बुध्द जयंति पर विशेष लेख
लाफिंग बुध्दा
संजीव खुदशाह
जब मै बाल अवस्था में था, गर्मियों की छुट्टी में पाठ्यक्रम के बाहर की किताबे पढने का मौका मिला, इस दौरान कई महापुरूषों की जीवनी का अध्ययन किया। लेकिन जब बुध्द की जीवनी को पढ़ा तो लगा मानो हिचकोले खाती नदी को शांत समुद्र का साथ मिल गया। बालमन अब तक अपने आस पास उंच-नीच, छुआ-छूत धार्मिक आडंबर के ज्वलंत प्रश्न से जूझ रहा था। किशोरावस्था द्वार खटखटा रहा था। ऐसी स्थिति में जीवन-मरण के प्रश्न, जिन्दगी जीने का सही तरीका आदि मुद्दो पर मन में बड़ी कूद-फांद मची रहती थी। मै समझता हू ऐसी उथल-पुथल सभी किशोरो के मन होती होगी, और ऐसे दौर से गुजरना पडता होगा। यहां पर मेरी बुध्द से मुलाकात एक मार्गदर्शक के तौर पर हुई। जिन प्रश्नों के जवाब घर के बड़े बजुर्गो से नही मिले उनके जवाब बुध्द ने दिये।
उस वक्त बाल बुध्द के मन में उठने वाले चार प्रश्न- मृत्यु क्या है? लोग बीमार क्यो होते है? बुढ़ापा क्या है? दुख क्या है? मुझे समझ नही आ रहे थे। लेकिन बुध्द की एक बात ने मुझे उस समय भीतर तक प्रभावित किया। वह थी बुध्द के द्वारा बताई गई जीवन जीने की पद्धति-
वे कहते है- जीवन ऐसे जीना चाहिए जैसे ''वीणा''
वीणा के तारो को इतना मन कसों की उसकी तीखी ध्वनी कानों को चुभे। और इतना ढीला न रखों, की उसकी ध्वनी बेसुरी सुनाई पड़े। वीणा के तारों को ऐसे कसो की उसकी मधुर ध्वनी से मन प्रफुल्लित हो जाय। जीवन के तारो को भी ऐसे ही एडजस्ट करना चाहिए की यह जीवन आनंदित हो जाय।
मै बुध्द के इन जीवनापयोगी उपदेश को जीवन स्तंभ कहता हूं। बुध्द धम्म में इस प्रकार के हजारो स्तंभ है जो जीवन को नई राह देते है। एक और स्तंभ है जिसने ज्ञान की उचाईयों को छुआ है। इसका जिक्र किये बिना बात पूरी नही हो सकती।
बुध्द कहते है मेरी बात इसलिए मत मानो क्योकि इसे मै कह रहा हूं बल्कि इसकों खुद आजमाओं यदि सही लगे तभी इसे मानों। यानी अपना दीपक स्वयं बनों।
यह वाक्य आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व भी आधुनिक था आज भी आधुनिक है। बुध्द ने अपने किसी भी उपदेश को नही थोपा। यह कहकर की मै कह रहा हूं इसलिए मानो, या फलां किताब में लिखा है इसलिए मानों। उन्होने न ही अपने आपको पैगम्बर, ईश्वर का पुत्र या किसी देवता का अवतार कहा। उन्होने कहा मै शुध्दोधन का पुत्र मात्र हूं। शायद यही कारण है कि उनके उपदेश को मानने वाले पूरे संसार में है। उनका धम्म विश्व के दो बड़े धर्मो मे गिना जाता है।
एक और खास बात बुध्द के अलावा और कही देखी जाती वह है। वह है वार्तालाप। बुध्द अपने कथनों में वाद विवाद को पूरा स्थान देते है। बुध्द के जीवन में वार्तालाप एक महत्वपूर्ण अंग के रूप में विद्यमान है। उनके लगभग सभी उपदेश वार्तालाप की शैली में है। वे अपनी बात जनसामान्य को समझाने के लिए गूढ़ मंत्रों, रहस्यों का सहारा नही लेते, बल्कि वार्तालाप के माध्यम से अपने जटिल से जटिल बातों को उपदेश के रूप में आसानी से बता देते थे। इसलिए बुध्द के विचार आज भी ताजा है। बुध्द अन्य धर्मो की तरह बहस, सवाल उठाने पर पाबंदी नही लगाते। बुध्द कहते है विद्वानों के बीच स्वस्थ बहस होनी चाहिए एवं उसका जो भी निष्कर्ष मिले। उसे जन कल्याण में उपयोग लाना चाहिए।
जिस धर्म में बहस की गुजाईश नही होती वो धर्म एक बदबूदार तलाब की तरह हो जाता है। उन धर्मो में कोई भी नया पन नही रह जाता। वर्षो पुराने अप्रासंगिक नियमों सिध्दांतो के मुर्दो को ढोना उस धर्म की नियती बन जाती है, इसके परिणाम स्वरूपम धर्म के ठेकेदारों के विरूध सामाजिक विद्रोह होता है। लेकिन बुध्द का विचार आज भी प्रासंगीक है बहता पानी की तरह स्वच्छ एवं ताजा है।
आज मै लाफिंग बुध्दा, फैट हैप्पी बुध्दा, वैल्थी बुध्दा के रूप में बुध्द को नये अवतार में घर-घर विराजते देखता हूं। लेकिन ये वास्तविक मुस्कराते बुध्द नही है। कुछ लोग अंधविश्वास में आकर घर में खुशी, धन संपत्ति लाने के लिए इस प्रकार के बुध्दा को ड्राईंग रूम में सजा कर रखते है। यदि बुध्द सचमुच यहां होते तो ये देखकर मुस्कराते नही बल्कि हैरान हो जाते। अंधविश्वास और बाजारीकरण ने बुध्द की मुर्तियों तक को नही बक्शा। जिस दिन भारतीय समाज अंधविश्वास, उंच-नीच, छुआ-छूत आदी बुराईयों से उबरेगा तभी सही मायने में बुध्द मुस्करायेगे। और मुझे यकीन है बुध्द अवश्य मुस्करायेगे।
संजीव खुदशाह
Sanjeev Khudshah
M-II/156, Phase-1,
Near St Thomas School,
Kabir Nagar, Raipur (C.G.) 492099
Cell No. 09977082331
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