संजीव खुदशाह
सन 1645 के आस पास शिंगणापुर गांव के पारस नाले में एक शिला बहकर आई और एक
दिवा स्वप्न के आधार पर उस शिला को शनि के रूप में पूजा जाने लगा। जो बाद में शनि
शिंगणापुर के नाम से प्रसिध्द हुआ। इसी प्रकार स्वप्न को आधार बताते
हुये मूर्ति मिलना उसपर मंदिर निर्माण होना भारत में कोई नई घटना नही है, सत्य कथा एवं टीवी चैनलों में ऐसे
समाचार आते रहते है। शनि शिंगणापुर इस लिए चर्चा में नही है कि उसकी शिला किसी
पारस नाम के नाले में मिली बल्कि वह इस वजह से चर्चा में है क्योंकि उसकी पूजा
करने की चेष्टा एक महिला ने की है। चर्चित होने का कारण भी किसी
आश्चर्य से कम नही, उस पर भी चर्चा का मुद्दा ये की बराबरी
के लिए महिलाएं शनि मंदिर में प्रवेश का प्रयास करना चाहती है। जो अधिकार उसे
संविधान ने दिया है। कोई ये नही बता रहा है कि देश में उससे भी प्राचीन शनि
मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश पूजा पर कोई रोक टोक नही है।
ठीक यही कहानी हाजी अली दरगाह की भी है पूरा देश जानता है कि ज्यादातर
दरगाह में महिलाओं का प्रवेश एक आम बात है। मगर इसके पहले यह जानना दिलचस्प है कि
दरगाह के संचालकों ने इस बात की साफ अनदेखी की है कि अजमेर शरीफ का बहुचर्चित
दरगाह- जहां पर हिंदू और मुसलमान, दोनों लाखों की तादाद में हर साल पहुंचते हैं- वहां पर ऐसी कोई पाबंदी कभी
नहीं रही है और न ही मुंबई के माहिम में स्थित मखदूम शाह की दरगाह पर ऐसा कोई
प्रतिबंध है। यहां बनी मजार तक महिलाएं बिना रोक-टोक पहुंचती हैं। लेकिन हाजी अली
दरगाह में महिलाओं को प्रवेश पर पाबंदी है। कुछ मुस्लिम महिलाये प्रवेश हेतु
आंदोलन कर रही है। यहां भी मुद्दा वही बराबरी का है। मजेदार बात ये है की दोनो संघर्ष
एक ही समय में चालू किये गये। दोनो संघर्षो में कुछ समानताएं भी है।
शनि शिंगणापुर की घटना को कतिपय प्रगतिशील हिन्दु इसे
महिलाओं का ऐतिहासिक आंदोलन बता रहे है वे कहते है कि महिला अपने हक के लिए लड़
रही है। वे उनकी पीठ थप-थपाने का कोई भी मौका हांथ से गवांना नही चाहते।
दरअसल शनि शिंगणापुर में इस आंदोलन से पूर्व एक रोचक घटना घटी एक महिला ने
28 नवंबर 2015 को शनि चबुतरे में चढ़कर शनि की पूजा अर्चना की थी। CCTV फुटेज से
ये मामला सामने आया और विवाद बढ़ने लगा। मंदिर ट्रस्ट ने अपने सेवादारों को
निलंबित कर दिया और ये माना की शनि शिला अशुध्द हो गई। दूसरे दिन कई टन दूध से उस
मंदिर को धोकर पुन: अभिषेक किया गया। यह भारत की हिन्दू महिला के लिए सबसे शर्म
का दिन था। यहां बताना अत्यंत जरूरी है कि 28 नवंबर को महात्मा फुले की पुन्यतिथी
भी है। प्रश्न उठना लज़मी है की क्या वह महिला महात्मा फूले के विचार से प्रेरित
थी। या ये सिर्फ एक इत्तेफ़ाक है। दरअसल जो लोग महात्मा ज्योतिबा
के विचार से परिचित है वे जानते है कि त्योतिबा ने समानता के हक के लिए कभी भी
मंदिर जाने की बात नही कही, वे समानता के लिए स्कूल जाने की बात
कहते थे। शनि शिगणापुर मंदिर प्रवेश को लेकर आंदोलन कर रही भूमाता ब्रिगेड की
मुखिया श्रीमती तृप्ति देसाई के बारे में बतादू की वे अन्ना की शिष्या है वे अन्ना
के विभिन्न आंदोलनो में उनके साथ देखी गई। वैसे उनका खास बौध्दिक बेकग्राउण्डक
क्या है बतना कठिन है। लेकिन ऐसे वक्त जब छत्तीसगढ़ में सी आर पी एफ के जवानो
द्वारा आदीवासी महिलाओं के स्तन निचोड़कर यह
देखा जा रहा है की वे शादी शुदा है या नही, जब हर घंटे एक दलित महिलाओं के साथ
बलात्कार हो रहा हो, द्रोणाचार्य
रूपी व्यवस्था द्वारा छात्र रोहित का गला घोटा जा रहा हो ऐसे समय इन मुद्दो पर मौन
रहते हुये कुछेक महिलाओं का मंदिर मजार प्रवेश हास्यास्पद लगता है। उस पर भी
इलेक्ट्रानिक मीडिया द्वारा इन्हे हाथो हाथ लेना प्रायोजित जैसा प्रतीत
होता है। ऐसा लगता है की मंदिर प्रवेश का आंदोलन दरअसल मुख्य मुद्दे से ध्यान
हटाने की कोशिश मात्र है। ताकि रोहित वेमुला, आदिवासी महिलाओं, दलितों अल्पसंख्यको के मुद्दो से ध्यान
भटकाया जा सके। क्योकि मंदिर आंदोलन इससे पहले भी हो चुके है, खुद डॉं
अंबेडकर ने दलितों शूद्रों के लिए मंदिर प्रवेश आंदोलन किया था लेकिन मकसद पूजा
नही समानता का था। दरअसल डॉं अम्बेडर, महात्मा फूले जैसे तमाम समतावादी
विचारक यही मानते थे । की जो धर्म तुम्हे नीच और पतीत कहे वो तुम्हारा हो ही नही
सकता। तुम उसका बहिष्कार करो। यदि भू माता ब्रिगेड की महिलाये ये किसी वैचारीक
आंदोलन से प्रेरित होती तो इस व्यवस्था का बहिष्कार करती। लेकिन वे मंदिर प्रवेश
एवं पूजा का अधिकार चाहती है। जिसे प्रवेश उन्हे प्रायेाजित कार्यक्रम के अनुसार
देर सवेर दिया जाना ही है। वैसे भी बढती वैज्ञानिकता और समतावादी विचारधारा ने
महिला वर्ग को जागृत किया है ऐसे वक्त अपनी तुछ परंपराओं को जीवित रखने के लिए
प्रवेश देना उनकी मजबूरी है।
बेहतर होता महिलाएं अपने मानव होने के अधिकार को मांगती उनके स्पर्श से
अशुध्द होने वालो का बहिस्कार करती, वे उन ग्रंथो को प्रतिबंध लगाने की
मांग करती जो उन्हे नरक का द्वार कहती, पशु का दर्जा देती। वे ऐसी किताबो को
मानने से इनकार करती जो उसे इद्दत की मुद्दत तथा हलाला के लिए मजबूर करती।
राष्ट्रीय समाचार पत्र देशबंंधु में प्रकाशित