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गुरुवार, 11 जून 2009

भंगियों का जीवन आज भी त्रासदीयों से भरा है।

भंगियों का जीवन आज भी त्रासदीयों से भरा है।
  • संजीव खुदशाह
सत्य कड़वा होता है, यह एक अनुभव का विषय है। यह कितना कड़वा होता है इसका अन्दाजा तभी लगाया जा सकता है, जब इससे सामना होता है। आज हम चाहें जितना भी कहे कि हम विश्व की महाशक्ति बनने जा रहे हैं या हम विश्व शान्ति के प्रतीक हंै। किन्तु सफाई कामगारों के प्रति हमारी मानसिकता समस्त दावांे को खोखला साबित कर रही है। आज भी लगभग ५० विभिन्न जातियों का समूह, भंगी समुदाय के लोग १९३१ वाली सामाजिक स्थिति में जीवन जीने के लिए बाध्य हैं। सरकारी आंकड़े चाहे जो दावे प्रस्तुत करते रहे हांे किन्तु सामाजिक बदलाव अभी भी कोसों दूर है जबकि इन्हंे सामाजिक समता दिलवाने के उद्देश्य से ही आरक्षण तथा अन्य कानूनी सुविधाए मुहैया कराई गई थीं। लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि ये सारी कार्यवाहियाँ कथनों तक ही सीमित रहीं। इसका प्रमुख कारण इन सुविधाओं को उपलब्ध कराने वाले तंत्र की खानापूर्ति एवं उपेक्षा पूर्ण रवैया रहा। यह तंत्र अपने आपको सिर्फ इसी काम के लिए व्यस्त रखता की किस प्रकार इन सुविधाओं को पहुचाने तथा उन्हे मुहैया कराने से वंचित करने के लिए कानूनी दंाव पेच अथवा टालमटोल किया जा सके। हालांकि सरकार की मंशा इन्हे घ्पर उठाने की रही। इसका सबसे बड़ा सबूत है भंगियों की भारत में आज भी नारकीय जीवन जीने की बाध्यता। आज भी सिर पर मैला ढोते मानव को देखा जा सकता है। संदर्भ देखे (आंध्रप्रदेश की रिपोर्ट बुक) । आज भी परिस्थितियॉं बनाई जाती है कि वे इसी अमानवीय कार्य को करते रहे। गोहना, झज्जर, तथा चकवाड़ा काण्ड इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। ऐसा कौन मानव होगा जो स्वेच्छा से दूसरे मानव का मल-मूत्र साफ करने का कार्य करना चाहेगा या पुश्तैनी सफाई कार्य करना चाहेगा। कई बार वरिष्ठ समाज सेवियों व्दारा यह कहते सुना जा सकता है कि ये लोग अपने पतन के लिए खुद जिम्मेदार हैं क्योंकि इन्हे दूसरा काम पसंद ही नहीं आता। जबकि सत्य यह है कि ऐसे कई प्रयास सरकारी तथा गैर सरकारी तौर पर किये गये हंै कि यदि भंगी, भंगी (सफाई) का कार्य छोड़ें तो उसे दंण्डित किया जाये उदाहरण देखें (संदर्भ-) ''१९१६ के संयुघ् प्रान्त नगरपालिका अधिनियम-११ की धारा २०१ में यह व्यवस्था थी कि यदि कोई जमादार (मेहतर), जिसका किसी घर या भवन में घरेलू सफाई का प्रथागत अधिकार है, सफाई का काम करने से मना करता है, तो मजिस्टघ्ेट को अधिकार है कि वह ऐसे जमादार पर दस रूपये तक का जुर्माना कर सकता है। ऐसा ही कानून १९११ के पंजाब नगर पालिका की धारा १६५ में था कि सफाई का काम बंद करने वाले जमादार पर दस रूपये का जुर्माना और जब्ती का आदेश भी दिया जा सकता है। और धारा १६५ के तहत उसकी अगली बड़ी अदालत में अपील नहीं की जा सकती।`` आप खुद ही अंदाजा लगा सकते है कि उस वघ् दस रूपये की की्रमत क्या होगी जब इन कामगारों की महीने भर कि कमाई दस रूपये से भी कम थी। ऐसे में कोई भंगी भला कैसे अपने समाजिक एवं आर्थिक पिछड़े पन से उबर पाता।
इस बारे में गांधी जी ने भी कहा है कि ''आप अपना काम इमानदारी से करें तभी तुम्हारा अगला जन्म उच्च कुल में होगा।`` दूसरी ओर डॉ. अम्बेडकर जी ने कहा-कि ''उच्च कुल का आदमी मरते मर जायेगा किन्तु ऐसा गंदा काम वो हरगिज़ नहीं करेगा। तो तुम्हारे पास क्या मजबूरी है? सबसे पहले इस गंदे पेशे से छुटकारा पाओ तभी तुम्हारा भविष्य उज्जवल होगा।`` गांधी जी का उघ् ब्यान हिन्दू धर्म के पुनर्जन्म का एक ऐसा पासंग है कि आज इस पासंग से शीघ्र मुघ् होने की आवश्यकता है। क्यांेकि यह एक ऐसा झुनझुना है जिसके द्वारा जनता को बहलाकर हम अपने सामाजिक दायित्व बोध से मुघ् होना चाहते है तथा निर्दोष होने का चोला पहनना चाहते हैं। संदर्भ देखें । आज हम चांद पर पहॅंुच चुके है पर न जाने कब हम अपनी रूढ़ियों से निजात पायेंगे। हम अपनी रूढ़ियों के प्रति इतने जड़ हो जाते हैं कि हम इसे दूर करने के बजाय इसे संस्कृति का एक हिस्सा बताने लगते हैं तथा संस्कृति बचाओ की दुहाई देकर इन रूढ़ियों को और पुष्ट करने का ही प्रयास करते हंै। आश्चर्य तब और ज्यादा होता है जब इस समुदाय के लोग, जिन्होने दलित आंदोलनो का लाभ पाकर घ्ॅंचे मुकाम हासिल किये हैं वे भी इन्ही सवर्णों के पद चिन्हों में चलते हुऐ इन्ही रूढ़ियों (कथित संस्कृति) का समर्थन कर अपनी जड़े स्वयं कमजोर करते देखे जाते है।
दैनिक अखबारों में आये दिन दलित प्रताड़ना की खबरंे आती रहती हैं। आज भी सवर्णों द्वारा एक अछूत स्त्री को निरवस्त्र घुमाना कोई अपराध नहीं समझा जाता। एक दलित महिला को केवल इसलिए नंगी करके गांव में घुमाया फिर जला दिया गया, क्योंकि वह दलित जाति की होने के बावजूद सरपंच चुनाव में पर्चा भरने की जुर्रत की थी। एक दलित जाति के आदमी को सरे आम सिर्फ इसलिए पीटा गया क्योकि उसने एक ठाकुर से खाट में बैठे-बैठे बात की थी। सवर्णों द्वारा दलित प्रताड़ना कि ताजी फेहरिस्त इतनी लम्बी है कि यदि इस पर लिखा जाय तो एक अलग ग्रंथ तैयार हो जाये। हम अपने ही जैसे मानव को एक पालतु जानवर तक का दर्जा देने को तैयार नहीं है और वहीं दूसरी ओर विदेशी मामलों में ''अतिथि देवोभव:`` का उद्घोष कर रहे हैं। यह बड़ा ही हास्यास्पद तथ्य है की हम अपने ही देश के लोगों को मनुष्य का दर्जा नहीं दे पा रहे है वहीं दूसरी ओर विदेशियों को भगवान का दर्जा देने की मुहिम जारी हैै। यह सच नकार नहीं जा सकता है।
ठेकेदारी करण - हांलाकि इस मामले में सेफ्टी-टैंक पैखाना की शुरूआत तथा खाटाउ (कन्टघी) पैखाने का बंद होना अपने आप में एक अच्छा संकेत रहा है। साथ ही सरकारी सफाई कार्यों का ठेकेदारीकरण एक प्रकार से शोषण ही है। क्योंकि ठेकेदारी या सरकारी दोनों मामलों में सफाई कामगार तो भंगी जाति के ही होते हैं। जबकि उन्हें सरकारी नौकरी में आजीवन सुरक्षा तथा अच्छा वेतन अन्य शासकीय सेवा की सुविधाएं प्राप्त हो जाती थी। किन्तु ठेकेदारी करण होने के कारण सारी मलाई ठेकेदार उड़ा लेता और भंगी जो ठेकादार की नौकरी करता है, वह पक्की नौकरी, वेतन तथा अन्य सुविधाओं से वंचित रह जाता है। जो सुविधांए वह स्थिर सरकारी नौकरी से उठा रहा था, अब ठेकेदारीकरण होने के कारण उल्टे आर्थिक तंगी एवं पतन की ओर तेजी से बढ़ रहा है। सफाई कार्य के ठेकेदारीकरण में भंगियों का हित कभी नहीं देखा गया केवल घ्ंचे मूल्य में ठेका देने तक की जिम्मेदारी उठाई जाती है किन्तु इससे एक सफाई कामगार का क्या शोषण हो रहा है इस ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। ऐसा ही एक तथ्य अखिल भारतीय सफाई मजदूर कांग्रेस (टेघ्ड युनियन) की राष्टघीय कार्यकारिणी की बैठक के सामाचार (संदर्भ देखें) में सामने आया जिसमें कहा गया कि सफाई कामगार आयोग में जिन सदस्यों को मनोनित किया गया है वे सफाई कामगार समाज से संबंधित नहीं है न ही इस जाति के हंै। इस प्रकार अंजादा लगाया जा सकता है कि वे इनके हित एवं अहित के बारे क्या निर्णय लेते होगें ?
वर्तमान में कई सफल एवं प्रतिष्ठित पदों पर इस समुदाय (इनकी संख्या समाजिक औसत के हिसाब से बहुत ही कम है।) के लोग राष्टघ् को अपनी सेवाएं दे रहे है जैसे सांसद, मंत्री, राज्यपाल, विधायक, महापौर, सभापति, आय.ए.एस अधिकारी आदि। इतने घ्पर पहुचने के बावजूद इनमें अपनी जातिगत पहचान से बचने की कसक अवश्य दिखाई पड़ती है इसके दो प्रमुख कारण हैं। पहला - शिखर पर पहॅुचने के बावजूद इनमें समाज का सामना करने तथा समाजिक व्यवस्था को झकझोर देने वाली आत्मविश्वास की कमी है। दूसरा- यह है कि गैर सफाई कामगार समुदाय की इनके प्रति अस्वस्थ मानसिकता है। जो इन्हें जातिगत हीन भावना तथा गुलामी के बोध से उबरने नहीं देती। एक राज्यपाल जो भंगी जाति के थे, मैंने खुद उनके बारे में लोगों को जाति नाम का आक्षेप लागते देखा। इससे अन्य उच्च पदों के व्यक्तियों के प्रति सवर्णों (गैर दलित) के दृष्टिकोण का अंदाजा लगाया जा सकता है।
यह कहा जा सकता है कि सफाई कामगार में यह चेतना आनी आवश्यक है कि वे इस काम से निजात (छुटकारा) लेकर समान नागरिकता-बोध खुद में पैदा करें। क्योंकि कार्य (पेशा) से समाजिक प्रतिष्ठा प्रभावित होती है। इतिहास गवाह है जिन्होने भी इस गंदे पेशे केा छोड़ा है, उनका जीवन-स्तर उठा है, इसके लिए समाजिक बुराई जैसे अशिक्षा, शराब बंदी भी आवश्यक है। इस दिशा में सरकारी स्वीपर पदों पर सवर्णों के आरक्षण की नीति भी अपने आप में उल्लेखनीय है। रेल्वे एवं नगर निगम में कई सवर्ण इस पद में पदस्थ हुए हंै, इससे निश्चित रूप से इस पेशे को महत्व मिलेगा। दूसरी ओर यह देखा गया है कि गैर भंगी इस पेशे में आरक्षण का लाभ लेकर स्वीपर की सरकारी नौकरी तो जरूर पा जाते है किन्तु वे सफाई का कार्य नहीं करते बल्कि किसी भंगी सेे ही बेगारी या मजदूरी में यह कार्य कराते है। कुछ लोगों का कहना है कि यह सर्वणों की चाल है। सरकारी नौकरी में प्रवेश पाने के बाद ये लोग अन्य अच्छे विभागों में अपना स्थानांतरण करवा लेते है चूकि उनके अफसर सवर्ण ही होते है वे इनकी मिली भगत से ऐसे कार्य को अंजाम देते है।
सनद रहे हमारी यह लापरवाही और दलितों के प्रति हमारी ये उपेक्षा राष्टघ् की प्रगती तथा तथाकथित उत्थान के दावों को झूठा न साबित कर दे। क्योकि कोई लोकतंत्र, लोक की उपेक्षा के आधार पर कायम नहीं रह सकता। इसके लिए आवश्यक है कि उस नीव को मजबूत किया जाय जिससे राष्टघ् को स्थाई मजबूती प्राप्त हो सके। अत: अजादी के बाद से भंगीयों/दलितों की समाजिक समानता के लिए जिन कार्यों की उपेक्षा की गई, उनकी भरपाई की जानी चाहिए। इनमें दो दिशा में कार्य किया जाना आवश्यक है पहला आर्थिक उत्थान दूसरा सामाजिक सम्मान। मैने सर्वेक्षण में पाया है कि ज्य़ादातर गैर सरकारी संगठन (एन.जी.ओ.) इनकी सामाजिक चेतना (सम्मान) पर न ध्यान देकर केवल समाजिक संरक्षण पर ही ध्यान देते हैं सरकार का भी प्रयास इसी दिशा में ज्य़ादा होता है। यह एक अस्थाई विकास का उदाहरण है। स्थाई विकास एवं समाजिक चेतना के लिए आवश्यक है कि इनके विकास पर कार्य करने के लिए बने संगठन में इसी समाज के सक्रिय सदस्यों का भी सहयोग ऐसे कामों में लिया जाय। ताकि देश का सबसे आखरी सदस्य भी विकास की दौड़ में पीछे न रह जाये।