आंबेडकर जयंती पर विशेष
डॉ आंबेडकर और उनका वैज्ञानिक
चिंतन
संजीव खुदशाह
अक्सर डॉ आंबेडकर को केवल दलितों का नेता कहकर संबोधित किया जाता है।
ऐसा संबोधित किया जाना दरअसल उनके साथ ज्यादती किया जाने जैसा है। ऐसा कहते समय हम भूल जाते हैं कि
उन्होंने भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना की थी। हम भूल जाते हैं कि उन्होंने हीराकुंड जैसा विशाल बांध का निर्माण समेत दामोदर घाटी परियोजना और सोन नदी परियोजना जैसे 8 बड़े बांधो को स्थापित करने मे महत्वपूर्ण कदम उठाया। हम भूल जाते
हैं कि उन्होंने संविधान की समानता मूलक धर्मनिरपेक्ष आत्मा को रचने में अपना महत्वपूर्ण
योगदान दिया। हम यह भी भूल जाते हैं कि उन्होंने लोकतंत्र को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए स्वतंत्र चुनाव
आयोग का गठन करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। हम उन्हें केवल दलितों का नेता कहकर
उनके योगदानों पर पानी फेर देते
हैं।
यदि विचार के दृष्टिकोण से देखें तो
उनका सबसे बड़ा योगदान यह रहा है उनका वैज्ञानिक चिंतन। उन्होंने एक वैज्ञानिक
दृष्टिकोण दिया एक ऐसा दृष्टिकोण जो अंधविश्वास और पाखंड से परे
हो। उन्होंने सबसे पहले जाति उन्मूलन की बात रखी और बकायदा उसका एक खाका तैयार किया जिसे हम जाति उन्मूलन किताब के नाम से
जानते हैं। उन्होंने अर्थशास्त्र पर कई महत्वपूर्ण किताबे लिखी जिनमें से एक प्रसिद्धि किताब को प्रॉब्लम ऑफ रूपी के नाम से जाना जाता है।
आजादी के पहले महात्मा
गांधी जब एक ओर नमक (स्वाद) के लिए लड़ाई कर रहे थे वहीं दूसरी और डॉक्टर अंबेडकर
वंचित जातियों के लिए पीने के पानी की लड़ाई लड़ रहे थे। वहीं दूसरी ओर जब
छोटी-छोटी रियासतें अपनी हुकूमत बचाने के लिए अंग्रेजों से संघर्ष कर रही थी। तो
डॉक्टर अंबेडकर इन रियासतों ऊंची जातियों से पिछड़ी जातियों के जानवर से
बदतर बर्ताव, शोषण से मुक्ति की बात कर रहे थे। महात्मा फुले के बाद वे ही ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पूरे
विश्व पटल में जातिगत शोषण
का मुद्दा बड़ी ही मजबूती के साथ पेश किया। दरअसल दलित और पिछड़ी वंचित जातियों
का मुद्दा विश्व पटल पर तब गुंजा जब उन्होंने गोलमेज सम्मेलन के दौरान जातिगत, आर्थिक और राजनीतिक शोषण होने की बात रखी। बाद में इन
मुद्दों को साइमन कमीशन में जगह मिली। पहली बार दबे कुचले वंचित
जातियों को अधिकार देने की बात हुई।
उन्होंने देखा कि भारतीय महिलाओं को एक
दलित से भी नीचे दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाता था। चाहे वो कितनी भी ऊंची
जाति से ताल्लुक रखती हो। उन्हें ना तो अपने नाम पर संपत्ति रखने का अधिकार था ना
ही पुरुष के समान उठने-बैठने, पढ़ने का। सामाजिक या
सार्वजनिक तौर पर उनकी बातें नहीं सुनी जाती थी। डॉ अंबेडकर ने महिलाओं के लिए
शिक्षा नौकरी पिता की संपत्ति में भाइयों के समान अधिकार तथा मातृत्व अवकाश के द्वार खोलें। खासतौर पर हिंदू कोड बिल में
उन्होंने महिला और पुरुष को एक समान अधिकार दिए जाने की पुरजोर कोशिश की। बहुपत्नी प्रथा को गैरकानूनी बनाया।
यहां पर उनकी उपलब्धि को गिनाना मकसद नही है। मकसद है उनकी आधुनिक भारत में
प्रासंगिकता पर गौर करना। उन्होने जो राय, अखण्ड
भारत के संबंध में रखी थी वह बेहतद महत्वपूर्ण है। वे कहते है की आज का विशाल अखण्ड
भारत धर्मनिरपेक्षता समानता की बुनियाद
पर खड़ा है, इसकी अखण्डता को बचाये रखने के लिए जरूरी है की इसकी बुनियाद को मजबूत रखा
जाय। वे राजनीतिक लोकतंत्र के लिए सामाजिक लोकतंत्र महत्वपूर्ण और जरूरी मानते
थे। भारत में जिस प्रकार गैरबराबरी है उससे लगता है कि समाजिक
लोकतंत्र आने में अभी और समय की जरूरत है। संविधान सभा के समापन भाषण में वे कहते
है। ‘’तीसरी चीज जो हमें करनी चाहिए, वह है कि मात्र राजनीतिक प्रजातंत्र पर संतोष न करना।
हमें हमारे राजनीतिक प्रजातंत्र को एक सामाजिक प्रजातंत्र भी बनाना चाहिए। जब तक
उसे सामाजिक प्रजातंत्र का आधार न मिले, राजनीतिक प्रजातंत्र चल नहीं सकता।
सामाजिक प्रजातंत्र का अर्थ क्या है? वह एक ऐसी जीवन-पद्धति है जो
स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में
स्वीकार करती है।"
उनके अनुसार धर्मनिरपेक्षता का मतलब यह है कि राजनीति से
धर्म पूरी तरह अलग होना चाहिए। राजनीति और धर्म के घाल मेल से भारत की अखण्डता को खतरा हो सकता है। वे भारत में नायक वाद को भी एक खतरा बताते है संविधान सभा के समापन भाषण में कहते है कि
दूसरी चीज जो हमें करनी चाहिए, वह है जॉन स्टुअर्ट मिल की उस चेतावनी को ध्यान में
रखना, जो उन्होंने उन लोगों को दी है, जिन्हें प्रजातंत्र को बनाए रखने में दिलचस्पी है, अर्थात् ''अपनी स्वतंत्रता को एक महानायक के चरणों में भी
समर्पित न करें या उस पर विश्वास करके उसे इतनी शक्तियां प्रदान न कर दें
कि वह संस्थाओं को नष्ट करने में समर्थ हो जाए।''
उन महान व्यक्तियों के प्रति कृतज्ञता
व्यक्त करने में कुछ गलत नहीं है, जिन्होंने जीवनर्पयत देश की सेवा की हो। परंतु
कृतज्ञता की भी कुछ सीमाएं हैं। जैसा कि आयरिश देशभक्त डेनियल ओ कॉमेल ने खूब कहा है, ''कोई पुरूष अपने सम्मान की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता, कोई महिला अपने सतीत्व की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकती और कोई राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता की कीमत
पर कृतज्ञ नहीं हो सकता।'' यह सावधानी किसी अन्य देश के मुकाबले भारत के मामले में अधिक
आवश्यक है, क्योंकि भारत में भक्ति या नायक-पूजा उसकी राजनीति
में जो भूमिका अदा करती है, उस भूमिका के परिणाम के मामले में
दुनिया का कोई देश भारत की बराबरी नहीं कर सकता। धर्म के क्षेत्र में भक्ति आत्मा
की मुक्ति का मार्ग हो सकता है, परंतु राजनीति में भक्ति या नायक पूजा
पतन और अंतत: तानाशाही का सीधा रास्ता है।‘’
जाहिर है डॉं अंबेडकर की चिंता केवल समुदाय विशेष के लिए नही है वे
देश को प्रबुध्द एवं अखण्ड देखना चाहते है। उनका यह प्रयास संविधान तथा उनके विचारो से स्पष्ट होता है। आशा ही नही पूर्ण विश्वास है कि
देश उनके वैज्ञानिक चिंतन से सीख लेता रहेगा और तरक्की करता रहेगा।
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