शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

दलित कहानी - मेहतर का घर है.


दलित कहानी
मेहतर का घर है
संजीव खुदशाह

अमित श्रीवास्तव ने चाय की चुस्की लगाई और आर.एल.समुन्द की ओर मुखातीब होते हुए गहरी सांस भरकर कहने लगे- ‘‘यार एक स्टेटस के बाद तो जातपात सब खत्म हो जाता है।’’ आर.एल.समुंद के पास कोई शब्द नही था इस वाक्य का जवाब देने के लिए क्योकि कई बार इस मुद्दे पर लम्बी बहस हो चुकी थी। अमित श्रीवास्तव यही सिध्द करने की कोशिश करते की एक बार आरक्षण का लाभ लेकर सवर्णो की बराबरी करने के बाद जाति का महत्व खत्म हो जाता है और ऐसे परिवार को आरक्षण का अधिकार खत्म कर देना चाहिए। लेकिन श्री समुंद उन्हे बताते कि वर्ग बदलने से जाति खत्म नही होती। जाति का कलंक तो साथ चलता है। जब कलंक नही मिटा, भेदभाव नही मिटा, तो आरक्षण एवं अन्य सुविधाएं क्यों खत्म हो। लेकिन अमित श्रीवास्तव अड़ जाते ‘‘बस यही तुम लोगों की ओछी सोच है। आरक्षण पा कर हमारे बराबर तो आ गये हो लेकिन सोच में आरक्षण कहा ? इसलिए दकियानूसी विचारधारा है तुम्हारी।’’ वे तैश में आ जाते और जोर देकर कहते- ‘‘तुम जैसे व्यक्तियों के व्दारा आरक्षण का लाभ बार-बार लेने के कारण ही तो तुम्हारा बाकी समाज पिछड़ा है तुम्हे तो चाहिए की उन्हे भी मौका दे।’’ श्री समुन्द कहते ‘‘मौका तो सभी को मिलता है वे भी प्रतियोगिता में भाग लेते है। अब तुम कहते हो की हम प्रतियोगिता में भाग न ले आरक्षण का लाभ न ले, ताकि वे खाली सीट अंत में उपयुक्त उम्मीदवार नही है कहकर तुम्हारे लिए आरक्षित हो जाये।’’
इस प्रकार दोनो में घंटो विवाद चलता रहता कभी आरक्षण को लेकर तो कभी जाति या वर्ग को लेकर। बातचीत भी क्यों न हो आखिर दोनो कालेज के समय के दोस्त जो थे। साथ में ही वे कम्पीटिशन पास करके नौकरी पर लगे। मि. समुन्द को आरक्षण से नौकरी तो जरूर लगी लेकिन वह मेघावी छात्रों में था। बल्कि पढ़ाई में वह अमित से बीस ही था दोनो ने ट्रेनिंग भी साथ में की, कई साल साथ में काम करने के कारण दोनों में गहरी मित्रता हो गई, मित्रता भी ऐसी की जिसमें औपचारिकाताओं का नामों निशान नही। जितना कार्यालय में निजता उतना ही पारिवारीक अपनापन  भी। अक्सर एक दूसरे के घर आना जाना होता था। लेकिन केवल एक मुद्दे पर ही दोनो में बहस हो जाया करती, वर्ग , जाति एवं आरक्षण। समुन्द हर बार अपनी बातों में नरमी बरतता था क्योंकि उसको अमित की मित्रता खो जाने का भय रहता था। उसे लगता कि उसके करीब आया एक मात्र सवर्ण मित्र कही हाथ से चला न जाय। यदि ऐसा हुआ तो वह अपने आप को दलित समझने लगेगा। शायद उसे भ्रम था कि मि. श्रीवास्तव के साथ घुल-मिल जाने के कारण वह भी सवर्णो की जमात मे शामिल हो गया। लेकिन जब भी कार्यालय या दोस्तों के बीच अमित की मौजूदगी में इस मुद्दे पर बहस होती तो उसे बड़ी शर्मिदगी उठानी पड़ती। उसे लगता आरक्षण लेकर उसने बहुत बड़ा अपराध किया है। और उसका खास दोस्त अमित इस मौके पर समुन्द को जलील करने का कोई मौका हाथ से न जाने देता। दोस्ती की सारी मर्यादा को ताक में रखकर आरक्षण के नाम पर समुन्द को नीचा दिखाने की कोशिश करता। यदि समुन्द अपने पक्ष में कुछ बोलता तथ्य देता तो नक्कार खाने की तूती की तरह उसकी आवाज दबा दी जाती। अगर किसी प्रकार प्रतिवाद में सहमति बनती तो इस पर आकर बात अटक जाती की एक ही आदमी को बार-बार आरक्षण नही लेनी चाहिए क्योंकि बाकी लोगो को आरक्षण का लाभ नही मिल पाता है। समुन्द इसके जवाब में तर्क देता कि आरक्षण लाभ मिलना तो दूर, अभी तक बैकलाग तक नही भर पा रहे है।
लेकिन जाति के कलंक की बात उसके जुबां पर नही आ पाती थी। शायद उसके अंदर बैठा दलित मन ऐसा करने में सकुचाता था। कई बार मन में आई इन झंझावतों की चर्चा अपनी पत्नी से करता। वह उसे समझाती कहती जाने दिजिए न। समय आयेगा तो सब ठीक हो जायेगा। वे अगर दलित जाति में पैदा होते तो जानते दलित का दर्द।

आफिस के पास कालोनी में समुन्द का सरकारी आवास था। सामने की गली में थोड़ा आगे कि ओर बच्चों का गार्डन था जिसमें फूल पत्ते कम फिसल पट्टीयां ज्यादा थी। कुछ टूटी हुई तो कुछ टूट कर बूढ़ो एवं बड़ो के बैठने के काम आती थी। घर के पिछवाड़े एक ब्लाक ओर था। उसके पीछे फिर एक गली इस गली पर ही अमित श्रीवास्तव का मकान था। अमित का सारा परिवार पढ़ा लिखा था। पिता संभाग में ज्वाईट कमीशनर भाई पुलिस इन्सपैक्टर तथा बहन आर्मी में डाक्टर थी। वही दूसरी ओर आर.एल.समुंद का बड़ा भाई नगरपालिका में सफाई कर्मी पिता नगरपालिका में मुकरदम थे। जैसे तैसे पढ लिखकर समुन्द सरकारी नौकरी पा गया। लेकिन बड़ा भाई बारहवी पास था, इसके बावजूद नगर पालिका द्वारा उसे मैला उठाने कि नौकरी दी। कई बार रेल्वे, बैंक आदि का फार्म भरा लेकिन कही भी सलेशन नही हो पाया। होता भी कैसे क्योंकि बारहवी पास करते ही उसे नगरपालिका में नौकरी करनी पड़ी, घर जो चलाना था। पिता की श्वांस की बिमारी के कारण वे नौकरी नही कर पा रहे थे। और वह छुट्टी लेता तो घर कैसे चलता, इसी कारण वह काम्पीटिशन की तैयारी नही कर पाया। आज इसी मैला ढोने की नौकरी को ही अपनी नियती मान चुका है। जब भी वह आर.एल.समुन्द के पास मिलने के लिए जाता आस पड़ोस के लोग नाक-भौं सिकोड़ते, आपस में कानाफूसी करते। शायद बड़े भाई का रहन सहन कालोनी के अनुरूप नही था। लेकिन इसी बड़े भाई ने समुन्द को इस काबील बनाया कि वह सरकारी इज्जदार नौकरी पा सके। इसलिए समुन्द उनकी खूब इज्जत करता था।

कुछ अर्से बाद अमित श्रीवास्तव ने शहर में एक मकान ले लिया और वे वहां ‍शिफ्ट कर गये। चूकि समुन्द से उनकी करीबी थी इसलिए अमित ने सलाह दि की इसी कालोनी में थोड़ा आगे जमीन का टुकड़ा बिकाउ है वे चाहे तो वहां जमीन ले सकता है। जहां भविष्य में मकान बनाया जा सके। समुन्द को भी जमीन लेने की बड़ी इच्छा थी ताकि अपना खुद का मकान बनाया जा सके। उसका पूरा जीवन सरकारी मकान में ही कटा। पहले तो नगरपालिका के तंग बस्ती में, फिर नौकरी लगने के बाद इस मकान में। आर.एल.समुन्द ने जैसे-तैसे करके इस जमीन को खरीद ही लिया। अब समस्या वहां घर बनाने की थी। इसके लिए उसने गृहऋण , प्रोविडेंडफंड आदि से व्यवस्था कर ली। इस प्रकार घर बनने का काम भी चालू हो गया अब हर रोज इस नये मकान की ओर उसे जाना पड़ता। रास्ते में अमित का घर भी पड़ता था। थोड़ी देर वह वहां रूकता गपशप होती फिर वह अपने मकान के निर्माण की प्रगति एवं देखरेख मे चला जाता। अब तक समुन्द के घर का नीव तक का कार्य पूर्ण हुआ था। शेष कार्य के लिए ट्रक से ईट रेत सीमेंन्ट आदी लाया जा रहा था।
अबजब भी अमित के घर आना होता तो भाभी (अमित की पत्नी) तुरंत चाय लाकर देती और समुन्द अमित के बीच फिर किसी न किसी मुद्दे पर बहस छिड़ जाती। एक बार अमित श्रीवास्तव ने कहा - ‘‘देख यार अब बता तेरे मेरे में क्या अंतर तू भी अपना खुद का घरवाला हो गया। लेकिन तेरे बच्चों को आरक्षण का लाभ मिलेगा मेरे बच्चों को नही। बता सही में प्रताड़ित कौन है।’’
समुन्द ने कहा -‘‘ठीक कहता है यार मै तेरी बात मानता हूं अब तेरे मेरे में कोई अंतर नही है। जब कोई अंतर नही है तो तू क्या अपनी बेटी की शादी मेरी बेटे से करेगा?’’
अमित को ऐसे लगा जैसे उसके कानों में कोई चैड़े पंजे का झापड़ रसीद कर दिया हो। चारों और अंधेरा छा गया। आवाक सा रह गया था वो। आचानक कोई भी जवाब नही दे पाया। बच्चों तक यह बात पहुंच गई जो पहले से ही पारिवारीक मित्र तो थे ही।  अमित श्रीवास्तव की पुत्री जिसे अभी-अभी कालेज में दखिला मिला था। वह यह समझ नही पा रही थी कि पिता मौन क्यों रहने लगे ऐसी क्या बात हो गई अंकल के साथ। उसे सारा मसला पहेली की तरह लग रहा था। पापा की चुप्पी उसे और रहस्यमय बनाती थी।
छुट्टी के दिन अमित अपने परिवार के साथ अवकाश का लाभ ले रहे थे तभी उसकी पुत्री ने उस पहेली का हल पुछना मुनासीब समझा वे अपने पिता से पूछ बैठी- ‘‘बताओं न पिताजी आखिर समुन्द अंकल और हम में क्या अंतर है। आप हमेशा समुन्द अंकल से कहते आये हो,  कि हमारे और तुम्हारे में कोई अंतर नही, लेकिन उस दिन से आप चुप क्यो हो गये? आखिर अंतर है कहां?’’ 
अमित अपनी पुत्री से मित्रवत व्यवहार करते थे। विषय साम्प्रदायिक होने के बावजूद अपनी पुत्री के सम्मुख मौन रहना उसे अपनी हार की तरह प्रतीत हो रहा था। यह प्रश्न उसके पिता होने के वजूद को भी ललकार रहा था। उसने सहज होते हुए कहा- ‘‘बेटा उस दिन तो मै चुप हो गया था लेकिन तभी से मै आज तक उनमें और हमारे में अंतर का मर्म जानना चाह रहा हूं लेकिन अभी तक मै सभी संभावित सभी उत्तर से सहमत नही हूं’’
इतने में कालबेल की घंटी बजी अमित की पुत्री ने दरवाजा खोला। पीछे-पीछे अमित भी बाहर आ गये।
‘‘कोई ट्रक ड्रायवर है इंटे लेकर आया है किसी का पता पूछ रहा है।’’ अमित की पुत्री सुमिता ने अपने पिता को बताया।
ड्रायवर, ट्रक से उतरा उसके हाथों में पर्ची थी वह अमित को दिखाते हुए पता पूछ रहा था। उस पर्ची में गंतव्य का पता लिखा था।
रामलाल समुन्द
(मेहत्तर का घर है)
अरविन्द नगर
अब अमित श्रीवास्तव को सारे प्रश्नों का जवाब मिल चुका था।

(यह कहानी दलित साहित्य कहानी कोश एवं मलमूत्र ढोता भारत में प्रकाशित है)

1 टिप्पणी:

  1. Awesome sir its real fact those who dosnt like AARAKSHAN. Ye kahani un logo ke liye thapaad hai.
    Hamare samaj ke liye bhi jo AARAKSHAN ko sharmindagi kahte hai.

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