संजीव खुदशाह
विगत तीन फरवरी को राष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली में पत्नी प्रताडि़त पुरुष संघ की बैठक रखी गयी तत्पश्चात् राज्यस्तर पर इसके गठन की प्रक्रिया तेज़ होने लगी। कुछ सामाजिक संगठनों एवं ऐसे लोगों के लिए जो इस दौर से नहीं गुजरे हैं, इस संघ के औचित्य को स्वीकार कर पाना कठिन है। क्योंकि, प्रताडि़त...? वह भी पुरूष, यह बात हजम करने लायक नही लगती। बावजूद इसके, नये परिवेश में इस प्रकार के संघ के औचित्य पर प्रश्नचिन्ह लगना लाजमी है। यह बात सही है कि मध्यकाल में स्त्रियां, पुरुषों द्वारा बेहद प्रताडि़त की गई थीं। चूंकि इन प्रताड़नाओं में वेष्यावृत्ती, गुलामवाद, जातिवाद एवं अछूतवाद भी शामिल था, इसलिए इन प्रताडि़त स्त्रियों की संख्या में पतियों व्दारा प्रताडि़त पत्नियों का प्रतिशत कम था। स्त्रियां नौकरानी के रूप में; दलित स्त्रियों के रूप में; विधवा के रूप में; परित्यक्ता के रूप में प्रताडि.त होती थी। बाद में अंग्रेजों के शासनकाल में राजा राममोहन राय के नेतृत्व में सती प्रथा उनमूलन की शुरूआत से स्त्रियों को कानूनी अधिकार एवं संरक्षण मिलते गये। जब भारत में आई.पी.सी. का निर्माण हुआ तो इसमें विवाह एवं दाम्पत्य से सम्बंधित कानूनों में ब्रिटिष कानून की स्पष्ट छाप आ गई। दोनों की सभ्यताओं में मूलभूत अंतर होने के बावजूद चूंकि हम गुलाम थे सो हमने उनकी प्रत्येक कार्रवाई को शिरोर्धाय किया। शायद ये हमारी मजबूरी ही थी, कि हमने आजादी के बाद भी इनमें स्थानीयता के आधार पर संशोधन की आवश्यकता नहीं समझी। बावजूद इसके, इन कानूनों के ही कारण हम समाज में समानता ला पाये हैं। आज राह चलते किसी महिला को छेड़ने से पहले एक पुरुष को सौ-सौ बार सोचता पड़ता है। बलात्कार, दहेज प्रथा एवं यौनशोषण के विरुद्ध बने इन कानूनों का निश्चित रूप से समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा।
वहीं दूसरी ओर इन कानूनों का दूसरा पहलू यह भी है, कि इनका बड़ी सरलता से दुरूपयोग किया जा सकता हैं। जैसे 'दहेज निवारण अधिनियम' की धारा 498ए का प्रयोग करने पर पूरा का पूरा आरोपी परिवार (जिसमें महिला सदस्य भी शामिल है) कटघरे में आ जाता हैं और बिना सुनवाई के जेल में बंद रहते है। इसमें पत्नी के बयान को ही साक्ष्य माना जाता है, चाहे वह झूठ ही क्यों न बोल रही हो। आज भी लाखों परिवार इन प्रकरणों में कोर्ट की सीढि़यां नाप रहे हैं या सुनवाई हेतु जेल में बंद हैं। शादी के योग्य ऐसी कई लड़किया अविवाहित रह गई क्योंकि उनकी भाभी द्वारा झूठे दहेज प्रताड़ना का इल्जाम लगाने के कारण वे जेल में बंद रहीं।
यदि हम पत्नी प्रताड़ना के बारे में बात करें तो देखेंगे कि ऐसे संघ (आशय पत्नी प्रताडि़त संघ से है) में स्वयं महिलाओं का भी शामिल होना समाज की इस समस्या पर गहराई से विचार करने के लिए बाध्य करता है। इस ओर हमारा ध्यान खीचता है कि शोषित पूरा परिवार है न की एक पुरूष। अभी हाल ही में रायपुर के एक आरक्षक की पत्नी द्वारा तीन लाख रुपय दहेज प्रथा कानून में फॅंसाने की धमकी के एवज में लिया गया। बाद में वह आरक्षक पति, जो अपने माता-पिता का एकलौता पुत्र था प्रताडि़त होकर आत्महत्या करने को मजबूर हुआ। पिछले साल एक पी.डव्लू.डी विभाग के सब-इंजीनियर ने सिर्फ इसलिए फरिस्ता कॉम्पलेक्स से कूद कर अपनी जान दे दी , क्योंकि उसकी पत्नी ने छोटे-मोटे आपसी विवाद पर उसे देहज प्रकरण में फंसा दिया। असल में देखा जाय तो इस प्रकार झूठे दहेज प्रकरण में फसाने के डर से कई पति अपने माता-पिता एवं भाई-बहन को त्यागने के लिए मजबूर हैं। ऐसी पत्नियों का प्रतिशत निरंतर बढ़ रहा हैं। किन्तु इस प्रकार की पत्नियों (बहुओं) द्वारा कई पारिवारिक महिला सदस्य भी बुरी तरह प्रताडि़त हो रही हैं। ननंद के रूप में, सास के रूप में, देवरानी-जेठानी के रूप में तथा दादी सास के रूप में। ऐसा ही एक प्रकरण प्रकाश में आया, जिसमें दहेज-प्रकरण में सारा परिवार महिलाओं समेत दो माह के लिए बंद हो गया, इसी गम में उस घर की बुजुर्ग महिला ने हृदयाघात से दम तोड़ दिया। आखिर इन सब के लिए जिम्मेदार कौन है? हम, आप या हमारी व्यवस्था ? इसका हल समय रहते खोजना होगा।
इसी प्रकार 'भरण-पोषण' के कानून का भी भरपूर दुरूपयोग किये जाने की संभावना बनी रहती है, चाहे पत्नीं की कितनी भी ग़लती हो उसे हर हाल में भरण-पोषण के रूप में हर महीने मोटी रकम की पात्रता रहती है। यदि पति न दे तो उसे सज़ा का प्रावधान है। और वहां उसकी जेल की कमाई से भरण-पोषण दिये जाने का प्रावधान है, अन्यथा उसकी सम्पत्ति पत्नी के नाम कर दी जा सकती है। इसी प्रकार तलाक लेने पर भी पत्नी को एक मोटी रकम दिये जाने की हिमायत न्यायालय करती है। आज कितनी ही परिवार परामर्श, न्याय एवं बिचवानी करने वाली संस्थाएं, सिर्फ़ इन्ही रक़म का निर्धारण करने में अपनी शक्तियां खर्च कर रही हैं।
इन मामलों में हम केवल पत्नी के भरण-पोषण के पहलू पर विचार करते हैं, किन्तु हम दूसरे आवश्यक पहलू को नजर-अंदाज करते जाते हैं। क्या हम सिर्फ भरण-पोषण के लिए ही अपनी कन्याओं का विवाह करते हैं? यदि कोर्ट द्वारा भरण-पोषण पत्नी प्राप्त कर लेती है तो उसकी दूसरी जरूरते कौन पूरी करेगा? वही दूसरी ओर पति जो कोर्ट के निर्देश पर भरण-पोषण दे रहा है, क्या वह सिर्फ पत्नी का भरण-पोषण करने के लिए ही शादी करता है? जो व्यवसाय वह करता है, क्या उसके उस कार्य में पत्नी की मदद की आवश्यकता नहीं है? पति की अन्य आवश्यकताओं का क्या होगा जिसके लिए वह विवाह करता है? यहां भरण-पोषण की रकम पति को बतौर सज़ा प्रतीत होती है, वही दूसरी ओर पत्नी को बतौर जीत। इसी रकम की आकांक्षा उसे पारीवारिक एडजेस्टमेंट की दिशा में कमजोर बनाती है। जबकि यह रकम किसी आपराधिक प्रकरण में दिये जाने वाले जुर्माने से कही अधिक होती है, जो उसे ता जिन्दगी ढोना पड़ता है। यदि पति दोषी है तो सजा का पात्र है, किन्तु यदि दोष पत्नी का है तो उसके माता-पिता को भरण-पोषण के लिए जिम्मेवार ठहराया जाना चाहीए। अतः इन बिन्दुओं को ध्यान में रखकर व्यवस्था में परिवर्तन लाये जाने की आवष्यकता है। क्योंकि किसी भी प्राणी की तीन मूलभूत प्राकृतिक आवश्यकताएं होती हैं 1. भोजन-त्यजन 2. नींद 3. यौन । इनमें से किसी भी एक के बिना प्राणी का जीवन सामान्य नहीं रह सकता। हम पति-पत्नी विवाद के प्रकरण में उनकी तीसरी जरूरत के बारे में सोचते ही नहीं। वर्षों प्रकरण कोर्ट में लंबित रहता हैं, क्या करें? चाहने पर भी तालाक लेना टेड़ी खीर ही साबित होता है। यदि इनमें से कोई भी एक पक्ष अपनी तीसरी आवश्यकता के लिए जुगाड़ बिठा लिया तो बस दूसरे पक्ष को तलाक देना ही नहीं है, प्रकरण चलता रहता है वर्षों तक, तलाक का।
ऐसी स्थिति में पुरुष पक्ष का आगे आकर आपनी बात रखना समय की मांग है। इसका सुखद पहलू यह भी है कि उसके इस कार्य में महिलाएं भी शामिल है। खुद महिला आयोग की सदस्या जब खुलेआम यह कहती है कि महिलाएं भरण-पोषण एवं दहेज निवारण अधिनियम का दुरूपयोग कर रही है तो यह लगता है कि वास्तव में इस प्रकरण से केवल पुरुष ही आहत नहीं है बल्कि पूरा परिवार एवं समाज आहत है। अतः पूरे समाज में चेतना लाये जाने की आवश्यकता है।
इन्शान अपनी सक्षमता का दुरूपयोग करता है. चाहे वह स्त्री हो या पुरुष. प्रथागत कानून पुरुषों के पक्ष होने के कारण निःसंदेह पुरुष महिलाओं पर ज्यादती करते थे। किन्तु अब विधिक कानून महिलाओं के पक्ष होने से महिलाओं का सशक्तिकरण संभव हुआ है. अतः वे भी अपनी सक्षमता का दुरूपयोग करने लगीं हैं। लेकिन पुरुष अपनी सक्षमता का उतना दुरूपयोग नहीं करते जितना की महिलाएं. तलाक के ही मामलों को लें तो स्थति साफ हो जायेगी. कुल तलाक शुदा मामलों में, बमुश्किल दस फीसदी कमाऊ मरदों ने अपने ऊपर निर्भर घरेलू पत्नियों को तलाक दिया होगा. इसके उलट शेष नब्बे फीसदी तलाक उन महिलाओं द्वारा दिये जाते हैं जो आत्म निर्भर हैं भले ही पति भी कमाऊ क्यों न हो। और जहाँ तक दहेज़ प्रतिषेद कानून व भरण पोषण कानून के दुरूपयोग की बात है तो इनका भी दुरूपयोग सक्षम महिलाएं ही करती हैं. बहुत सी कमजोर महिलाएं ऐसी हैं जिन्हें दहेज़ के लिए वास्तव में उत्पीड़ित किया गया, समस्त स्त्रीधन छीन कर कर घर से निकाल दिया.तथा उन्होंने इस खुशफ़हमी में संगत धाराओं के तहत मुक़दमे भी किये कि कानून उनके पक्ष में हैं और उन्हें जरुर न्याय मिलेगा किन्तु 10-12 साल लगातार न्यायालय के चक्कर लगाने के बाद भी अंततः हर ही मिली। मैं खुद ऐसे एक मामले को जनता हूँ जिसमें ऊँची पहुँच वाले उत्पीड़क ससुराली जनों ने सम्बंधित जजों (जिनमे एक महिला जज भी है) को घूस देकर अपने पक्ष में निर्णय करा लिया. दरअसल सक्षम बनाम अक्षम (सबल बनाम निर्बल) का है।
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जवाब देंहटाएंhttps://www.youtube.com/watch?v=1bGirYN2z4E - Documentary on misuse of IPC 498A Follow us here: https://www.facebook.com/MartyrsOfMarriage
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