विश्वविद्यालय की आंधी से किसको खतरा
संजीव खुदशाह
विगत दिनों देश में ज्ञानार्जन संस्थान विद्रोह और दमन के केन्द्र बने हुये है। हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या से ये मुआमला तूल पकड़ने लगा। लेकिन यदि हम कुछ साल पीछे की घटनाओं को गौर करे जैसे महाराष्ट्र के शिरडी में एक दलित छात्र की हत्या सिर्फ इस लिये कर दी गई क्योकि उसने मोबाईल पर अंबेडकर की रिंग टोन लगा रखी थी। उसी प्रकार मद्रास आई आई टी के अंबेडकर पेरियार स्टुडेन्ट सर्कील के छात्रो द्वारा सरकार की आलोचना करने पर उसे मानव संसाधन कार्यालय के निर्देश पर बैन कर दिया गया। प्रतिबंधित दल का कहना है कि वे जाति प्रथा आधारित भेदभाव, हिंदी भाषा थोपे जाने, बीफ बैन और शिक्षा में आरक्षण जैसे मुद्दों पर सरकार की नीतियों से अपना मतभेद व्यक्त कर रहे थे और लेकिन उसे "घृणा फैलाने की कोशिश" बताया गया है. आईआईटी मद्रास पर पहले भी सालों से “ब्राह्मणवादी रवैया" रखने का आरोप लगता आया है. एपीएससी के सदस्य मानते हैं कि उन्होंने कोई भी असंवैधानिक काम नहीं किया है।
(यहां ब्राम्हणवाद से तात्पर्य किसी जाति विशेष से नही बल्कि उस विचारधारा से है। जो अंधविश्वास, ऊंच-नीच, व्यक्तिवाद, जातिवाद, सामंतवाद, रंगभेद, लिंग भेद आदि को बढ़ावा देती है।)
विश्वविद्यालय में वैचारिक स्वतंत्रता पर हमले
यहां बताना आवश्यक है कि ब्रिटिश काल में हमारे देश के लोग आक्सफोर्ड ओर केम्ब्रीज में पढ़ने के लिए जाते थे। सावरकरजी भी वहां पढ़ने गये थे। वहां उन्होने प्रसिध्द किताब Indian war of Independence-1875 लिखा। वहां उनके द्वारा फ्री इंडिया सोसायटी की स्थापना किया गया । विश्वविद्यालय के भारतीय छात्र ब्रिटिश सरकार के दमन और भारत के स्वतंत्रता पर विचार विमर्श और गोष्ठियां करते थे। किन्तु ब्रिटिश सरकार या विश्वविद्यालय प्रशासन ने कभी इन गतिविधियों को देश द्रोह के रूप में नही देखा। जबकि उस वक्त भारत ब्रिटेन का अभिन्न अंग था। इन विश्व विद्यालयों की लोकताँत्रिक व्यवस्था इसलिए महान है क्योकि उनकी मान्यता है कि विश्वविद्याल खुले विमर्श का धरातल है कोई निजी कोचिंग सेन्टर नही। विश्वविद्यालय को किसी विचार धारा विशेष धर्म विशेष के दायरे में बांध ने का अर्थ हे उसके प्रतिमानों को विमर्श को ज्ञान को संकुचित कर देना। इसलिए इसमे कोई आश्चर्य नही की विश्व की 100 चोटी के विश्वविद्यालयों में भारत का एक विश्वविद्यालय शामिल नही हो सका।
दुनिया के किसी विकसित और लोकताँत्रिक देश के विश्वविद्यालयों को देख लीजिए। अमेरिका में तो तीन-तीन बड़े छात्र आंदोलन हो चुके हैं। सबसे पहला 1965 के अमेरिका-वियतनाम युद्ध के समय। इसमें मिशिगन यूनिवर्सिटी के छात्रों ने युद्ध के खिलाफ प्रदर्शन किया। आपको पता होगा कि यह लड़ाई अमेरिका हार भी गया था। कोई देशद्रोह का केस नहीं हुआ। दूसरा 1965-73 में हुआ। लेकिन कोई देशद्रोह नहीं माना गया। तीसरा कोलंबिया यूनिवर्सिटी में साल 1968 में हुआ। दरअसल कुछ हथियार कंपनियों ने वियतनाम में अमेरिका को लडऩे के लिए उकसाया था। यह उनके खिलाफ था। इसमें भी अमेरिका विरोधी नारे लगाए गए। पर कोई केस नहीं दर्ज किया गया। फिर 2003 में पूरे अमेरिकी विश्वविद्यालयों में इराक युद्ध के विरोध में प्रदर्शन हुए।
ब्रिटेन के ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में तो बकायदे आयोजन होते हैं जिसमे सरकार और उसकी नीतियों की खुलकर आलोचना होती है,विमर्श होता है। कुछ लोग यह भी दलील देने लगे है कि जेएन यू जनता के टैक्स से चलता है। उनके लिए जवाब है कि जैसे जनता के पैसे से नेता लोगों को सुविधाएँ भोगने का हक है उसी तरह विश्वविद्यालयों को चलने का भी, बल्कि यह तो शिक्षा पर खर्च हो रहा।
खतरा कन्हैया कुमार से है या कम्युनिष्ट विचार धारा से?
दरअसल भारत में दो विचारधारा चल रही है एक मनुवादी विचारधारा दूसरी अंबेडकरवादी विचार धारा। मनुवादी विचार धारा जिसे हम ब्राम्हणवादी विचारधारा भी कहते है। ब्राम्हणवादी विचारधारा से कभी भी गांधीवादी या समाजवादी विचारधारा से खतरा नही रहा है न ही वे कम्युनिष्ट विचारधारा से घबराये है। क्योकि भारतीय कम्युनिष्ट विचारधारा मनुवाद को बचाने का ही काम करता रहा है। ज्यादातर भारत के कम्यूनिष्ट विचारक यही मानते रहे है की भारत मे जाति शोषण कोई समस्या है ही नही। यदि है भी तो पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के खत्म हो जाने पर सब समस्या खत्म हो जायेगी। वे जानबूझ कर भारत में ऊँच नीच छुआ छूत को नजर अंदाज़ करते रहे क्योकि ये विचारक उन्ही शोषक तबके से आते थे। यानि वे किसी न किसी रूप में ब्राम्हणवाद को बचाने का काम करते रहे। लेकिन अब कम्युनिष्ट विचारधारा का एक धड़ा ब्राम्हणवाद को खत्म करने पर जोर दे रहा है।
देश में इसी तारतम्य में कई घटनाएँ लगातार घटी है महाराष्ट्र में अम्बेडकरी रिंग टोन रखने पर छात्र की हत्या, तमिलनाडु में अम्बेडकर पेरियार स्टुडेन् यूनियन पर प्रतिबंध, हैदराबाद में दलित छात्र रोहित वेमुला की तरह तरह से विश्वविद्यालय प्रशासन के द्वारा प्रताडि़त किया गया तत्पश्चात उसकी आत्म हत्या। इसके बाद जे एन यू छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को रोहित के साथ खड़े होने पर देश विरोधी नारे लगाने के आरोप में गिराफतारी।
इन घटनाओं को सिल सिलेवार देखने एवं उसका विश्लेषण करने पर एक खास बात नजर आती है वह है अंबेडकर फूले पेरियार की विचार धारा । हालांकि कन्हैया कुमार जो कि जे एन यू छात्र संघ के अध्यक्ष है तथा भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के छात्र संगठन ए आई एस एफ से चुन कर आये है।
कन्हैया को षडयंत्र में फँसाने का कारण
रोहित के मौत के बाद कन्हैया खुल कर प्रशासन का विरोध करता रहा वह आज़ादी के लगातार नारे भी लगाता रहा। उसके नारे है
ब्राम्हणवाद से आज़ादी, मनुवाद से आज़ादी, सामंतवाद से आज़ादी, रोहित हम शर्मिंदा है, द्रोणाचार्य अभी भी जिन्दा है। आदि आदि ।
इन आधारो पर उस पर देश विद्रोही होने का केस नही दर्ज किया जा सकता था। लेकिन मनु वादियों की जड़े हिल रही थी उन्हे लग रहा था कि यदि ऐसा चलता रहा तो वो दिन दूर नही जब यहां से ब्राम्हण वाद की अर्थी निकलेगी। भारत के इतिहास में पहली बार खुल कर ब्राम्हणवाद के विरोध में नारे लगे और ब्राम्हणवाद पर चर्चा हाने लगी। इसी बीच एक ब्राम्हणवादी मीडिया एक्सपर्ट शिल्पी तिवारी ने कन्हैया के नारे लगाने वाले वीडियो में छेड़छाड़ की, देश विरोधी एवं पाकिस्तान के पक्ष में नारे लगाते ऑडियो को उस वीडियो मे फिट किया। सोची समझी साज़िश के तहत जी न्यूज समेत कुछ ब्राम्हणवादी चैनलों ने इसे खूब दिखाया ताकि कन्हैया एवं उसके साथियों को देश द्रोही साबित किया जा सके। आनन फानन उसे जेल में डाल दिया गया। उस पर देश द्रोह की धारायें लगाई गई। इस बीच मनु वादियों ने सोशल मीडिया पर खूब तांडव मचाया उस वीडियो को नये नये जुमले के साथ खूब शेयर किया । लोगो को गुमराह करने में कोई कसर नही छोड़ी। इस दरमियान कन्हैया का आोरिजिनल वीडियो सोशल मीडिया मे तैरने लगा। कुछेक इलेक्ट्रानिक मीडिया ने भी वीडियो के साथ की गई छेड़ छाड़ को विस्तार से दिखाया। कन्हैया रिहा हुआ और एक नये तेवर के साथ सामने आया।
इस घटना को कम्युनिष्ट पार्टी ने लेफ्ट के उभार के रूप में देखा। सीताराम येचुरी ने घोषणा तक कर दिया की कन्हैया कम्युनिष्ट पार्टी के लिए चुनाव प्रचार करेगे। गौर तलब है कि कम्युनिष्ट पार्टी आफ इंडिया ने अब तक अपने पत्ते नही खोले है की वे हमेशा की तरह मनुवाद के पक्ष में रहेगा की कन्हैया की तरह अम्बेडकरवाद के पक्ष में। वे सिर्फ ये सोच रहे है की कन्हैया की लोकप्रियता का फायदा अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेकने मे कैसे करे।
शासन प्रशासन में बैठे ब्राम्हणवादी लोग ये भली भॉंती जानते है की तर्क विमर्श से अंबेडकरवाद का मुकाबला नही किया जा सकता वे ब्राम्हणवाद को बचाने के लिए तीन ढाल का इस्तेमाल करते है। 1. संस्कृति के नाम पर 2. धार्मिक भावना के नाम पर 3. हिन्दू राष्ट्रवाद के नाम पर। इसलिए वे महिषासुर दिवस मनाये जाने पर घबराते है। इसलिए वे बीफ पार्टी के नाम पर कतराते है, इन्हे देश द्रोही साबित करने में तुल जाते है क्योकि उनको वास्तविक खतरा देशद्रोहियों से नही बल्की समतावादी विचारधारा अंबेडकरवाद से है। जो जाति भेद, लिंग भेद, रंगभेद, क्षेत्र भेद को खत्म करने की बात करता है और इन भेद को खत्म करने का मतलब है मनु वादियों को मुफ्त की सुविधाएँ, मलाई मिलना बंद होना।
यह तो तय है की समता वादी विचार धारा की आंधी आ चुकी है। पिछले साल विभिन्न विश्वविद्यालय समेत करीब 300 स्थानो में महिषासुर दिवस मनाया गया। मनुस्मृति दहन दिवस हर साल जोर शेार से मनाया जाता है। अम्बेडकर परिनिर्वाण दिवस में हर साल 20 से 30 लाख लोग चैत्य भूमि में शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने जाते है। भले ही मीडिया इन्हे जगह न दे रहा हो लेकिन वे जानते है शिक्षण संस्थानो से ब्राम्हणवाद की जड़े हिलने लगी है।
कन्हैया कुमार बिहार की भूमि हार जाति से ताल्लुख रखते है प्रख्यात लेखक श्री रजनीकांत शास्त्री अपनी किताब हिन्दू जाति का उत्थान पतन में कहते की शास्त्रो के अनुसार भूमिहाल(भूमिहार) एक शूद्र जाति है। हालांकि जोत अधिनियम लागु होने के कारण ये जातियां सम्पन्न हो गई। भूमिहार अन्य छोटी जातियों की भांती कभी क्षत्रिय तो कभी ब्राम्हण हाने का दावा करती रही है। लेकिन क्षत्रिय या ब्राम्हण से इनके वैवाहिक संबंध नही बनाते है।
श्री रजनी कांत शास्त्री लिखते है कि भूमिहाल शब्द से, जिसका अपभ्रंश भूमिहार शब्द बना। वे ‘भूमि पृथ्वी लक्षणया क्षेत्र हलति हलयं क्षेत्र कर्पति इति भूमिहाल:, भूमिहल (कर्षर्ण) अण् कर्म्मण्यण 3/2/1 इति पाणिनि सूत्रस्थ प्रवृति रूप पद समास:’ का हवाला देते है।
जे एन यू समेत कन्हैया के अम्बेडकरी विचारधारा में आने की घटना को देश का विशाल समतावादी समुदाय बड़ी आशा की नजर से देख रहा है। उनमें एक शोषितो का नेता नजर आ रहा है। तो दूसरी ओर कुछेक लोग शंका की निगाह से भी देख रहे है। वे तर्क देते है कि जन समर्थन के लिए अंबेडकर का नाम लिया जा रहा है कन्हैया दबंग जाति से है उनका वास्तव में अंबेडकर से वास्ता नही है।
दरअसल विचार धारा किसी जाति या संप्रदाय की मोहताज नही होती जिस प्रकार ब्राम्हणवादी होने के लिए ब्राम्हण होना जरूरी नही है। उसी प्रकार अम्बेडकरवादी होने के लिए किसी जाति विशेष में जन्म लेना जरूरी नही है। यह तो तय है कि जो बीज रोहित वेमुला ने बोया है वह तमाम विश्वविद्यालय में कन्हैया के रूप में फल फूल रहा है। यह आंधी अब चल चुकी है इससे खतरा सिर्फ और सिर्फ ब्राम्हणवाद को है, जो अपने आपको बचाने के लिए हिन्दू राष्ट्रवाद, देशद्रोह जैसे हथियार का प्रयोग करेगा। जिसकी पोल जे एन यू की घटना से पहले ही खुल चुकी है। ब्राम्हणवाद की कोशिश रहेगी की अम्बेडकरवाद, फूलेवाद, कम्युनिष्ट जैसी प्रेगतिशील विचार धारा कभी एक नह हो पाये।