सकारात्मकता, समतावादी आंदोलन का आकर्षण है
संजीव खुदशाह
अगर कोई मुझसे कहता की मैं एक कट्टर बौध्द हूँ, या कट्टर आंबेडकरवादी हूँ, तो
मैं उसे कट्टर तालीबानी के बराबर ही समझता हूँ। जिनका काम आपसी द्वेश फैलाना है।
क्योकि बुध्द और आंबेडकर के विचार कट्टरता खत्म करते है नकी बढ़ाते है। दरअसल, आज
तक जितने भी समता आंदोलन हुऐ है। उनमें कट्टरता के बजाय विद्रोह का समावेश रहा है।
वे बिना सभी के सहयोग के पूर्णं नही हुये। चाहे शोषक वर्ग ही क्यो न हो। असल में
शोषक वर्ग में जन्म लेने का अर्थ यह नही है कि वह केवल और केवल शोषक ही हो। ठीक
उसी तरह शोषित वर्ग में जन्म लेने का अर्थ यह नही होता कि वह समता का समर्थक हो।
यदि हम वर्ग के भेद को मिटाना चाहते है तो वर्ग भेद को मिटाने का पहला कदम यही
होगा कि हम इस आंदोलनकर्ताओं में ही वर्ग भेद को पूरी तरह से मिटा दे। उच्च वर्ग
के समतावादी लोगो को अपने साथ लेकर। उसी प्रकार यदि हम जातिभेद को मिटाना चाहते है
तो हमें वास्तव में बिना किसी जाति भेद के इस आंदोलन में सभी को साथ ले जो आपके
साथ आना चाहते है या मदद कर रहे हैं।
बाबा साहेब डाँ आंबेडकर को मानने वाले ज्यादातर लोग सिर्फ सवर्णो को कोसने, या
देवी देवता को नीचा दिखाने को ही आंबेडकरवादी होने का सबसे बडा प्रमाण पत्र मानते
है। यदि ऐसा “आंबेडकरवादी” शब्द “समता आंदोलन” का पर्याय माना जाता है और कबीर, फुले, बुध्द को अपना मार्गदर्शक मानता है।
तो मेरे ख्याल में यह संसार का सबसे बडा भ्रम है। क्योंकि कबीर फुले और बुध्द की
जीवनी को देखे तो ज्ञात होता है की उन्होने विचार को गलत या सही ठहराया, न कि किसी
व्यक्ति या जाति को। खुद डाँ आंबेडकर के करीबी और मददगार ब्राम्हण ही थे। उनके
गुरू जिनसे उन्होने अपना सरनेम आंबेडकर प्राप्त किया वे ब्राम्हण ही थे। उनकी दूसरी
पत्नी भी ब्राम्हण ही थी। वे सब जिन्होने आंबेडकर को संविधान लिखने के लिए मौका
दिया। वे भी ब्राम्हण और सवर्ण ही थे। मोहनदास करमचंद गांधी, जवाहर लाल नेहरू सभी
बैरिस्टर पास थे उनमें ऐसी कोई कमजोरी नही थी कि वे संविधान नही लिख सकते न ही ऐसी
कोई मजबूरी थी कि डाँ अंबेडकर को ही संविधान बनाने की प्रारूप समिति का अध्यक्ष
बनाया जाय। लेकिन उन्होने ऐसा किया इसका एक कारण था वे डाँ आम्बेडकर की समतावादी
नीति के कायल थे। वे इस स्वतंत्र भारत को ये संदेश देना चाहते थे अब भारत विकास की
ओर आगे बढे़गा क्योंकि अब यहां समानता है।
आंबेडकरी आंदोलन के लोग अपनी गोष्टियों में उन बातो की चर्चा ज्यादा करते
जिन्हे उन्हे नकारना है। उनकी चर्चा कम होती जिन्हे उन्हे स्वीकारना है। इसका असर
ये होता है कि आम आदमी इनसे दूर होता जाता है। मैं यह बात उन सभी समतावादी आंदोलन
के बारे मे कह रहा हूँ जो दलित, ओबीसी या आदिवासी वर्ग से ताल्लुख रखते है।
आंबेडकरी आंदोलन क्यों अच्छा है ये बताने का काम बहुत कम लोग कर रहे हैं। हिन्दू
धर्म में बुराई है ये बार-बार बताने की कोशिश होती है। अक्सर एक आम आदमी हिन्दू
धर्म की बुराई सुनकर घबरा जाता है, और विकल्प खोजता है। सही विकल्प नही मिलने के
कारण वह अपने शोषण को ही अपनी नियती मानने लगता है। इस कारण ये आंदोलन आज नकारत्मक
आंदोलन का पर्याय बन गया है। समतावादी आंदोलन सिर्फ समाज की सच्चाई को आम आदमी तक
पहुंचाने का कार्य करेगी तो वह आंदोलन नही एक डाकिये का काम करती है। और डाकिये
कभी आंदोलन नही लाते। बदलाव लाने के लिए उसके पूरे चरण में काम करना होगा।
नकारात्मक से ज्यादा सकारात्मक मुद्दो पर बात करनी होगी। अगर कोई चीज गलत है, तो
ये बताना होगा सही क्या है और वो सही क्यो है? ये भी बताना होगा।
आज बौध्द धर्म सीमित होता जा रहा है। उसका कारण है। बौध्द धर्म के लिए
धर्मांतरित तो काफी लोग हुऐ। उन्हे 22 प्रतिज्ञायें भी दिलाई गई। इसमें से जोर इस
बात का ज्यादा दिया गया की क्या नही करना है। क्या करना है उस प्रतिज्ञा को बार
बार नही उछाला गया। बौध्द धर्म इसलिए महान है क्योंकि उसकी शिक्षायें सम्यक है। वे
संतुलन की शिक्षा देते है। बौध्द धम्म जीवन जीने का एक महान तरीका सिखाता है
आश्चर्य की बात है कि यदि बौध्द धर्म के सिर्फ पंच शील का पालन करे तो व्यक्ति का
जीवन उन्नति की ओर अग्रसर हो जायेगा। लेकिन यहां जांच इस बात की होती है की
व्यक्ति दिवाली में दिये जलाता है या नही, जांच इस बात की नही होती की वह पंचशील
का पालन करता है या नही। इतिहास बताता है कि पहले पूरा भारत बौध्दमय था। और
बौध्दों के सारे त्यौहारों को हिन्दू त्योहारों में तबदील कर दिया गया। यही कारण
है कि डाँ आम्बेडकर ने धर्म चक्र प्रर्वतन दिवस का दिन दशहरे के दिन को चुना और आज
बौध्द इसे अशोक विजय दशमी के नाम से पुकारते है। उसी प्रकार कुछ इतिहासकार समाज
सेवक ये मानते है कि दलित और पिछडा वर्गो के परिवार में घर के अंदर पूजी जाने वाली
देवी महामाया कोई और नही बल्कि बुध्द की माता ही है। ऐसे सैकडो सकारात्मक तथ्य
हमारे पास है जिन्हे हम लोगो तक पहुचा सकते है। मैं यहां पर जानकारी देना आवश्यक
समझता हूं कि बौद्ध धर्म के पतन के समय हीनयांन-महायान से कुछ पंथ भी तैयार हुए।
ये पंथ बौद्ध भिक्षुओं से ही टूटकर बने थे। इन्ही में एक पंथ नाथ सम्प्रदाय था, जिसमें बौध्द धर्म के अवशेष नाम-मात्र के थे। नाथ संप्रदाय आज हिन्दू धर्म के पोषक रूप में जाना जाता है।
भगवान बुध्द की प्रतिमा सभी ने देखी होगी। सारी की सारी प्रतिमाये और चित्र
उनकी ध्यान मुद्रा में है। कितने प्रतिशत बौध्द ध्यान लगाने पर जोर देते है? ध्यान से जो उर्जा मिलती है उसका
प्रयोग सारे संसार के साधक उपयोग कर रहे है। आज कई नई संस्थाये प्रयोग करती देखी
जाती है, और अपने नाम पर मेडिटेशन का प्रचार करती है। जैसे आर्ट आफ लीविंग,
पांतंजली योग पीठ आदी। ध्यान या मेडिटेशन के द्वारा ज्ञान प्राप्त करने का तरिका
बुध्द ने ही मानव जाति को सिखलाया था। इतनी विलक्षण पूंजी को क्या बौध्द आंदोलन के
लोग प्रचारित करते देखे जाते है। ये एक ऐसी पूंजी है जिसपर बुध्द का ही कापीराईट
है। बावजूद इसके बौध्द प्रचारक इसका प्रचार नही करते। बौध्द प्रचारकों का बौध्द
धर्म प्रचार करने का मुख्य आधार होता है हिन्दू धर्म खराब है इसलिए इसे छोडो़।
जबकि प्रचार का कारण ये होना चाहिए बौध्द धर्म में ये ये अच्छाइयां है इसलिए इसे
अपनाओं। किसी भी प्रचार के तरिके सकारात्मक होंगे तो परिणाम ज्यादा अच्छे आयेगे।
समतावादी आंदोलन की हवा में कुछ संस्थाये उभरी जैसे बामसेफ, आरपीआई, एम्बस,
बीएसपी आदि। इन सभी का विचार संस्थागत तौर पर चलता है। यदि उनके प्रमुख ने ये मान
लिया की एफडीआई गलत है तो सभी सदस्य बिना किसी दिमाग को खर्च किये ये रटेगे की
एफडीआई गलत है। यहां मै किसी बात का समर्थन या विरोध नही कर रहा हूँ। मैं सिर्फ ये
बताने की कोशिश कर रहा हूँ कि इस आंबेडकरी आंदोलन में किसी व्यक्ति के विचार को
सुन कर बताया जा सकता है की वह किस संस्था से ताल्लुख रखता है।
अभिजात्य वर्ग की शिकायत रही है कि आरपीआई, बामसेफ जैसी कई अम्बेडकरवादी
संस्थाये टुकड़ो में बंट गई। जब वे स्वयं साथ नही रह सकती तो अपने समाज को क्या
जोड़ सकेगी। शिकायत बिल्कुल सही है। लेकिन ये प्रश्न मूहबांये खडा है कि ये
संस्थाये आपस में एक होकर क्यो नही रह सकी। इसका उत्तर सिर्फ एक है वह ये की
इन्होने कभी भी आम्बेडकर की नही माना, न ही इन्होने बुध्द को माना। क्योंकि
इन्होने हमेशा नकारात्मकता का ही प्रचार किया। आम्बेडकर कभी भी ऐसे नही थे। न
बुध्द ने ऐसे प्रचार को तरजीह दी। इन्होने नकारत्मक को सकारात्मकता से ढांक दिया।
एक आम आदमी को दो वक्त की रोटी सुख और शांती चाहिए। क्या समतावादी आंदोलन आम आदमी
की आखरी दो जरूरतो को पूरा कर सकता है। यदि नही तो वह व्यक्ति जिसके पास न रोटी
है, न सुख, न शांती उसके लिए आपकी नकारात्मक बाते किसी बकवास से कम नही । उसे
सकारात्मक बातें अपनी ओर खींचती है क्योकि उसमें उर्जा है शांति है और उसमें वह
अपना भविष्य देखता है।
Publish in Forward Press August 2015 issue