- संजीव खुदशाह
फिल्म
का नाम –बूट पॉलिश
अवधि--153 मिनट
निर्देशक—प्रकाश अरोरा
बैनर—राज कपूर
यह फिल्म 1954 के आस पास बनी थी। इस ब्लैक एड व्हाइट फिल्म में राज कपूर
ने एक ऐसा मुद्दा उठाया जिसे अन्य बैनर उठाने में हिचकिचाते थे। पहले पहल जो भी
फ़िल्मे बनी उनमें धार्मिक फ़िल्मो की भरमार थी या किसी पुरानी लोक कहानियों से
प्रेरित थी। कारण साफ था ऐसी फ़िल्मो से कमाई होने की गारंटी थी। राज कपूर ने लीग
से हटकर फिल्म बनाने की परिपाटी प्रारंभ की आवारा,श्री 420, अनाडी, बूटपालिश ऐसी ही फ़िल्मो की श्रृंखला है।
इस फिल्म में भोला(रतन कुमार) और बेलू(बेबी नाज) दो
भाई बहन हैं जिनकी माँ का देहांत हो गया
है और पिता को कारावास। उनको उनकी दुष्ट चाची कमला के साथ रहने
जाना पड़ता है। कमला उनसे भीख
मँगवाती है और उन्हें बुरा-भला कहती है। यह फिल्म रेल्वे
स्टेशन के ईर्द-गिर्द घूमती है। स्टेशन के पास ही झोपडीनुमा घर वे रहते है, जहां से ये दोनो
भाई बहन भाग कर में रेल गाड़ी में भीख मांगने चले जाते। एक अवैध शराब बनाने वाला अधेड व्यक्ति है, जिसको बच्चे जॉन चाचा (डेविड)
के नाम से जानते
हैं। जॉन चाचा उनको भीख माँगना छोड़कर
एक स्वाभिमान की ज़िंदगी जीने
की सलाह देता है।
बच्चे उसकी बात मानकर कुछ पैसे बचा कर बूट पॉलिश का सामान खरीदते हैं। जब
कमला को इस बात का पता चलता है तो वह उनका सामान छीन कर उन्हें मारती है और घर से निकाल देती
है।
वर्षा होने के कारण अब कोई भी व्यक्ति उनसे बूट पॉलिश भी नहीं कराता है और दोनों
को भरपेट भोजन भी नसीब नहीं होता है। असहाय बच्चे
तब भुखमरी के कगार पर पहुँच जाते हैं जब जॉन चाचा को अवैध शराब बनाने
के जुर्म में हिरासत में ले
लिया जाता है। एक दिन रेलवे स्टेशन पर अनाथ बच्चों को अनाथालय ले जाने की पकड़ धकड़ चल रही थी।
बेलू ट्रेन में चढ़कर बच
निकलती है
और भोला से बिछड़ जाती है। ट्रेन में बेलू को एक अमीर दंपत्ति गोद ले लेते है। बेलू भोला से बिछड़कर दुःखी हो जाती है।
बूट पॉलिश का काम शुरु करने के बाद भोला ने बेलू को भीख माँगने से मना किया था
और यहाँ तक कि बेलू ने कहा न मानने पर उसपर हाथ भी उठाया था, लेकिन अब हालात इतने नाज़ुक हो जाते हैं कि भोला को
ख़ुद भीख माँगने की नौबत आ जाती है और एक दिन जब वह रेलवे स्टेशन पर भीख माँग रहा
होता है तो उसकी मुलाक़ात बेलू से हो जाती है। फिर दोनों बच्चों को वह अमीर
दंपत्ति गोद ले लेते है। फ़िल्म के अंत में
दिखाया गया है कि अब दोनों बच्चे स्कूल जा
रहे हैं।
प्रकाश अरोड़ा द्वारा निर्देशित इस श्वेत – श्याम फिल्म बूट पॉलिश में बेबी
नाज़ , रतन कुमार, चाँद बुर्के और चरित्र अभिनेता डेविड अब्राहम ने अभिनय
किया है। इस फिल्म को सर्वोत्तम फिल्म के लिए फिल्म फ़ेयर पुरस्कार मिला था । केन्स फिल्म समारोह में बाल कलाकार के रूप
में बेबी नाज़ के उत्कृष्ट
अभिनय का
विशेष उल्लेख किया गया । डेविड को सर्वोत्तम
सहायक अभिनय के लिए फिल्म फेयर पुरस्कार मिला था।
राज
कपूर की अन्य फिल्मो की तरह इस फिल्म मे भी निर्माता-निर्देशक की मेहनत साफ झलकती
है। निर्देशन और अभिनय पक्ष दमदार है, सूट किया गया
लोकेशन जीवंत प्रतीत होता है। सुरीले गीतो से सजी यह फिल्म व्यवसायीक एवं मनोरंजन
के दृष्टिकोण से बेहतरीन है। लेकिन फिल्म भारतीय जन मानस की सच्चाई बयां करने में
विफल रहती है। यह फिल्म शुरू से आखरी तक जाति एवं जातिगत मुद्दों पर बात करने पर
परहेज करती है। जबकि भारत का हर व्यक्ति जानता है की बूट पॉलिश कौन सी जाति के लोग करते है। यहां का
कुलीन वर्ग मरते मर जायेगा लेकिन बूट पालिश नही करेगा। राज कपूर शायद इस तथ्य को
जानते हुए भी अनजान बनने की कोशिश करते है। जैसा की फिल्म का नाम बूट पॉलिश से
झलकता है कि इसमें बूट पालिश करने वाले वर्ग के सुख दुख का लेखा जोखा मिलेगा।
किन्तु इस फिल्म में ठीक इसके उल्टा होता है।
अंत
में यह दोनो बूट पालिश करने वाले बच्चों को एक रईस निःसंतान दंपत्ति गोद ले लेते
है। यहां भी जाति का मुद्दा ग़ायब रहता है। जबकि 1954 में फिल्म निर्माण के वक्त
जाति प्रथा, छुआ-छूत चरम पर थी। बेहतर होता इस फिचर
फिल्म में उन लाखों लोगो के दुख दर्द को सिल्वर स्क्रीन में उतारा जाता, जिन्होंने पीढी दर पीढी इस कार्य को किया और भोगा है।