गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

मीडिया पर हमला- जिम्मेदार कौन ?

मीडिया पर हमला- जिम्मेदार कौन ?

·         संजीव खुदशाह

विगत दिनों बम्बई और दिल्ली में हुए मीडिया पर हमले पर इलेक्ट्रानिक चैनेलों ने लम्बे चैङे कार्यक्रम पेश किया। जिसमें वे जनता को कोसते दिखाई पङे। ये वही मीडिया है जो जनता की बलईयां लेती नही अघाती। जिन्होने अपने आपको आमजनता के हिमायती के रूप में पेश किया। और कई बार  आम लोगों कि मुस्किलों से सरकार को अवगत कराने में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई। ये समझना कठिन है कि अपने आपको लोकतंत्र का चैथा स्तंभ बताने वाली मीडिया इतनी लाचार क्यों हो गई। लाचारी भी इस कदर कि अपने ही दर्शकों को ही नीचा दिखाने की नाकाम कोशिश।

वैसे मीडिया पर हमले कोई नई बात नही न ही ऐसे सामाचार ब्रेकिंग न्यूज श्रेणी में रखे जाने चाहिऐ। पहले भी प्रेस पर हमले हुए है। लेकिन जिस तरह पिछले दो सालों में मीडिया पर हमले की संख्या बढी है। मीडिया के मुआमले में गहराई से विचार करने कि आवश्यकता है। आईय हम आज की मीडिया पर हो रहे हमले के परिप्रेक्ष्य में मीडिया की भूमिका पर विचार करें।

मुझे लगता है कि प्रेस या मीडिया आज के जागरूक भारतीय जनता के हिसाब से विकसित नही हो पाया है। ज्यादातर सम्पादक या रिर्पोटर जनता को क्लास रूम का स्टुडेंट समझ कर खबरें तैयार करते है। ये खबरे 1950 कि मानसिकता में तैयार किये जाते है जब छपे हुए किसी भी टैक्स्ट को अकाट्य एवं अंतिम सत्य माना जाता था। लेकिन अब विभिन्न माध्यमों के मार्फत जागरूक जनता सही और गलत का फर्क समझने लगी है। लेकिन मीडिया है कि वो परोसने में ही लगी है जिससे जनता उब चुकी है। जिस तरिके से असम मुद्दे पर बम्बई में मीडिया पर हमले हुए एवं उसके बाद जो बात सामने आई चैकाने वाली थी कि मीडिया ने एक पक्ष को ही सामने रखा एवं उसी की वकालत भी कि एवं दुसरा पीडि.त पक्ष आहत होता रहा। जब सरकार भी बात न समझे, मीडिया भी आपकी बात पहुचाने में नाकाम रहे तो जनता के पास विकल्प ही क्या रह जाता है? यहां पर मीडिया पर हमला किसी भी दृष्टिकोण से सराहनीय नही है। लेकिन मीडिया ने जिस तरह से इस हमले को व्यक्तिगत हमले के रूप में देखा एवं ताबड़तोड़ कार्यक्रम चलाए, बजाए इसके की समस्या के मर्म को समझा जाए। एक दुखद पहलू है।

यहां पर मीडिया का बढ़ता अहम जनता को रईयत (गुलाम प्रजा) की तरह ट्रीट करता है, जो एक खतरनाक परिणाम की ओर इशारा करता है। मीडिया की विशवसनियता की आज कही कोई चर्चा नही हो रही है। लेकिन भारत की जागरूक जनता मीडिया के चरित्र से भली भाति परिचित है। फलां न्यूज पेपर, फलां चैनल फलां पार्टी का पक्ष लेता है। पिछले दिनों तमाम राज्य सरकारों द्वारा सामाचार विज्ञापन के नाम पर मीडिया को बड़े रकम की फंडीग किये जाने के खुलासे हुए है। राडिया प्रभु चावला भ्रष्टाचार काण्ड अभी तक लोगों की जहन मे है। यानी जिस प्रेस-मीडिया पर जनता भरोसा करती थी उसके खुलासे, विशवसनियता खत्म करते है। हलांकि चैनलों ने शुतुमुर्ग कि तरह अपनी ओर से इसे लगभग भुला दिया और इन आरोपो में फसे लोगो की कोई खबर तक नही ली। ताकि इन्हे निष्चित सजा मिल पाये। यानि मीडिया कुटुम्ब ने उन्हे साबुत बचा लिया। यहां ये बात तो तय है कि मीडिया शब्द पब्लिक को बेवकूफ बनाने के लिए प्रयोग किये जाते, वास्तव में मीडिया एक घराने कि तरह चलती है किसी के सरोकार से किसी को कोई लेना देना नही। कौन सी सामग्री लेनी है? कंटेन्ट क्या होगा? लेखक या प्रस्तोता कौन होगा? सब कुछ तय होता है। सच्चाई से कोई लेना देना नही। रोचक तथ्य है कि किस प्रकार मीडिया ने राडिया काण्ड से उबरने के लिए भ्रष्टाचार को नेशनल ईशु बनाकर अपनी साख बचाने की चेष्टा की।  मीडिया ने भ्रष्टाचार को अन्ना या जनता के लिए नही उठाया बल्कि अपने खुद के लिए उठाया ताकि अपनी छबी सुधार सके।

दिल्ली एम्स की चंद मेडिकल सीटों की खातीर हुए धरने को मीडिया ने जिस तरिके से पूरे देश में हो रही आरक्षण विरोधी लहर के रूप में दिखाया, बेहद शर्मनाक है। ये मीडिया का सामंतवादी चेहरा है जो छद्म प्रगतिषीलता का मुखौटे को बेनकाब करती है।

मै यहां समाचार के भुखे उन रिपोर्टरों की चर्चा करना लाजमी समझता हू जो डी आई जी के कुत्ते की गुम हो जाने की खबर को नेशनल ब्रेकिंग न्यूज बनाते है। वे किस तरह से आधी अधूरी जानकारी लेकर रिर्पोट पेश करते, गलत रिजल्ट निकालकर दर्शकों को गुमराह करते। ये कानूनन जुर्म तो है साथ ही मानवता के भी खिलाफ है। इससे कईयों की जिन्दगी खराब हो गई। इस मुआमले में कई चैनलों को कोर्ट ने फटकार भी लगाई लेकिन दुम टेढा का टेढा। इसलिए अब न्यूज नही मिलता ब्रेकिंग न्यूज के सिवाय।

निकम्मा मीडिया प्रेस की बैठे ठाले सामाचार की चाहत प्रेस को कमजोर बनाती है। मै आपकों बताता हू भारतीय मीडिया के न्यूज का स्त्रोत क्या है?

(1) शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के मुख पत्र सामना का संपादकिय

(2) 10 जनपथ नई दिल्ली

(3) दिगविजय सिंह के कमेंन्टस

(4) अभिनेताओं के टूवीटर एकाउन्टस

(5) एल के आडवानी का ब्लाग

(6) नेताओं एवं अफसरों के अवैध संबंध पर आधारित सामाचार

(7) पेट्रोल का दाम बढना एवं घटना

ये फेहरीस्त लम्बी हो सकती है लेकिन ये भारतीय मीडिया के न्यूज का मुख्य स्त्रोत है अब मै आपको बताता हूं कि इन ब्रेकिगं न्यूज के हावी रहने से कया होता है? इन जरूरी सामाचारों का गला घोट दिया जाता उस पर भी जुमला ये कि हम लोकतंत्र के चैथे स्तभ है।

(1) भारत में बढ़ रहे जातिगत प्रताड़ना की घटनाएं एवं मुद्दे।

(2) महिलाओं पर हो रहे अत्याचार।

(3) आमलोगों के सामाचार जिन्होने मिसाल कायम किये है।

(4) जनता के हित के मुद्दे।

(5) ज्ञान विज्ञान अविष्कार की नई जानकारी।

(6) अंध विश्वास विरोधी कार्यक्रम

(7) धर्म निरपेक्षता के कार्यक्रम

मीडिया के दो चेहरे जैसा कि मैने पहले कहा है मीडिया सिर्फ मीडिया नही बल्कि ये किसी  घराने का व्यापार कि तरह रोल करते है। यानी यदि किसी घराने में एक भाई अंधविश्वास की दुकान चलाता है तो उस घराने की मीडिया उसे एक चमत्कार के रूप में पेश करती। यदि जनता सबसे ज्यादा त्रस्त है तो उसके दो चेहरे से। एक ओर राशिफल, भविष्यफल पर जनता को गुमराह करने के प्रोग्राम चलाये जाते है तो दुसरी ओर अमेरिका के नासा कि खबर चलाई जाती। मीडिया ने ठगी को अघोषित रूप से दो भागों में बांट रखा है एक  शास्त्रीय ठगी दुसरा अशास्त्रीय ठगी। भारतीय मीडिया यहां पर चतुर सियार कि तरह शास्त्रीय ठगी को वैज्ञानिकता की चास्नी में पेश करता है तो दूसरी ओर प्रगतिशील दिखने की गरज से अशास्त्रीय ठगी को धिक्कारते भी दिखाई पड़ती है। निर्मल बाबा को इसी मुहीम के तहत दुकान बंद करने को विवश किया गया। एवं बांकि ठगों को बचा लिया गया।

यहां पर मै आपको ये भी बताना चाहूंगा कि धार्मिक पूर्वाग्रह से भी ये तंत्र पुरी तरह ग्रस्त हैं असम काण्ड इसी का परिणाम है। आज से 10 साल पहले म.प्र. के एक राष्ट्रिय न्यूज पेपर ने धार्मिक पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर मुसलमान धर्म के प्रर्वतक मुहम्मद साहेब को हिन्दु धर्म की एक शाखा का मानने वाला बताते हुए लगातार तीन लेख प्रकाशित किये। जो जानबूझ कर किसी धर्म विशेष को बौना दिखाने के इरादे से किया गया था। इससे प्रेस कार्यलयों में तोड़फोड़ हुई, इसके बाद उस न्यूज पेपर ने इन्हे दंगाईयों के तौर पर प्रचारित करने अभियान चलाया। ऐसी स्थिति में कोई अल्प संख्यक, मीडिया कि निष्पक्षता पर क्यो विश्वास करेगा? इसी प्रकार के कई सामाचार अल्पसंख्यक धर्मावलियों के प्ररिप्रेक्ष्य में आते रहते है।

पैसे के लिए सब कुछ करेगा-रात दिन भ्रष्टचार पर हाय तौबा करने वाली मीडिया अब अपने दामन को भ्रष्टाचार के दाग से बचाए रखने कि जुगत में है। आज विज्ञापन के नाम पर तेल, कंठीमाला, लिंग वर्धक यंत्र, धनवर्षा यंत्र, सेक्स वृध्दि यंत्र को आर्युवेद एवं संस्कृति के नाम पर परोसा जा रहा है। यहां पर चैनल अपनी आर्थिक मजबूरी का हवाला देते दिखाई पङते है। भले हि वे विज्ञापन एवं वास्तविक कार्यक्रम में फर्क बताने कि जिम्मेवारी से बचते हो। आम शिक्षित अज्ञानी लोग विज्ञापन से प्रभावित होकर ठगी के शिकार हो जाते है।

इसी प्रकार कई बार रिर्पोटरों द्वारा सामाचार पेश करने के लिए पैसे लेते रंगे हाथों दिखाया। सतना के चुनावी सम्मेलन में मीडिया को लिफाफे देने का दृष्य चैनलों में दिखाया गया। राजनीतिक पार्टियां एवं सरकारे किस प्रकार मीडिया को चुनाव के समय अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए प्रयोग करती है ये बात किसी से छिपी नही है और चतुर रिर्पोटर इस काम के लिए आतुर रहते है। आज पेड न्यूजएक विकट समस्या बनकर सामने आई है। कोर्ट ने भी पेड न्यूजके अस्तित्व को स्वीकार किया है एवं उसके निदान हेतु चिन्तीत है। राजनीतिक पार्टियों, व्यवसायिक घरानों, फिल्म उद्योग, क्रिकेट खिलाड़ियों द्वारा पेड न्यूज का धड़ल्ले से प्रयोग किया जा रहा है। इसी प्रकार एक खिलाड़ी द्वारा दो सालों से भारत रत्न प्राप्त करने हेतु पेड न्यूज चलवाने कि खबर सुर्खियों में है। इससे अंदाज लगाया जा सकता है। कि हमारे स्वयंभू चौथे खम्भे में कितनी दिमक लग गई है। उस पर भी जुमला ये कि लोग मीडिया पर हमला कर रहे है। अब हमे ये सोचना होगा अपने अंदर पल रहे मीडिया अहं से बाहर निकल कर क्या हम भारतीय समाज के प्रति इमानदार है। यदि नही तो मीडिया में रहने का या उसे चलाने के बजाय व्यवसाय का दूसरा विकल्प चुनना चाहिए।


पता इस प्रकार है:-

संजीव खुदशाह
एम-II/156 फेस-1
संत थामस स्कूल के पास
कबीर नगररायपुर (छग)
पिन-492099
09977082331
sanjeevkhudshah@gmail.com

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

How look like this Material, We are waiting for your feedback.
ये सामग्री आपको कैसी लगी अपनी राय अवश्य देवे, धन्यवाद