार समाज के सबसे बडे मार्ग
दर्शक थे नागपुर के स्व राम रतन जानोरकर जो आरपीआई से नागपूर के महापौर बने थे। वे
डाँ अम्बेडकर से बहुत करीब से जुडे थे। उन्हे महाराष्ट्र सरकार की ओर से दलित मित्र
की उपाधि से नवाजा था। वे डाँ अंबेडकर के बौद्ध दीक्षा कार्यक्रम के संयोजक थे और उन्होने
उनसे बौद्ध धम्म की दीक्षा ली थी। डोमार समाज सहीत अन्य दलित समुदाय भी उनके मार्ग
पर चलने को तत्पर है। स्व राम रतन जानोरकर इस समाज के सच्चे मार्ग दर्शक है। इस प्रकार
और भी लेखक चिंतक समाजिक कार्यकर्ता है जो अंबेडकर आंदोलन से इन्हे जोड़ने की कोशिश
कर रहे है।
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