धर्मांधता पर प्रहार
हम तेजी से एक ऐसा समाज बनते जा रहे हैं, जिसमें मतभेदों को तर्क और बहस से नहीं बल्कि गोलियों से सुलझाया जाता है
मेरे मोबाइल में वाट्सएप में कुछ महीनों पूर्व एक संदेश आया, जिसका शीर्षक था, ”भारत में विज्ञान ने जनेऊ पहन लिया और चुटिया रख ली है’’। संदेश में उच्च शिक्षण संस्थानों में धर्म के बोलबाले को उजागर किया गया था। इस संदेश का एक पैराग्राफ मैं उदृत करना चाहूंगा:
”गीता के 18वें अध्याय में प्रभु ने चार वर्णो की स्थापना की है और हर वर्ण के कर्तव्य बताएं है। ऐसा एक आईआईटी की साईट पर दर्ज है। लिंक खोलिये और पढिय़े।’’ उसी तरह दिल्ली आईआईटी के मुख्य द्वार के पास से गुजऱते हुऐ शनि मंदिर में विद्यार्थियों की भीड़ को देखकर आप सोच में पड़ जायेगें। हाय रे, भारतीय विज्ञान।
इस संदेश का जिक्र मैं इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि यह दृश्य भारत के ऐसे उच्च शिक्षा संस्थान का है, जहां से निकले विधार्थी देश के सबसे अधिक प्रतिभाशाली व शिक्षित नागरिक माने जाते हैं। गौरतलब है कि इस संदेश में बताये लिंक (www.gitasupersite.iitk.ac.in/srimad) को जब मैने खोला तो पाया की संदेश में कही गई बातें बहुत हद तक सही हैं।
यह मुद्दा कितना गंभीर है इसका अंदाज़ा आप अंधविश्वास-विरोधी कार्यकर्ताओं की संघर्ष गाथाओं से कर सकते हैं, जिनमें से तीन को इस मुहिम में अपनी जानें तक गंवानी पड़ीं।
डॉं नरेन्द्र दाभोलकर (1 नवम्बर 1945 – 20 अगस्त 2013)
डॉं नरेन्द्र दाभोलकर ‘महाराष्ट्र अंधविश्वास निर्मूलन समिति’ के संस्थापक एवं अध्यक्ष और ‘साधना’ के संपादक थे। वे तर्कवादी मराठी लेखक थे। वे साहित्य के क्षेत्र में एक बड़ा नाम थे और महाराष्ट्र में नर बलि, जादू -टोना और काले जादू जैसी कुप्रथाओं के खिलाफ चलाए जा रहे आंदोलनों के अगुआ माने जाते थे। उनके इस प्रयास को कुछ ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ संगठनों का विरोध भी झेलना पड़ा था। पुणे में दिन-दहाड़े अज्ञात हमलावरों ने गोली मार कर उनकी हत्या कर दी।
डॉ नरेन्द्र दाभोलकर के प्रयासों के चलते जल्द ही महाराष्ट्र सरकार विधानसभा में जादू टोना निरोधक विधेयक लाने जा रही थी। दाभोलकर पिछले 16 साल से काले जादू के खिलाफ एक कड़े कानून की मांग कर रहे थे।
दाभोलकर के नेतृत्व में ‘अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति’ समाज की मानसिकता को बदलने एवं लोगों में वैज्ञानिक सोच विकसित करने के लिए काम कर रही थी।
इस त्रासदी का एकमात्र सुखद पहलू यह है कि उनकी शहादत के बाद महाराष्ट्र विधानसभा ने अंधविश्वास विरोधी विघेयक पारित कर दिया। 2014 में उन्हें मरणोपरांत पद्मश्री से सम्मानित किया गया। अब यह देखना बाकी है कि अन्य राज्य कब तक ऐसे कानून लागू करते हैं।
गोविंद पानसरे (26 नवंबर, 1933 – 20 फरवरी, 2015)
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के वरिष्ठतम सदस्यों में से एक गोविंद पानसरे अंधविश्वास के खिलाफ मुहिम चलते थे। पानसारे एक वैचारिक योद्धा थे और उन्होंने तकरीबन 21 किताबें लिखीं थीं। उनमें से सबसे ज्यादा चर्चित महाराष्ट्र के इतिहासपुरुष छत्रपति शिवाजी पर उनकी किताब ‘शिवाजी कौन होता?’ थी। इस पुस्तक में उन्होंने शिवाजी के बारे में सांप्रदायिक ताकतों द्वारा फैलाए गए झूठ का पर्दाफाश किया था। उनकी इस किताब की एक लाख से ज्यादा प्रतियाँ बिक चुकी हैं।
कोल्हापुर में अज्ञात हमलावरों ने पानसरे की हत्या कर दी। उनकी हत्या के बाद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा कि पानसारे की हत्या के लिए प्रतिक्रियावादी ताकतों सहित पूरी व्यवस्था जिम्मेदार है। वे महाराष्ट्र में सांप्रदायिकता के खिलाफ भी काम कर रहे थे। वे भी दाभोलकर की तरह महाराष्ट्र में जागरूकता पैदा कर रहे थे। दोनों की हत्या तथाकथित प्रगतिशील तबके के लिए चुनौती है।
एमएम कलबुर्गी (28 नवम्बर,1938 -30 अगस्त, 2015)
प्रख्यात चिंतक, हम्पी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति व अंधविश्वास तथा मूर्तिपूजा के खिलाफ मुहिम छेडऩे वाले एमएम कलबुर्गी 77 वर्ष के थे। वे एक प्रसिद्ध विद्वान और शोधकर्ता थे तथा धार्मिक-सामाजिक समानता के पक्षधर थे। वे अपनी बेबाक और स्पष्ट टिप्पणीयों के लिए कई बार विवादों में घिर चुके थे। उन्हें केंद्रीय और राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कारों से नवाज़ा गया था। कलबुर्गी की 30 अगस्त, 2015 की सुबह कर्नाटक के धारवाड़ स्थित उनके आवास पर कुछ अज्ञात बंदूकधारियों ने गोली मारकर हत्या कर दी। पुलिस के अनुसार, सुबह 8.40 बजे उन्हें गोली मारी गयी और अस्पताल ले जाने के दौरन उनकी मृत्यु हो गयी।
हम तेजी से एक ऐसा समाज बनते जा रहे हैं जिसमें मतभेदों को तर्क और बहस से नहीं बल्कि गोलियों से सुलझाया जाता है।
बजरंग दल ने कलबुर्गी की हत्या को सही ठहराया और यह धमकी दी कि धर्म के विरूद्ध बोलने वालों की इसी तरह हत्यायें होंगीं। हालांकि धमकी देने वाले को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया, लेकिन हत्यारे आज भी पुलिस की गिरफ़्त से बाहर हैं।
डॉं नरेन्द्र नायक
डॉं नरेन्द्र नायक मूल रूप से गोवा निवासी हैं लेकिन उन्होंने अपना अंधविश्वास-विरोधी अभियान कर्नाटक से प्रारंभ किया। वे मेडिकल कॉलेज के प्रोफेसर की नौकरी छोड़ कर अपना पूरा जीवन आमजनों को विज्ञान के सिद्धांतों से परिचित करवाने और अंधविश्वास के खतरों के प्रति आगाह करने में व्यतीत कर रहे है। वे डॉं नरेन्द्रा दाभोलकरकी विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। वे ‘भारतीय तर्कशील समाज’ के अध्यक्ष हैं। उन्होंने भारतीय टीवी चैनलों सहीत डिस्कवरी चैनल के लिए भी अंधविश्वास-विरोधी कार्यक्रम तैयार किये हैं। वे लगभग 16 भाषाएँ जानते हैं और विश्व भर में अपने कार्यक्रम करते हैं। उनकी जान को भी खतरा है। हाल ही में उन्होंने एक नये प्रकार के अंधविश्वास ‘मिड ब्रेन एक्टीवेशन’(तीसरे नेत्र को सक्रिय करना) का पर्दाफ़ाश किया है।
भंते बुद्ध प्रकाश
बिहार अल्पसंख्यक आयोग व साइंस फॉर सोसाइटी के पूर्व सदस्य, पटना निवासी भंते बुद्ध प्रकाश ने अंधविश्वास के खिलाफ पूरे देश में जंग छेड़ रखी है। वे पिछले कई वर्षो से देश के विभिन्न राज्यों में जागरूकता फैलाने का काम कर रहे हैं। उन्होंने इस अभियान को ‘अंधविश्वास भगाओ, देश बचाओ’ का नाम दिया है।
किसी भी क्षेत्र में डायन-बिसाही की घटना या अन्धविश्वास-जनित अपराध की सूचना मिलने पर भंते बुद्ध प्रकाश वहां पहुंचते हैं और लोगों को जागरूक करते हैं ताकि घटना की पुनरावृति नहीं हो। बुद्ध प्रकाश का मानना है कि ओझा, बैगा व भगत आदि ही सर्वप्रथम किसी औरत को डायन की संज्ञा देते है और अन्य लोग उन पर विश्वास कर लेते हैं। किसी की मौत बीमारी या दुर्घटना से हो सकती है, भूत-प्रेत व डायन से नहीं। वे कहते हैं कि अंधविश्वास पीढ़ी दर पीढ़ी समाज में जड़ जमाए हुए है। व्यापक पैमाने पर जागरूकता अभियान चलाकर ही इसे समाप्त किया जा सकता है। लोगों में वैज्ञानिक सोच को विकसित करना होगा।
यह त्रासद और विडम्बनापूर्ण है कि भारत में लोकतंत्र होने के बावजूद वैज्ञानिक सोच के समर्थकों को इस तरह का संघर्ष करना पड़ रहा है। दरअसलए तलवार उन सब लेखको-पत्रकारों-वैज्ञानिको पर लटक रही है, जो धर्म के आगे घुटने नही टेकते, जो सच्चाई का दामन थामे हुये है और आम लोगो को आगाह कर रहे हैं। वरिष्ठ लेखक उदय प्रकाश ने कुलबर्गी की हत्या के विरोध में साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया है। ये सारे लेखक- आंबेडकरवादी, सत्यसशोधक, तर्कशील-अपने कदम पीछे खींचने के लिए तैयार नही हैं, क्योकि वे जानते है कि वे अंधविश्वास के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़ रहे हैं। 17वी शताब्दी में ऐसी ही लड़ाई यूरोप में लड़ी गई थी। इसके बाद वहां के लोग विज्ञान और धर्म के बीच फर्क करना सीख गये। इसके बाद यूरोप में एक नए युग की शुरुआत हुई, अविष्कारों और खोजों के युग की, ऐसे युग की, जिसने ज्ञान को नए आयाम दिए।
फारवर्ड प्रेस के अक्टूबर, 2015 अंक में प्रकाशित
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