मैं जानता था कि इस विषय पर कलम उठाना एक बेहद दुस्साहसिक एवं दुष्कर कार्य है, लेकिन मेरे पूर्व शोध प्रबन्ध हेतु जुटाई सामग्री ने मेरा मेरा हौसला बनाये रखा। मेरा इस विषय पर लिखने की दो बड़ी मजबूरियां थी। पहली यह की करीब ५२ प्रतिशत जनसंख्या वाला यह पिछड़ा वर्ग सामाजिक चेतना में भी पिछड़ा क्यों है? दूसरा यह कि सामाजिक क्रांति जो दलितों में किशोरावस्था में है, इनमें शून्य क्यों है? इसका जवाब उतना आसान नही है जितना आमतौर पर अंदाजा लगाया जाता है। दरअसल इसके पीछे कई तथ्य हैं, जिनका जिक्र किताब में किया जा रहा है। उनमें से महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इस पिछड़ेपन के लिए स्वयं का भी उतना ही दोष है, जितना कि इसे पिछड़ा बनाये रखने के लिए व्यवस्था का दोष है। इसका कारण यह भी है कि कईयों को जाति व्यवस्था में अपनी स्थिति को लेकर भ्रम है। कुछ तो अपने आपको ब्राम्हण-बनीया या ठाकुर समझते है। तो कुछ ऐसे जी-तोड़ प्रयास कर रहे है। वास्तव में ब्राम्हणवादी व्यवस्था में ब्राम्हण बनने की होड़ लगी हुई है, जबकि ये मुश्किल ही नही नामुमकिन भी है। रोचक तथ्य यह है की ऐसी होड़ में लगने के लिए पहली शर्त यह है की आप आंख मूंदकर ब्राम्हणवाद का पालन करें। यानि 'ढोर गवांर शूद्र पशु नारी ये है ताड़न के अधिकारी` को संस्कृति का हिस्सा मानें। विरोध करने पर जाति प्रथा में नीचे ढकेल दिये जाने का भय है। दरअसल पूरी व्यवस्था ऐसा करने हेतु उकसाती है, ताकि अंतहीन होड़ चलती रहे और कुछेक की रोटियां सिंकती रहे।
पिछड़ा वर्ग वास्तव में किसी विशेष धर्म से ही संबंधित नही है। बल्कि अन्य धर्मो में भी यह वर्ग विद्यमान है हमने हिन्दू धर्म के अंतर्गत आने वाले पिछड़ा वर्ग की जातियों को फोकस करते हुऐ अन्य धर्मावलंबी पिछड़ा वर्ग की जातियों को भी शामिल किया है। ताकि यह कार्य परिपूर्ण हो सके।
इसमें जाति उत्पत्ति के सम्बन्ध में कई धर्म-ग्रन्थों के सन्दर्भ लिऐ गये है उनके श्लोकों का विवरण दिया गया है। इसके पीछे मेरा उद्देश्य यही नही है कि किसी की भावना को ठेस लगे, बल्कि आम लोगों को व्यवस्था की एक भयानक सच्चाई से अवगत कराना है। प्रत्येक जाति दूसरी जाति से ऊची अथवा नीची है। समानता के लिए यहां कोई स्थान नही है। ये भावना व्यवस्था ने ही आम जनता में डालें है, जो बहुत लम्बी प्रक्रिया का परिणाम है। मेरा अध्ययन परिणाम यह बतलाता है कि नस्लवादी, वंशवादी और टोटम परम्परा पर ही वर्तमान जाति-प्रथा आधारित है। किन्तु ऊंच-नीच का कारण ये परम्पराएं नही है।
लेखक की कलम से --संजीव खुदशाह किताब से -- आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग (पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताऍं)
पिछड़ा वर्ग वास्तव में किसी विशेष धर्म से ही संबंधित नही है। बल्कि अन्य धर्मो में भी यह वर्ग विद्यमान है हमने हिन्दू धर्म के अंतर्गत आने वाले पिछड़ा वर्ग की जातियों को फोकस करते हुऐ अन्य धर्मावलंबी पिछड़ा वर्ग की जातियों को भी शामिल किया है। ताकि यह कार्य परिपूर्ण हो सके।
इसमें जाति उत्पत्ति के सम्बन्ध में कई धर्म-ग्रन्थों के सन्दर्भ लिऐ गये है उनके श्लोकों का विवरण दिया गया है। इसके पीछे मेरा उद्देश्य यही नही है कि किसी की भावना को ठेस लगे, बल्कि आम लोगों को व्यवस्था की एक भयानक सच्चाई से अवगत कराना है। प्रत्येक जाति दूसरी जाति से ऊची अथवा नीची है। समानता के लिए यहां कोई स्थान नही है। ये भावना व्यवस्था ने ही आम जनता में डालें है, जो बहुत लम्बी प्रक्रिया का परिणाम है। मेरा अध्ययन परिणाम यह बतलाता है कि नस्लवादी, वंशवादी और टोटम परम्परा पर ही वर्तमान जाति-प्रथा आधारित है। किन्तु ऊंच-नीच का कारण ये परम्पराएं नही है।
लेखक की कलम से --संजीव खुदशाह किताब से -- आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग (पूर्वाग्रह, मिथक एवं वास्तविकताऍं)