शनिवार, 1 अप्रैल 2017

तेज सिंह एक प्रखर आलोचक थे

तेज सिंह एक प्रखर आलोचक थे
संजीव खुदशाह
प्रसिध्‍द अम्‍बेडकरवादी पत्रिका अपेक्षाके सम्‍पादक के रूप में तेज सिंह की पहचान पूरे भारत मे थी और अभी भी है। एक सरल सादे कलेवर में निरंतर प्रकाशित होने वाली पत्रिका का सभी लेखकों पाठकों को बेसब्री से इंतजार रहता था। तेज सिंह इसके अपने लंबे सम्‍पादकीय के लिए भी जाने जाते थे। सम्‍पादकीय अक्‍सर समसामयीक होती थी।
तेज सिंह के हिन्‍दी दलित साहित्‍य में मै एक विशेष स्थान पर देखता हॅू। इसलिए क्‍योंकि वे एक न्‍याय पसंद बेबाक टिप्‍पणी कार थे, स्‍वस्‍थ आलोचक थे। जब छोटे मोटे मौकापरस्‍त साहित्‍यकार, किसी बडे साहित्‍यकारों के आभा मण्‍डल की गिरफ़्त में आकर अंध प्रशंसा में लिप्‍त रहते , ऐसे समय में तेज सिंह अकेले खड़े रहकर स्‍वस्‍थ आलोचक की भांती सही और गलत को डंके की चोट पर कहते थे।
अक्‍सर इस कारण वे स्‍वयं आलोचना के शिकार हो जाते, पत्रिका भी  आलोचना के केन्‍द्र में आ जाती क्‍योकि गैंगबाजी का शिकार बीच-बीच में साहित्‍यकार भी होते रहे है। मेरी तेज सिंह से दो तीन बार मुलाकात हुई जब भी मुलाकात हुई  हाल चाल और यहां वहां की बाते करते। अपने आपकों धीर गंभीर या हमेशा अम्‍बेडकर साहित्‍य चिंतन में खोये रहते बताने की कोशिश नही करते। अपनी पत्रिका की तरह सरल दिखाई पडते । वे बेशक आज हमारे बीच नही है लेकिन उनकी पत्रिका उनका साहित्‍य आज उनकी उपस्थिति का एहसास कराता है।
वे जब भी पत्रिका मुझे भेजते उसमें लिखा होता रचनांए भेजे साथ में यह भी लिखा होता इस वर्ष का चंदा भी भेजे। अच्‍छा लगता है यह जानकर की व्‍यक्ति स्‍पष्‍ट वादी है संकोच में अपने उपर कोई भार नही लेता, आज के महगांई जैसे युग में पत्रिका का संचालन करना सचमुच एक कठिन कार्य है वह भी बिना किसी विज्ञापन के। वैसे भी अम्‍बेडकर वादी पत्रिका को विज्ञापन देगा भी कौन?आज देश में सैंकड़ो दलित पत्रिकाएँ खुद के दम पर निकल रही है। यदि कुछेक पत्रिकाओं को छोड दे तो । मै भी याद से हर जनवरी उन्‍हे एम ओ से सदस्‍यता राशि भेज देता था। क्‍योकि पत्रिका देर सवेर मिल  ही जाती थी। और पत्रिका से साहित्‍यीक दुनिया खास कर दलित साहित्‍य की दुनिया में होने वाला हलचल का पता चल जाता था। उस समय मेरे पुराने बिलासपुर के पते पर लगभग 10 से 15 पत्रिकाएँ आती थी। लेकिन पता बदलने के कारण, एवं नया पता जो की रायपुर का है, सभी को भेजने के बाद भी ज्‍यादातर पत्रिकाएँ पुराने पते पर ही पहुँचती और मुझ तक आने में देर हो जाती।
मुझे अपेक्षा का आख़िरी अंक संख्‍या 46-47 जनवरी जून 2014 को मिला सरसरी नजर में देखा अंक अच्‍छा है। यह सोचकर की पत्रिका फूर्रसत में पढूंगा मैने दराज़ में रख लिया। फिर उनका लिखा हुआ संपादकीय पढा जो दिवंगत ओमप्रकाश वाल्‍मीकि पर केन्द्रित था। मन हुआ की तेज सिंह से फोन पर बात करूं की आपने एक अच्‍छा विश्लेषण पेश किया है बिना उनके आभा मंडल में आये। लेकिन कुछ दिन बाद खबर आई की वे नही रहे। दिनांक   15 जुलाई 2014 को उनका देहांत हो गया।
तब से मुझे लगता था की उनके उपर कुछ लिखा जाना चाहिए इसी बीच रजनी अनुरागी का फोन आया और उन्‍होने बताया की मगहर उन पर एक विशेषांक निकाल रही है। आप उन पर लिखे तो अच्‍छा रहेगा। मैने व्‍यस्‍तता के बावजूद उन्‍हे रचना भेजने का आश्‍वासन दे दिया। मै इस बात का जिक्र इस लिये कर रहा हूँ की एक ओर एड भगवान दास के जाने के बाद मौत ने दलित साहित्‍यकारों के घर का मानो रास्‍ता देख लिया हो और प्रो तुलसी राम तक लगातार दलित साहित्‍यकारों के दिवंगत हाने की दुखद ख़बरे आती रही। लगभग सभी साहित्‍यकारों पर विभिन्‍न पत्रिकाओं में विशेषांक देखने को मिला लेकिन तेज सिंह कहीं छूट जा रहे थे। मगहर ने ये कमी पूरी कर दी।
तेज सिंह अपेक्षा के इस संपादकीय में लिखते है कई बार हम लेखक को उसके व्‍यक्तित्‍व से भी जान जाते है  और कई बार उसके रचनात्‍मक लेखन से भी। लेकिन हमें यह भी ध्‍यान में रखना चाहिए कि लेखक के रचनात्‍मक लेखन में सब कुछ सच नही होता है। उसमें सच के साथ झूठ भी मिला होता है। इसलिए रचनात्‍मक लेखन सच और झूठ का मिला जुला रूप होता है। साहित्यिक भाषा में कहूँ तो वह कल्‍पना और यथार्थ का मिला जुला रूप है। यह अलग बात है कि उसमें सच कितना है और झूठ कितना , यह लेखक की रचनात्‍मक क्षमता पर निर्भर करता है कि वह सामाजिक यथार्थ के सृजन में कल्‍पना का कितना सहारा लेता है। इसलिए मेरी दृष्टि में सृजनात्‍मक लेखन के लिए तीन चीजों का होना लाज़िमी होता है- अनुभूति, कल्‍पना और विचार। इन तीनों सृजनात्‍मक शक्तियों के बिना सृजनात्‍मक लेखन संभव नही है।
ये वाक्‍य तेज सिंह की रचना प्रक्रिया में गहरी पैठ को दर्शाता है, भले ही वे किसी दूसरे संदर्भ में ये बाते कह रहे है हो लेकिन उनके उपर भी यह शत प्रतिशत सही बैठता है। ऐसा माना जाता रहा है  कि ओमप्रकाश वाल्मीकि हिन्‍दी दलित साहित्‍य के डॉन थे, किसे बनाना है किसे बर्बाद करना है वे तय करते थे। इसलिये उनके जीते जी उनसे लोग खौफजदा रहते थे। चंद ही ऐसे लेखक थे जो किसी की परवाह बगैर अपनी बात डंके की चोट पर कहते थे उनमें से एक थे तेज सिंह।
जब अपने आपको पक्‍का अम्‍बेडकरवादी, बौद्धिष्‍ठ  बताने वाले दलित साहित्‍यकार, ओमप्रकाश वाल्‍मीकि को अपनी भक्ति प्रदर्शित कर रहे थे। ऐसे वक्‍त तेज सिंह तथ्‍यों साथ अपने बात रख रहे थे। भले ही ओमप्रकाश वाल्‍मीकि बार बार यही दोहराते रहे कि मेरा मानना है कि किसी प्रकार का जातिवाद डॉं अंबेडकर दर्शन और संघर्ष के विरूध्‍द है। व्‍यक्ति स्‍वयं को अंबेडकरवादी कहता है तो उसे जातीय अहम छोड़ना होगा, जातिवादी सोच एवं मान्‍यताओं के खिलाफ खड़ा होना होगा। लेकिन वाल्‍मीकि ने की भी  अपने आपको अंबेडकरवादी नही माना। अंत तक आते आते अपने आपको दलितवादी मानने लगे थे। पृष्‍ठ 9
वे आगे बयान पत्रिका के हवाले से लिखते है कि ‘’ उसकी मृत्‍यु के बाद यही हुआ भी। उनकी तेरह वी पर आर आर एस और भाजपा के कार्यकर्ताओं ने मंत्र, शंखनाद और यज्ञ के साथ हवन किया और उस हवन कुंड में अग्नि‍ प्रज्‍ज्‍वलित करके पूर्ण आहुति दी गई। यह सब अपने आप या जबरदस्‍ती नहीं किया गया होगा बल्कि उनके परिवार की इच्‍छा के अनुसार किया गया होगा। एसा कर्मकांड उसी स्थिति में ही संभव हो सकता है जिसकी विचारधारा से लेखक व्‍यक्तिगत संबंध रहा होता है। वाल्‍मीकि भाजपा या आर एस एस से अपने राजनीतिक संबंधों को जीवन भर छुपाते रहे, लेकिन उनकी मृ‍त्‍यु के बाद हुए कर्मकांड ने जाहिर कर दिया। ’’ पृष्‍ठ 13
यह बाते भीतर तक आहत कर देने वाली है, संदेह इस बात पर जाता है क्‍या यही कारण थे की सवर्ण लेखक उन्‍हे हाथो हाथ लिया करते थे। कहीं ये एक षडयंत्र का हिस्‍सा तो नही। जबकि उसी वाल्‍मीकि समाज के प्रसिध्‍द लेखक एड भगवान दास थे उन पर ऐसा लांछन कभी नही लगा।

बहरहाल एक प्रश्‍न हमेशा मूह बांये खडा रहा है की क्‍या लेखक अपनी रचना प्रक्रिया के साथ जीता है या नही। क्‍या उसके सिद्धांत दिखावे के लिए और, अमल के लिए और होते है। या वह कोई और मुखौटा लगा कर रचना करता है और दूसरा मुखौटा लगा कर जीवन जीता है। अम्‍बेडकरी साहित्‍य  आंदोलन या जिसे दलित साहित्‍य भी कह सकते है में  ऐक समय ऐसा भी आया  जब रामदास आठवाले, उदित राज जैसे लोगों ने अपना नक़ाब हटाया और सिद्धांत को लात मारकर पद प्रतिष्‍ठा अपनाया। तब लोगों ने अपने आप को छला हुआ महसूस किया। दो मुखौटे का आरोप प्रगतिशील लेखकों सहित कम्‍युनिष्‍ट लेखकों पर भी लगे। उनका पर्दाफ़ाश भी होता रहा। कम्‍युनिष्‍ट आंदोलन शायद इन्‍ही मौकापरस्‍तों सिद्धांत वादियों के कारण अंतिम सांसे गिन रहा है । ऐसे दो मुखौटे वाले रचना कारों का निरंतर पर्दा फास होना भी चाहिए। लेकिन ऐसे मुखौटों की दुनिया में बहुत ऐसे भी रचना कार है जिनकी  लेखनी और करनी में फर्क नही है। शायद आज ऐसे रचना कारो की बदौलत ही अंबेडकरी आंदोलन जिन्‍दा है और फल फूल रहा है। वरना नाम, दाम और इनाम के लालच में सिंद्धात को किताबों में दफन करने वाले छद्म रचना कार भी कम नही है।  निस्संदेह तेज सिंह एक ऐसे ही सच्‍चे रचना कार थे। जिनकी लेखनी और करनी में अंतर नही था। ऐसे रचना कार तेज सिंह को मेरा क्रांतिकारी सलाम।

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