छत्त्तीसगढ़ में पिछड़ा वर्ग आंदोलन
· संजीव खुदशाह
छत्तीसगढ़ में पिछड़ा वर्ग की आबादी विभिन्न सर्वेक्षण के अनुसार 39 प्रतिशत है। तथा अनुसूचित जाति 15 अनुसूचित जनजाति 35 प्रतिशत है। यहां पिछड़ा वर्ग बहुसंख्यक होने के बावजूद सामाजिक चेतना के मुआमले में जिसे हम पिछड़ा वर्ग आंदोलन कह सकते है लगभग शून्य की स्थिति है। छत्तीसगढ़ में सामाजिक आंदोलन की बयार सिर्फ कुछेक जातियों में बह रही है। गौरतलब है कि ये जातियां ज्यादातर दलित वर्ग के अंतर्गत ही आती है।
छत्तीसगढ़ की कामगार जातियां जो खेती मजदूरी पर निर्भर थी, और जमीदारों तथा उच्चजातियों की बेगारियां करती थी एवं उनसे शोषित रहती थी। ये जातियां आजादी के बाद भूमि जोत अधिकार नियम लागू होने के बाद बड़े भूमिस्वामियों की श्रेणी में आ गई। इन जातियों में कुर्भी, कलार, साहू (तेली), चन्नाहू, पटेल (मरार), राउत आदि प्रमुख है। इन जातियों के पास हरित क्रांति के आंदोलन के दौरान अधिक उत्पादन होने के कारण आर्थिक सम्पन्नता और बढ़ी। साथ ही ये जातियां सामाजिक रूप से अपना जिलावार एवं तहसीलवार संगठित हो गई। लेकिन इन संगठनों के पीछे ब्राम्हणवादी विचारधारा ही हावी रही। जैसे कुर्मी ने अपने आपको कुर्मी क्षत्रीय लिखना प्रारंभ कर दिया, साहू ने अपने को साहूकार (वैश्य) बताना प्रारंभ कर दिया।
1950 के आसपास पिछड़ा वर्ग की जातियों का संगठन बनना प्रारंभ हो गया। लेकिन इन संगठनों के संरक्षक ज्यादातर ब्राम्हण या ब्राम्हणवादी लोग थे। जो संगढन को जातिगत ढांचे से बाहर निकलने से रोकते थे। इसलिये हर जाति ने एक-एक मिथक को अपना प्रतीक बनाने की कोशिश की। जैसे कर्मामाता, तेलिन दाई, विलासा केवटीन आदि। इस प्रकार पिछड़ा वर्ग के लोग जातिगत रूप से संगठित तो हुए किन्तु उन्होने संगठन की शक्ति को फिजूल के आडंबर में खर्च किया। जबकि इस समय यह वर्ग अंधविश्वास, अशिक्षा एवं शराबखोरी जैसी समस्या से जूझ रहा था। इन संगठनों ने इस ओर कोई ध्यान नही दिया। हद तो तब हो गई जब कुछ जातियों ने अपने परम्परागत व्यवसाय को कायम रखने या एकाधिकार रखने हेतु शासन से मांगे मागने लगे। इस दौरान सामंतवादी सरकारों ने इनकी मांगो पर गौर फरमाया तथा इनकी मांगो के अनुसार बढ़ई, नाई, कुम्हार, जुलाहे, निषाद आदि जातियों को उनके कार्य के अनुसार औजार (उपकरण किट) मुफ्त में मुहैया कराया गया। अब पिछड़ा वर्ग छत्तीसगढ़ के राजनीतिज्ञों की दृष्टि में एक बड़ा वोट बैक की तरह नजर आने लगा।
मध्यप्रदेश से अलग होने के बाद छत्तीसगढ़ की लगभग सभी जातियों के संगठन की बाढ़ सी आने लगी और लगभग सभी जातियों के कार्यक्रम में शासन के मंत्री अपनी षिरकत करने लगे। उनकी मुरादे सुनते। शायद ये किसी राजनैतिक मजबूरी का ही नतीजा था कि वर्षो जिन जातियों की तरफ सरकार मुह उठाकर देखना भी पसंद नही करती थी अब उन्हे हाथो-हाथ लेने लगी। इस प्रकार बिखरी जातियां संगठित होती गई हालांकि इन संगठनों में आंदोलन जैसा कुछ भी न था।
वैसे छत्तीसगढ़ एवं अविभाजित मध्यप्रदेष में पहले पहल 1946 में पिछड़ा वर्ग की जातियों को एक छत्र में जोड़ने का कार्य डा. खूबचंद बघेल ने किया, जो तत्कालिन नागपूर विधान सभा के संसदीय सचिव थे। बाद में कांग्रेस छोड़ने के पश्चात उन्होने पिछड़ा वर्ग की जातियों को अंबेडकरी आंदोलन के मुताबिक संगठित करने का काम किया। इसके बाद 1980 में मध्यप्रदेश पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया गया जिसके अध्यक्ष थे श्री रामजी महाजन। इस आयोग कि रिर्पोट महाजन आयोग के नाम से चर्चित रही। इसमें दो सदस्य श्री बैजनाथ चन्द्राकर एवं टेटकूराम साहू दोनो विधायक छ.ग. से ही थे। महाजन आयोग कि रिर्पोट देखने से ज्ञात होता है कि वे किस कदर अम्बेडकरी सामाजिक आंदोलन से प्रभावित थे। बाद में 1991 में मण्डल आयोग के लागू हो जाने के बाद छत्तीसगढ़ पिछड़ा वर्ग आंदोलन गति लेने लगा।
इस बीच 1995 में प्रो. भागवत प्रसाद साव ने छत्तीसगढ़ पिछड़ा समाज संस्था का विधिवत गठन किया। इस मुआमले में श्री विष्णु बघेल जो रायपुर में सी.ए. के रूप में कार्यरत है तथा पिछड़ावर्ग आंन्दोलन में अग्रणी भूमिका निभा रहे है, बताते है कि मीलूराम देशमुख जो पिछड़ा वर्ग के ही थे ने 1984 में मान्यवर कांशीराम जी के साथ जुड़ कर काम करते थे। वे ये भी बताते है कि पूर्व गांधीवादी श्री नंदकुमार बघेल किस प्रकार पक्के अम्बेडकरवादी समाज सुधारक हुए। जिन्होने बाद में ब्राम्हण कुमार रावण को मत मारों नामक प्रतिबंधित पुस्तक लिखी। इस प्रकार छत्तीसगढ़ में पिछड़ा वर्ग आंदोलन को गति देने वालों की फेहरिस्त और लंबी है। इस बीच कई लेखक है जिन्होने अपनी रचनाओं के माध्यम से पिछड़ा वर्ग को जागृत करने का काम किया जिनमें इन पंक्तियों के लेखक जिनकी किताब "आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग" पूरे देश में चर्चित रही। इसी प्रकार विष्णु बघेल इन पर काफी लेख लिख रहे है उन्होने जागृति के पम्पलेट छपवाकर घरो-घर बटवांया। नंनकुमार बघेल भी इस दिषा में सक्रिय है। दूसरी ओर पिछड़ावर्ग के ऐसे भी लेखक है जो नामचीन होते हुए भी उनका धेय सत्ता का स्तुतीगान एवं पद, पुरस्कार की लोलुपता तक ही सीमित है।
जहां तक मै समझता हूं छत्तीसगढ़ के पिछड़ा वर्ग में सामाजिक आंदोलन की शुरूआत पिछड़ावर्ग के कर्मचारी संगठनों से हुई। जो पहले पहल कांशीराम के बामसेफ से शुरूहोकर बहुजन आंदोलन का रूप अख्तियार किया। आज भी छत्तीसगढ़ पिछड़ा वर्ग कर्मचारी अधिकारी संगठन अपाक्स पिछड़ावर्ग आंदोलन को जन जन तक पहुंचाने में प्रयासरत है। दलित आंदोलन के आगे यह आंदोलन भले ही शैशव अवस्था में है किन्तु भविष्य में पिछड़ा वर्ग आंदोलन बहुजन आंदोलन का रूप् लेकर एक नया इतिहास रचेगा।
(फारर्वड प्रेस अक्तुबर अंक में प्रकाशित)
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