अंबेडकर जयंती 14 अप्रैल पर विशेष
डॉ अंबेडकर आज और कल
संजीव खुदशाह
14 अप्रैल 1891 को डॉक्टर अंबेडकर का जन्म हुआ, यानी डॉ आंबेडकर की 132 वी जयंती है। वैसे तो उनका जन्म मध्यप्रदेश के महू सैनिक छावनी में हुआ था। लेकिन उनका परिवार अंबावडे गांव जो कि वर्तमान में महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में है, उससे संबंधित था। डॉक्टर अंबेडकर बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे और साहू जी महाराज के फेलोशिप की बदौलत उन्होंने विदेश से भी जाकर शिक्षा अर्जित की थी। जीवन में उन्हे कई बार जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा।
एक समय ऐसा था जब भारत में दलितों को सार्वजनिक स्थानों से पानी पीने तक का अधिकार नहीं था। वे सार्वजनिक तालाबों, कुओं में पानी नहीं पी सकते थे। डॉक्टर अंबेडकर ने 20 मार्च 1927 को पानी पीने के अधिकार के लिए आंदोलन किया जिसे सामाजिक सशक्तिकरण दिवस के रूप में मनाया जाता है।
दरअसल महाराष्ट्र कोलाबा जिले के महाड़ में स्थित चवदार तालाब में ईसाई, मुसलमान, पारसी, पशु, यहाँ तक कि कुत्ते भी तालाब के पानी का उपयोग करते थे लेकिन अछूतों को यहाँ पानी छूने की भी इजाजत नहीं थी। डॉं अंबेडकर ने अपने साथियों के साथ उस तालाब में जाकर एक चुल्लु पानी पिया । चारों ओर सवर्ण हिन्दुओं का विरोध हाने लगा डॉं अंबेडकर के काफिले के उपर लाठी डंडे से हमले किया गये लोग जख्मी हुऐ । बाद में उस तलाब को ब्राम्हणों द्वारा तीन दिनों तक दूध गौमूत्र गोबर मंत्रोपचार यज्ञ हवन से प्युरिफाई किया गया।
आजादी के पहले महात्मा गांधी जब एक ओर नमक (नमक सत्याग्रह 1930) के लिए लड़ाई कर रहे थे वहीं दूसरी ओर डॉक्टर अंबेडकर वंचित जातियों के लिए पीने के पानी की लड़ाई (1927) लड़ रहे थे। एक ओर जब छोटी-छोटी रियासतें ऊंची जाति के लोग अपनी हुकूमत बचाने के लिए अंग्रेजों से संघर्ष कर रहे थे। तो डॉक्टर अंबेडकर इन रियासतों ऊंची जातियों से पिछड़ी जातियों के जानवर से बदतर बर्ताव, शोषण से मुक्ति की बात कर रहे थे। महात्मा फुले के बाद वे ही ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पूरे विश्व पटल में जातिगत शोषण का मुद्दा बड़ी ही मजबूती के साथ पेश किया। दरअसल दलित और पिछड़ी वंचित जातियों का मुद्दा विश्व पटल पर तब गुंजा जब उन्होंने गोलमेज सम्मेलन के दौरान जातिगत, आर्थिक और राजनीतिक शोषण होने की बात रखी। बाद में इन मुद्दों को साइमन कमीशन में जगह मिली। पहली बार दबे कुचले वंचित जातियों को अधिकार देने की बात हुई।
डॉक्टर अंबेडकर ने भारत के हर वर्ग के लिए काम किया। यदि भारत का संविधान देखें तो उसमें गैर बराबरी के लिए कोई स्थान नहीं है। हर वह व्यक्ति चाहे वह किसी भी जाति से ताल्लुक रखता हो अगर वंचित है, पीड़ित है, तो संविधान उसे न्याय और ऊपर उठने में मदद करता है। सदियों से पीड़ित दलित, आदिवासी, पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक, भारत की आधी आबादी महिला वर्ग के उत्थान की खातिर उन्होंने संविधान में क्लॉज बनाएं। संविधान सभा के 248 सदस्यों ने प्रारूप में प्रस्तुत जिन अनुच्छेदों को सर्वसम्मति से पारित किया, वही आज भारतीय संविधान का हिस्सा है। दरअसल भारत का संविधान यह बताता है कि हमारे पूर्वज जो संविधान सभा के सदस्य थे, पूरे भारत से चुनकर आए थे, वह किस प्रकार के भारत का कल्पना कर रहे थे। संविधान उसी कल्पना का मूर्त रूप है।
डॉक्टर अंबेडकर संविधान सभा के अपने अंतिम भाषण में कहते हैं कि संविधान कैसा लिखा गया है, इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि संविधान को किस तरीके से लागू किया जा रहा है। क्या हमारी मशीनरी, हमारा प्रशासन संविधान की मंशा अनुसार भेदभाव रहित लोकतांत्रिक व्यवस्था दे पा रही है? यह एक प्रश्न है जिसे डॉक्टर अंबेडकर के इस मंशा के बरअक्स देखा जा सकता है।
क्या था डॉक्टर अंबेडकर का ड्रीम प्रोजेक्ट?
समतामूलक भेदभाव रहित समाज की स्थापना के लिए बाबा साहब ने कई सपने देखे थे। इनमें से दो स्वप्न महत्वपूर्ण थे जिन्हें उनका ड्रीम प्रोजेक्ट कहा जाता है।
पहला है जाति का उन्मूलन, दूसरा है सबको प्रतिनिधित्व।
जाति का उन्मूलन यानी सभी जाति बराबर, बिना भेदभाव के जाति विहीन समाज की स्थापना। वे इस जाति प्रथा को खत्म करना चाहते थे। बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर का कहना था कि हमारे देश की तरक्की मैं सबसे बड़ा रोड़ा हमारी जाति व्यवस्था है, ऊंच नीच है।
आज पूरे देश की जिम्मेदारी है कि वह डॉ आंबेडकर के इस ड्रीम प्रोजेक्ट जाति के उन्मूलन के लिए कदम बढ़ाए और उनके इस सपने को पूरा करें। तभी हमारा देश संगठित और विकसित हो पाएगा।
भारत के लोकतंत्र के चार स्तंभ है न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और मीडिया। क्या इन स्तंभों में डायवर्सिटी है ? क्या सभी वर्ग के लोगों का प्रतिनिधित्व इन स्तंभों में है? इसका जवाब है लोकतंत्र के इन स्तंभों में कुछ ही जातियों का दबदबा है। इस कारण तमाम वंचित जातियों, महिलाओं, धार्मिक अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाता है। उनकी बातें, उनकी परेशानियां वहां तक नहीं पहुंच पाती है।
बाबा साहब कहते हैं कि सिर्फ सरकारी नौकरी में प्रतिनिधित्व देने से काम नहीं बनेगा। इनको लोकतंत्र के चारों स्तंभों में बराबर का प्रतिनिधित्व देना पड़ेगा। तब कहीं जाकर देश के सबसे अंतिम पंक्ति के व्यक्तियों का भला हो सकेगा और सबसे अंतिम व्यक्ति को यह महसूस होगा कि वह इस देश का हिस्सा है। देश उसके लिए सोचता है। आज कितने बेघर, भूमिहीन, बेरोजगार , भेदभाव से पीड़ित लोग हैं उन तक शासन-प्रशासन से मदद की जरूरत है।
भारत के फिर से गुलाम होने का भय
डॉ अंबेडकर देश के गद्दारों से भार के फिर से गुलाम होने की आशंका व्यक्त करते है। वे संविधान सभा के समापन भाषण में कहते है कि ‘यह बात नहीं है कि भारत कभी एक स्वतंत्र देश नहीं था। विचार बिंदु यह है कि जो स्वतंत्रता उसे उपलब्ध थी, उसे उसने एक बार खो दिया था। क्या वह उसे दूसरी बार खो देगा? यही विचार है जो मुझे भविष्य को लेकर बहुत चिंतित कर देता है। यह तथ्य मुझे और भी व्यथित करता है कि न केवल भारत ने पहले एक बार स्वतंत्रता खोई है, बल्कि अपने ही कुछ लोगों के विश्वासघात के कारण ऐसा हुआ है।
सिंध पर हुए मोहम्मद-बिन-कासिम के हमले से राजा दाहिर के सैन्य अधिकारियों ने मुहम्मद-बिन-कासिम के दलालों से रिश्वत लेकर अपने राजा के पक्ष में लड़ने से इनकार कर दिया था। वह जयचंद ही था, जिसने भारत पर हमला करने एवं पृथ्वीराज से लड़ने के लिए मुहम्मद गोरी को आमंत्रित किया था और उसे अपनी व सोलंकी राजाओं को मदद का आश्वासन दिया था। जब शिवाजी हिंदुओं की मुक्ति के लिए लड़ रहे थे, तब कोई मराठा सरदार और राजपूत राजा मुगल शहंशाह की ओर से लड़ रहे थे।
जब ब्रिटिश सिख शासकों को समाप्त करने की कोशिश कर रहे थे तो उनका मुख्य सेनापति गुलाबसिंह चुप बैठा रहा और उसने सिख राज्य को बचाने में उनकी सहायता नहीं की। सन् 1857 में जब भारत के एक बड़े भाग में ब्रिटिश शासन के खिलाफ स्वातंत्र्य युद्ध की घोषणा की गई थी तब सिख इन घटनाओं को मूक दर्शकों की तरह खड़े देखते रहे।
क्या इतिहास स्वयं को दोहराएगा? यह वह विचार है, जो मुझे चिंता से भर देता है। इस तथ्य का एहसास होने के बाद यह चिंता और भी गहरी हो जाती है कि जाति व धर्म के रूप में हमारे पुराने शत्रुओं के अतिरिक्त हमारे यहां विभिन्न और विरोधी विचारधाराओं वाले राजनीतिक दल होंगे। क्या भारतीय देश को अपने मताग्रहों से ऊपर रखेंगे या उन्हें देश से ऊपर समझेंगे? मैं नहीं जानता। परंतु यह तय है कि यदि पार्टियां अपने मताग्रहों को देश से ऊपर रखेंगे तो हमारी स्वतंत्रता संकट में पड़ जाएगी और संभवत: वह हमेशा के लिए खो जाए। हम सबको दृढ़ संकल्प के साथ इस संभावना से बचना है। हमें अपने खून की आखिरी बूंद तक अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करनी है।’
अखण्ड भारत के लिए उनके विचार
डॉक्टर अंबेडकर कहते है की आज का विशाल अखण्ड भारत धर्मनिरपेक्षता समानता की बुनियाद पर खड़ा है, इसकी अखण्डता को बचाये रखने के लिए जरूरी है की इसकी बुनियाद को मजबूत रखा जाय। वे राजनीतिक लोकतंत्र के लिए सामाजिक लोकतंत्र महत्वपूर्ण और जरूरी मानते थे। भारत में जिस प्रकार गैरबराबरी है उससे लगता है कि समाजिक लोकतंत्र आने में अभी और समय की जरूरत है।
संविधान सभा के समापन भाषण में वे कहते है। ‘’तीसरी चीज जो हमें करनी चाहिए, वह है कि मात्र राजनीतिक प्रजातंत्र पर संतोष न करना। हमें हमारे राजनीतिक प्रजातंत्र को एक सामाजिक प्रजातंत्र भी बनाना चाहिए। जब तक उसे सामाजिक प्रजातंत्र का आधार न मिले, राजनीतिक प्रजातंत्र चल नहीं सकता। सामाजिक प्रजातंत्र का अर्थ क्या है? वह एक ऐसी जीवन-पद्धति है जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में स्वीकार करती है।"
उनके अनुसार धर्मनिरपेक्षता का मतलब यह है कि राजनीति से धर्म पूरी तरह अलग होना चाहिए। राजनीति और धर्म के घाल मेल से भारत की अखण्डता को खतरा हो सकता है। वे भारत में नायक वाद को भी एक खतरा बताते है संविधान सभा के समापन भाषण में कहते है कि दूसरी चीज जो हमें करनी चाहिए, वह है जॉन स्टुअर्ट मिल की उस चेतावनी को ध्यान में रखना, जो उन्होंने उन लोगों को दी है, जिन्हें प्रजातंत्र को बनाए रखने में दिलचस्पी है, अर्थात् ''अपनी स्वतंत्रता को एक महानायक के चरणों में भी समर्पित न करें या उस पर विश्वास करके उसे इतनी शक्तियां प्रदान न कर दें कि वह संस्थाओं को नष्ट करने में समर्थ हो जाए।''
उन महान व्यक्तियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने में कुछ गलत नहीं है, जिन्होंने जीवनर्पयत देश की सेवा की हो। परंतु कृतज्ञता की भी कुछ सीमाएं हैं। जैसा कि आयरिश देशभक्त डेनियल ओ कॉमेल ने खूब कहा है, ''कोई पुरूष अपने सम्मान की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता, कोई महिला अपने सतीत्व की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकती और कोई राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता।'' यह सावधानी किसी अन्य देश के मुकाबले भारत के मामले में अधिक आवश्यक है, क्योंकि भारत में भक्ति या नायक-पूजा उसकी राजनीति में जो भूमिका अदा करती है, उस भूमिका के परिणाम के मामले में दुनिया का कोई देश भारत की बराबरी नहीं कर सकता। धर्म के क्षेत्र में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकता है, परंतु राजनीति में भक्ति या नायक पूजा पतन और अंतत: तानाशाही का सीधा रास्ता है।‘’
जाहिर है डॉं अंबेडकर की चिंता केवल समुदाय विशेष के लिए नही है वे देश को प्रबुध्द एवं अखण्ड देखना चाहते है। उनके ये विचार कल की तरह आज भी उतने की प्रासंगिक है। आशा ही नही पूर्ण विश्वास है कि देश उनके चिंतन से सीख लेता रहेगा और तरक्की करता रहेगा।
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