शुक्रवार, 26 मई 2017

अंधविश्वासी महिलाओं की गोद भरता बाबा

अंधविश्वासी  महिलाओं की गोद भरता बाबा
•        संजीव खुदशाह 
विगत दिनो लखनऊ के करीब बाराबंकी में एक संत बाबा परमांनंद उर्फ राम शंकर तिवारी उम्र लगभग 65 वर्ष सुर्खियों मे है। उन पर आरोप है की उसने महिलाओं की गोद भरने की आड़ में बलात्कार किया और उनकी सेक्स वीडियो बनाया। ये भेद न खुलता यदि उसका लेपटाप खराब न होता। कम्पयूटर इंजीनियर ने जब लैपटॉप सुधारने के दौरान उस वीडियो क्लिप को देखा तो हैरान रह गया। उसमे करिब 200 महिलओं के साथ सेक्स वीडियो थे। उसने कुछेक वीडियो को सोशल साईट पर अपलोड कर दिया। इसके बाद हल्ला  मचा और पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया। सोशल मीडिया मे तैर रहे इन तमाम वीडियो मे से कुछ वीडियो को देखने के बाद मन विचलित हो जाता है और मन सोचने के लिए मजबूर होता है कि हमारा जन समुदाय किस ओर जा रहा है। हमारी शिक्षा का क्या औचित्य है?

गौरतलब है कि बाबा परमानंद संतान प्राप्ति सुख देने के लिए विख्यात है खास कर पुत्र प्राप्ति हेतु। दावा है कि वैदिक रीति से

तंत्रमंत्र की साधना करते है। कई केन्द्रीय और राज्य  के मंत्री  उनके मुरीद है। उनके आश्रम (अय्याशगाह) में लगी इन हस्तियो के साथ तस्वीर को देखने से उनके राजनीतिक और समाजिक हैसियत का अंदाजा लगाया जा सकता है। इन वीडियो को देखने से कही से भी ये नही लगता की यह कोई बलात्कार है, ऐसे ही एक वीडियो में एक युवती अपने अद्योवस्त्र उतारा रही है और बाबा परमानंद के अंत:वस्त्र उतारने में मदद कर रही है। बाबा लेटे हुये है युवती मुख मैथुन कर रही है। तत्पश्चात बाबा उसे बाकी वस्त्र  भी उतारने का इशारा करते है वह बिना संकोच शेष वस्त्र  भी उतार देती है। गौर तलब है की इसी दरमियान भजन गायन की ध्वनी सुनाई पड़ रही है। महसूस होता है की दूसरे कमरे मे काफी लोग भजन गा रहे है और बीच बीच मे देवी देवताओं, बाबा परमानंद की जय के नारे भी  लगा रहे है। इसी बीच बाबा युवती को अपने उपर आने का इशारा करते है उसके नाज़ुक अंगो को छेड़ते है बाद में बाबा युवती के उपर आ जाता है। करीब 24 मिनट के इस वीडियो में मैथुन पश्चात बाबा खड़ा हो जाता है युवती उसे उसके अंत:वस्त्र पहनने के लिए देती है और अपने अंत:वस्त्र पहनती है। बताना चाहूंगा की महिला के वस्त्र  पहनने के दौरान लेटा हुआ बाबा उसके नाजुक अंगो मे, सिर व चहरे पर लात फेर रहा है। मानो वह कोई पालतु जानवर हो। आश्रम का वह कमरा जहां यह स्केण्डल हो रहा है निहायत ही छोटा है देवी देवताओं की तस्वीर और धार्मिक किताबों से अटा पड़ा है। किताबों के बीच लगे सी सी टीवी कैमरे से ये सब सूट किया जा रहा था। यह सब विस्‍तार से बताने का मकसद यह है की वीडियो में कोई जोर जबरदस्‍ती नही है, जैसा की प्रचारित किया जा रहा है। 
अन्य  वीडियो मे भी इसी प्रकार की प्रक्रिया नजर आती है। महिला बदल जाती है कभी सलवार सूट मे तो कभी साड़ी मे। ये वीडियो इस लिए विचलित कर देने वाला है क्योकि बाबा परमानंद के साथ सेक्स  कर रही महिलाएं कोर्इ सेक्स वर्कर नही है, आम उच्‍च  मध्यम परिवार की है। बावजूद इसके वे इसका विरोध नही कर रही है इस लिहाज से बाबा आरोपी बिल्कुल भी नही क्योकि कानून, सहमती के साथ किये गये संबंध की इज़ाजत देता है। 
यह सब ऐसे देश मे हो रहा है जहां महिलाएं घर से बाहर अकेले नही  निकलती। कोई अगर घूर कर देख भी ले तो लोग मरने माने को उतारू हो जाते है। निश्चय ही बाबा के आश्रम में आने के लिए उस महिला ने अपनी मां, बहन, भाई, सास, ननद, पति, देवर, देवरानी, जेठानी का सहारा लिया होगा। यानि उस दौरान जब वो बाबा के साथ समागम कर रही होगी तब निहायत ही करीबी रिश्तेदार बगल के कमरे में बाबा परमानंद की जय के नारे लगा रहा होगा या भजन में लीन रहा होगा। 
यह तो तय है की ये घटना पहली नही है नही ये घटना आखरी है। क्योकि जबतक धर्म के लिए अंधभक्ति रहेगी। तब तक आशाराम, परमानंद, नित्या नंद जैसे लोग अपनी इच्छा तृप्ती करते रहेगे। गौर तलब है की ये समस्या किसी विशेष धर्म तक सीमित नही है धर्म के ठेकेदार किसी न किसी रूप से अपने भक्तो  का शारीरिक मानसिक एवं आर्थिक शोषण करते रहते है। 
क्यो होता है ऐसा?
ऐसे समय जब पाश्चात्य विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है। एक ओर भारत मे ही 70 वर्ष की महिला को चिकित्सा  विज्ञान के सहारे संतान सुख प्राप्त होने के उदाहरण मौजूद है। वहीं दूसरी ओर एक मर्द को भी बच्चे जन्म  देने का मौका मिल चुका है। ऐसी स्थिति में भारत में आये दिन ऐसी खबरे आना दुखद है। भारत का जनमानस अंधविश्वास से उबर नही पा रहा है। प्रशासन को इस पर गहराई के विचार करना होगा। हमे यह सोचने पर महबूर होना होगा की हमारी शिक्षा का क्या औचित्य है? क्या हम धार्मिक अंधविश्वास के तले आधुनिक शिक्षा को रौद रहे है? संत बाबा परमानंद से समागम करती ये महिलाएं खूबसूरत है संभ्रात परिवार की लगती है। निश्चिय ही वे पढ़ी लिखी होगी उनका परिवार भी शिक्षित होगा। तो फिर उस परिवार ने कैसे संतान प्राप्ती के लिए झाड़ फूक यज्ञ हेतु अपनी महिलाओं को सौप दिया। 
पहलू और भी है 

ऐसे देश पर जहां महिलाओं पर अत्यंत रोक टोक की जाती है उन्हे महिनो चाहर दिवारी मे कैद रखा जाता हे वही दूसरी ओर ऐसे आश्रमो में जाने की खुली छूट रहती है। भारत में आज भी संतान के लिए महिलाओं को जिम्मेदार माना जाता है, नि:संतान होने पर तरह तरह से जलील किया जाता है। यातनाएं दी जाती है। पारिवारिक, समाजिक तानो से उसका जीवन नर्क बना दिया जाता है। इन वीडियो को देखने से लगता है कि इन नरक भरी ज़िन्दगी से उबरने के लिए यदि किसी महिला को ये सब करना पड़ रहा हो, तो शायद इतना बुरा  नही है। जिना समझा जाता रहा है क्योकि ऐसा करने के लिए उसी के परिवार ने, समाज ने मजूबर किया है। 

शनिवार, 22 अप्रैल 2017

Bloody political battle of aristocrats

Right from the Vedas and the Puranas to modern literature and films, Dalits and backwards are being demeaned. How long will the Dalitbahujans continue to face this humiliation without a murmur of protest
It is election  season and the policies of different political parties pertaining to Dalitbahujans are under the scanner. At this point in time, it would only be appropriate if we try to analyse the contents of Rajneeti (Politics), a 2010 film  which was directed by Prakash Jha. Jha himself harbours political ambitions and is in the fray from the Betiah Lok Sabha constituency in Bihar as a JDU candidate.
The film portrays the north Indian political scene and exposes the bloody war for domination between political clans. The film is important not only because it mirrors Indian politics but also because it reflects the realities of Indian society. But – and this is a big but – it comes with feudal overtones.
The story goes something like this: Bharati, the daughter of a political leader, swayed by Communist ideology, turns against her father and has an affair with a much older Communist worker Bhaskar Sanyal (Nasiruddin Shah). Later, she gives birth to a boy, who is thrown into the Ganga. She is married off to Chandra Pratap for political gains.
The Pratap family lives in the capital of an unspecified Hindi-speaking state. The members of the family are active in a political party called Rashtrtavadi. Bhanu Pratap, the head of the party, is trying hard to come to power. But he suddenly falls ill and a battle starts within the family to usurp his political legacy. Bhanu Pratap  hands over the reins of the party to his younger brother Chandra Pratap. However, his son, Virendra Pratap wants to assume the leadership of the party himself and opposes Chandra Pratap.
Enter Dalit-backward leader Suraj Kumar (Ajay Devgn), whose influence is growing by the day. The film superbly portrays how the Dalits and backwards have become aware of their rights and are ready to fight for them. It also shows how, in order to undermine the real leadership of the Dalits, the political establishment promotes its Dalit flunkeys.
The film is centered on two groups, which want to establish control over the party so as to come to power. In one group are Prithvi Pratap Singh (Arjun Rampal), Samar Pratap Singh (Ranbir Kapoor) and Brijlal (Nana Patekar). The other group comprises Virendra Pratap Singh (Manoj Bajpai) and Suraj Kumar.
Prithvi and Samar are expelled from the party on the charge of undertaking anti-party activities. Then, Prithvi Pratap, along with his supporters, forms a new party Janshakti. In the bloody battle between Prithvi and Dhirendra that follows, Samar’s foreigner wife and Prithvi are killed. Virendra Pratap and Suraj are behind the murders. The film quite realistically portrays how political clans  take advantage of a murder in their families by telling voters to avenge the murder with votes, and dream of coming to power. The country’s political history is witness to many such instances.
When Brijlal comes to know that the Dalit, Suraj Kumar, is, in fact, the illegitimate son of Bharati, he sends her to Suraj with the mission to persuade him to join the Samar Pratap camp by making an emotional appeal to him. But Suraj is unmoved. In the end, Samar kills his political rivals Virendra Pratap and Suraj. Brijlal tells him, “Till your enemy is alive, you will suffer reverses after reverses. So, it is better to eliminate your enemy.” Spilling blood  is the only way they know to counter their political rivals. The logic is chilling: the path to success lies over the dead bodies of your political enemies.
Here, the character of Suraj typifies the caste Hindu mindset. Suraj is intelligent, he is shrewd and he has a deep understanding of the game of politics. He is popular among the Dalits and backwards and has the potential to script a major political upheaval. But at the end, he is shown to be an illegitimate offspring of a caste Hindu. This is an old habit of the caste Hindus. The implied message is hard to miss. If a Dalit-backward person rises in life, the blood of caste Hindus must be coursing through his veins. This serves two purposes: It demeans and humiliates the entire Dalitbahujan community and it dents his popularity among the Dalitbahujans.
The only problem is the feudal mindset that seems to inform the film’s script. The film-maker could well have spared Suraj and his backward community the humiliation heaped on them. Right from the Vedas and the Puranas to modern literature and films, Dalits and backwards are being demeaned. How long will the Dalitbahujans continue to face this humiliation without a murmur of protest?
Film : Rajneeti, Duration : 167 minutes,
Director : Prakash Jha, Producer : UTV Motion Pictures
Sanjiv Khudshah is a well-known Dalit writer

Published in the April 2014 issue of the Forward Press magazine

शनिवार, 1 अप्रैल 2017

तेज सिंह एक प्रखर आलोचक थे

तेज सिंह एक प्रखर आलोचक थे
संजीव खुदशाह
प्रसिध्‍द अम्‍बेडकरवादी पत्रिका अपेक्षाके सम्‍पादक के रूप में तेज सिंह की पहचान पूरे भारत मे थी और अभी भी है। एक सरल सादे कलेवर में निरंतर प्रकाशित होने वाली पत्रिका का सभी लेखकों पाठकों को बेसब्री से इंतजार रहता था। तेज सिंह इसके अपने लंबे सम्‍पादकीय के लिए भी जाने जाते थे। सम्‍पादकीय अक्‍सर समसामयीक होती थी।
तेज सिंह के हिन्‍दी दलित साहित्‍य में मै एक विशेष स्थान पर देखता हॅू। इसलिए क्‍योंकि वे एक न्‍याय पसंद बेबाक टिप्‍पणी कार थे, स्‍वस्‍थ आलोचक थे। जब छोटे मोटे मौकापरस्‍त साहित्‍यकार, किसी बडे साहित्‍यकारों के आभा मण्‍डल की गिरफ़्त में आकर अंध प्रशंसा में लिप्‍त रहते , ऐसे समय में तेज सिंह अकेले खड़े रहकर स्‍वस्‍थ आलोचक की भांती सही और गलत को डंके की चोट पर कहते थे।
अक्‍सर इस कारण वे स्‍वयं आलोचना के शिकार हो जाते, पत्रिका भी  आलोचना के केन्‍द्र में आ जाती क्‍योकि गैंगबाजी का शिकार बीच-बीच में साहित्‍यकार भी होते रहे है। मेरी तेज सिंह से दो तीन बार मुलाकात हुई जब भी मुलाकात हुई  हाल चाल और यहां वहां की बाते करते। अपने आपकों धीर गंभीर या हमेशा अम्‍बेडकर साहित्‍य चिंतन में खोये रहते बताने की कोशिश नही करते। अपनी पत्रिका की तरह सरल दिखाई पडते । वे बेशक आज हमारे बीच नही है लेकिन उनकी पत्रिका उनका साहित्‍य आज उनकी उपस्थिति का एहसास कराता है।
वे जब भी पत्रिका मुझे भेजते उसमें लिखा होता रचनांए भेजे साथ में यह भी लिखा होता इस वर्ष का चंदा भी भेजे। अच्‍छा लगता है यह जानकर की व्‍यक्ति स्‍पष्‍ट वादी है संकोच में अपने उपर कोई भार नही लेता, आज के महगांई जैसे युग में पत्रिका का संचालन करना सचमुच एक कठिन कार्य है वह भी बिना किसी विज्ञापन के। वैसे भी अम्‍बेडकर वादी पत्रिका को विज्ञापन देगा भी कौन?आज देश में सैंकड़ो दलित पत्रिकाएँ खुद के दम पर निकल रही है। यदि कुछेक पत्रिकाओं को छोड दे तो । मै भी याद से हर जनवरी उन्‍हे एम ओ से सदस्‍यता राशि भेज देता था। क्‍योकि पत्रिका देर सवेर मिल  ही जाती थी। और पत्रिका से साहित्‍यीक दुनिया खास कर दलित साहित्‍य की दुनिया में होने वाला हलचल का पता चल जाता था। उस समय मेरे पुराने बिलासपुर के पते पर लगभग 10 से 15 पत्रिकाएँ आती थी। लेकिन पता बदलने के कारण, एवं नया पता जो की रायपुर का है, सभी को भेजने के बाद भी ज्‍यादातर पत्रिकाएँ पुराने पते पर ही पहुँचती और मुझ तक आने में देर हो जाती।
मुझे अपेक्षा का आख़िरी अंक संख्‍या 46-47 जनवरी जून 2014 को मिला सरसरी नजर में देखा अंक अच्‍छा है। यह सोचकर की पत्रिका फूर्रसत में पढूंगा मैने दराज़ में रख लिया। फिर उनका लिखा हुआ संपादकीय पढा जो दिवंगत ओमप्रकाश वाल्‍मीकि पर केन्द्रित था। मन हुआ की तेज सिंह से फोन पर बात करूं की आपने एक अच्‍छा विश्लेषण पेश किया है बिना उनके आभा मंडल में आये। लेकिन कुछ दिन बाद खबर आई की वे नही रहे। दिनांक   15 जुलाई 2014 को उनका देहांत हो गया।
तब से मुझे लगता था की उनके उपर कुछ लिखा जाना चाहिए इसी बीच रजनी अनुरागी का फोन आया और उन्‍होने बताया की मगहर उन पर एक विशेषांक निकाल रही है। आप उन पर लिखे तो अच्‍छा रहेगा। मैने व्‍यस्‍तता के बावजूद उन्‍हे रचना भेजने का आश्‍वासन दे दिया। मै इस बात का जिक्र इस लिये कर रहा हूँ की एक ओर एड भगवान दास के जाने के बाद मौत ने दलित साहित्‍यकारों के घर का मानो रास्‍ता देख लिया हो और प्रो तुलसी राम तक लगातार दलित साहित्‍यकारों के दिवंगत हाने की दुखद ख़बरे आती रही। लगभग सभी साहित्‍यकारों पर विभिन्‍न पत्रिकाओं में विशेषांक देखने को मिला लेकिन तेज सिंह कहीं छूट जा रहे थे। मगहर ने ये कमी पूरी कर दी।
तेज सिंह अपेक्षा के इस संपादकीय में लिखते है कई बार हम लेखक को उसके व्‍यक्तित्‍व से भी जान जाते है  और कई बार उसके रचनात्‍मक लेखन से भी। लेकिन हमें यह भी ध्‍यान में रखना चाहिए कि लेखक के रचनात्‍मक लेखन में सब कुछ सच नही होता है। उसमें सच के साथ झूठ भी मिला होता है। इसलिए रचनात्‍मक लेखन सच और झूठ का मिला जुला रूप होता है। साहित्यिक भाषा में कहूँ तो वह कल्‍पना और यथार्थ का मिला जुला रूप है। यह अलग बात है कि उसमें सच कितना है और झूठ कितना , यह लेखक की रचनात्‍मक क्षमता पर निर्भर करता है कि वह सामाजिक यथार्थ के सृजन में कल्‍पना का कितना सहारा लेता है। इसलिए मेरी दृष्टि में सृजनात्‍मक लेखन के लिए तीन चीजों का होना लाज़िमी होता है- अनुभूति, कल्‍पना और विचार। इन तीनों सृजनात्‍मक शक्तियों के बिना सृजनात्‍मक लेखन संभव नही है।
ये वाक्‍य तेज सिंह की रचना प्रक्रिया में गहरी पैठ को दर्शाता है, भले ही वे किसी दूसरे संदर्भ में ये बाते कह रहे है हो लेकिन उनके उपर भी यह शत प्रतिशत सही बैठता है। ऐसा माना जाता रहा है  कि ओमप्रकाश वाल्मीकि हिन्‍दी दलित साहित्‍य के डॉन थे, किसे बनाना है किसे बर्बाद करना है वे तय करते थे। इसलिये उनके जीते जी उनसे लोग खौफजदा रहते थे। चंद ही ऐसे लेखक थे जो किसी की परवाह बगैर अपनी बात डंके की चोट पर कहते थे उनमें से एक थे तेज सिंह।
जब अपने आपको पक्‍का अम्‍बेडकरवादी, बौद्धिष्‍ठ  बताने वाले दलित साहित्‍यकार, ओमप्रकाश वाल्‍मीकि को अपनी भक्ति प्रदर्शित कर रहे थे। ऐसे वक्‍त तेज सिंह तथ्‍यों साथ अपने बात रख रहे थे। भले ही ओमप्रकाश वाल्‍मीकि बार बार यही दोहराते रहे कि मेरा मानना है कि किसी प्रकार का जातिवाद डॉं अंबेडकर दर्शन और संघर्ष के विरूध्‍द है। व्‍यक्ति स्‍वयं को अंबेडकरवादी कहता है तो उसे जातीय अहम छोड़ना होगा, जातिवादी सोच एवं मान्‍यताओं के खिलाफ खड़ा होना होगा। लेकिन वाल्‍मीकि ने की भी  अपने आपको अंबेडकरवादी नही माना। अंत तक आते आते अपने आपको दलितवादी मानने लगे थे। पृष्‍ठ 9
वे आगे बयान पत्रिका के हवाले से लिखते है कि ‘’ उसकी मृत्‍यु के बाद यही हुआ भी। उनकी तेरह वी पर आर आर एस और भाजपा के कार्यकर्ताओं ने मंत्र, शंखनाद और यज्ञ के साथ हवन किया और उस हवन कुंड में अग्नि‍ प्रज्‍ज्‍वलित करके पूर्ण आहुति दी गई। यह सब अपने आप या जबरदस्‍ती नहीं किया गया होगा बल्कि उनके परिवार की इच्‍छा के अनुसार किया गया होगा। एसा कर्मकांड उसी स्थिति में ही संभव हो सकता है जिसकी विचारधारा से लेखक व्‍यक्तिगत संबंध रहा होता है। वाल्‍मीकि भाजपा या आर एस एस से अपने राजनीतिक संबंधों को जीवन भर छुपाते रहे, लेकिन उनकी मृ‍त्‍यु के बाद हुए कर्मकांड ने जाहिर कर दिया। ’’ पृष्‍ठ 13
यह बाते भीतर तक आहत कर देने वाली है, संदेह इस बात पर जाता है क्‍या यही कारण थे की सवर्ण लेखक उन्‍हे हाथो हाथ लिया करते थे। कहीं ये एक षडयंत्र का हिस्‍सा तो नही। जबकि उसी वाल्‍मीकि समाज के प्रसिध्‍द लेखक एड भगवान दास थे उन पर ऐसा लांछन कभी नही लगा।

बहरहाल एक प्रश्‍न हमेशा मूह बांये खडा रहा है की क्‍या लेखक अपनी रचना प्रक्रिया के साथ जीता है या नही। क्‍या उसके सिद्धांत दिखावे के लिए और, अमल के लिए और होते है। या वह कोई और मुखौटा लगा कर रचना करता है और दूसरा मुखौटा लगा कर जीवन जीता है। अम्‍बेडकरी साहित्‍य  आंदोलन या जिसे दलित साहित्‍य भी कह सकते है में  ऐक समय ऐसा भी आया  जब रामदास आठवाले, उदित राज जैसे लोगों ने अपना नक़ाब हटाया और सिद्धांत को लात मारकर पद प्रतिष्‍ठा अपनाया। तब लोगों ने अपने आप को छला हुआ महसूस किया। दो मुखौटे का आरोप प्रगतिशील लेखकों सहित कम्‍युनिष्‍ट लेखकों पर भी लगे। उनका पर्दाफ़ाश भी होता रहा। कम्‍युनिष्‍ट आंदोलन शायद इन्‍ही मौकापरस्‍तों सिद्धांत वादियों के कारण अंतिम सांसे गिन रहा है । ऐसे दो मुखौटे वाले रचना कारों का निरंतर पर्दा फास होना भी चाहिए। लेकिन ऐसे मुखौटों की दुनिया में बहुत ऐसे भी रचना कार है जिनकी  लेखनी और करनी में फर्क नही है। शायद आज ऐसे रचना कारो की बदौलत ही अंबेडकरी आंदोलन जिन्‍दा है और फल फूल रहा है। वरना नाम, दाम और इनाम के लालच में सिंद्धात को किताबों में दफन करने वाले छद्म रचना कार भी कम नही है।  निस्संदेह तेज सिंह एक ऐसे ही सच्‍चे रचना कार थे। जिनकी लेखनी और करनी में अंतर नही था। ऐसे रचना कार तेज सिंह को मेरा क्रांतिकारी सलाम।

सोमवार, 20 जून 2016

शनि शिंगणापुर और हाजी अली में प्रवेश पर महिलाओं के संघर्ष का सच


संजीव खुदशाह
सन 1645 के आस पास शिंगणापुर गांव के पारस नाले में एक शिला बहकर आई और एक दिवा स्वप्न के आधार पर उस शिला को शनि के रूप में पूजा जाने लगा। जो बाद में शनि
शिंगणापुर के नाम से प्रसिध्द हुआ। इसी प्रकार स्वप्न को आधार बताते हुये मूर्ति मिलना उसपर मंदिर निर्माण होना भारत में कोई नई घटना नही हैसत्य कथा एवं टीवी चैनलों में ऐसे समाचार आते रहते है। शनि शिंगणापुर इस लिए चर्चा में नही है कि उसकी शिला किसी पारस नाम के नाले में मिली बल्कि वह इस वजह से चर्चा में है क्योंकि उसकी पूजा करने की चेष्टा एक महिला ने की है। चर्चित होने का कारण भी  किसी आश्चर्य से कम नही, उस पर भी चर्चा का मुद्दा ये की बराबरी के लिए महिलाएं शनि मंदिर में प्रवेश का प्रयास करना चाहती है। जो अधिकार उसे संविधान ने दिया है। कोई ये नही बता रहा है कि देश में उससे भी प्राचीन शनि मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश पूजा पर कोई रोक टोक नही है।
ठीक यही कहानी हाजी अली दरगाह की भी है पूरा देश जानता है कि ज्‍यादातर दरगाह में महिलाओं का प्रवेश एक आम बात है। मगर इसके पहले यह जानना दिलचस्प है कि दरगाह के संचालकों ने इस बात की साफ अनदेखी की है कि अजमेर शरीफ का बहुचर्चित दरगाह- जहां पर हिंदू और मुसलमानदोनों लाखों की तादाद में हर साल पहुंचते हैं- वहां पर ऐसी कोई पाबंदी कभी नहीं रही है और न ही मुंबई के माहिम में स्थित मखदूम शाह की दरगाह पर ऐसा कोई प्रतिबंध है। यहां बनी मजार तक महिलाएं बिना रोक-टोक पहुंचती हैं। लेकिन हाजी अली दरगाह में महिलाओं को प्रवेश पर पाबंदी है। कुछ मुस्लिम महिलाये प्रवेश हेतु आंदोलन कर रही है। यहां भी मुद्दा वही बराबरी का है। मजेदार बात ये है की दोनो संघर्ष एक ही समय में चालू किये गये। दोनो संघर्षो में कुछ समानताएं भी है।
शनि शिंगणापुर की घटना को कतिपय प्रगतिशील हिन्दु  इसे महिलाओं का ऐतिहासिक आंदोलन बता रहे है वे कहते है कि महिला अपने हक के लिए लड़ रही है। वे उनकी पीठ थप-थपाने का कोई भी मौका हांथ से गवांना नही चाहते।
दरअसल शनि शिंगणापुर में इस आंदोलन से पूर्व एक रोचक घटना घटी एक महिला ने 28 नवंबर 2015 को शनि चबुतरे में चढ़कर शनि की पूजा अर्चना की थी। CCTV फुटेज से ये मामला सामने आया और विवाद बढ़ने लगा। मंदिर ट्रस्ट ने अपने सेवादारों को निलंबित कर दिया और ये माना की शनि शिला अशुध्द हो गई। दूसरे दिन कई टन दूध से उस मंदिर को धोकर पुन: अभिषेक किया गया। यह भारत की हिन्दू महिला के लिए सबसे शर्म का दिन था। यहां बताना अत्यंत जरूरी है कि 28 नवंबर को महात्मा फुले की पुन्यतिथी भी है। प्रश्न उठना लज़मी है की क्या वह महिला महात्मा फूले के विचार से प्रेरित थी। या ये सिर्फ एक इत्तेफ़ाक है। दरअसल जो लोग महात्मा  ज्योतिबा के विचार से परिचित है वे जानते है कि त्योतिबा ने समानता के हक के लिए कभी भी मंदिर जाने की बात नही कही, वे समानता के लिए स्कूल जाने की बात कहते थे। शनि शिगणापुर मंदिर प्रवेश को लेकर आंदोलन कर रही भूमाता ब्रिगेड की मुखिया श्रीमती तृप्ति देसाई के बारे में बतादू की वे अन्ना की शिष्या है वे अन्ना के विभिन्न आंदोलनो में उनके साथ देखी गई। वैसे उनका खास बौध्दिक बेकग्राउण्डक क्या है बतना कठिन है। लेकिन ऐसे वक्त  जब छत्तीसगढ़ में सी आर पी एफ के जवानो द्वारा  आदीवासी महिलाओं के स्तन निचोड़कर यह देखा जा रहा है की वे शादी शुदा है या नहीजब हर घंटे एक दलित महिलाओं के साथ बलात्कार हो रहा होद्रोणाचार्य रूपी व्यवस्था द्वारा छात्र रोहित का गला घोटा जा रहा हो ऐसे समय इन मुद्दो पर मौन रहते हुये कुछेक महिलाओं का मंदिर मजार प्रवेश हास्या‍स्पद लगता है। उस पर भी इलेक्ट्रानिक मीडिया द्वारा इन्हे  हाथो हाथ लेना प्रायोजि‍त जैसा प्रतीत होता है। ऐसा लगता है की मंदिर प्रवेश का आंदोलन दरअसल मुख्य मुद्दे से ध्यान हटाने की कोशिश मात्र है। ताकि रोहित वेमुलाआदिवासी महिलाओंदलितों अल्पसंख्यको के मुद्दो से ध्यान भटकाया जा सके। क्योकि मंदिर आंदोलन इससे पहले भी हो चुके है, खुद डॉं अंबेडकर ने दलितों शूद्रों के लिए मंदिर प्रवेश आंदोलन किया था लेकिन मकसद पूजा नही समानता का था। दरअसल डॉं अम्बेडर, महात्‍मा फूले जैसे तमाम समतावादी विचारक यही मानते थे । की जो धर्म तुम्हे नीच और पतीत कहे वो तुम्हारा हो ही नही सकता। तुम उसका बहिष्कार करो। यदि भू माता ब्रिगेड की महिलाये ये किसी वैचारीक आंदोलन से प्रेरित होती तो इस व्यवस्था का बहिष्कार करती। लेकिन वे मंदिर प्रवेश एवं पूजा का अधिकार चाहती है। जिसे प्रवेश उन्हे प्रायेाजित कार्यक्रम के अनुसार देर सवेर दिया जाना ही है। वैसे भी बढती वैज्ञानिकता और समतावादी विचारधारा ने महिला वर्ग को जागृत किया है ऐसे वक्‍त अपनी तुछ परंपराओं को जीवित रखने के लिए प्रवेश देना उनकी मजबूरी है।
बेहतर होता महिलाएं अपने मानव होने के अधिकार को मांगती उनके स्पर्श से अशुध्द होने वालो का बहिस्कार करतीवे उन ग्रंथो को प्रति‍बंध लगाने की मांग करती जो उन्हे‍ नरक का द्वार कहती, पशु का दर्जा देती। वे ऐसी किताबो को मानने से इनकार करती जो उसे इद्दत की मुद्दत तथा हलाला  के लिए मजबूर करती। 

राष्ट्रीय समाचार पत्र देशबंंधु में प्रकाशित

गुरुवार, 17 मार्च 2016

विश्‍वविद्यालय की आंधी से किसको खतरा

विश्‍वविद्यालय की आंधी से किसको खतरा
संजीव खुदशाह
विगत दिनों देश में ज्ञानार्जन संस्‍थान विद्रोह और दमन के केन्‍द्र बने हुये है। हैदराबाद विश्‍वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की आत्‍महत्‍या से ये मुआमला तूल पकड़ने लगा।  लेकिन यदि हम कुछ साल पीछे की  घटनाओं को गौर करे जैसे महाराष्‍ट्र के शिरडी में एक दलित छात्र की हत्‍या सिर्फ इस लिये कर दी गई क्‍योकि उसने मोबाईल पर अंबेडकर की रिंग टोन लगा रखी थी। उसी प्रकार मद्रास आई आई टी के अंबेडकर पेरियार स्‍टुडेन्‍ट सर्कील के छात्रो द्वारा सरकार की आलोचना करने पर उसे मानव संसाधन कार्यालय के निर्देश पर बैन कर दिया गया। प्रतिबंधित दल का कहना है कि वे जाति प्रथा आधारित भेदभावहिंदी भाषा थोपे जानेबीफ बैन और शिक्षा में आरक्षण जैसे मुद्दों पर सरकार की नीतियों से अपना मतभेद व्यक्त कर रहे थे और लेकिन उसे "घृणा फैलाने की कोशिश" बताया गया है. आईआईटी मद्रास पर पहले भी सालों से ब्राह्मणवादी रवैया" रखने का आरोप लगता आया है. एपीएससी के सदस्य मानते हैं कि उन्होंने कोई भी असंवैधानिक काम नहीं किया है।
(यहां ब्राम्‍हणवाद से तात्‍पर्य किसी जाति विशेष से नही बल्कि उस विचारधारा से है। जो अंधविश्‍वास, ऊंच-नीच, व्‍यक्तिवाद, जातिवाद, सामंतवाद, रंगभेद, लिंग भेद आदि को बढ़ावा देती है।)
विश्‍वविद्यालय में वैचारिक स्‍वतंत्रता पर हमले
यहां बताना आवश्‍यक है कि ब्रिटिश काल में हमारे देश के लोग आक्‍सफोर्ड ओर केम्‍ब्रीज में पढ़ने के लिए जाते थे। सावरकरजी भी वहां पढ़ने गये थे। वहां उन्‍होने प्रसिध्‍द किताब Indian war of Independence-1875 लिखा। वहां उनके द्वारा फ्री इंडिया सोसायटी की स्‍थापना किया गया । विश्‍वविद्यालय के भारतीय छात्र ब्रिटिश सरकार के दमन और भारत के स्‍वतंत्रता पर विचार विमर्श और गोष्ठियां करते थे। किन्‍तु ब्रिटिश सरकार या विश्‍वविद्यालय प्रशासन ने कभी इन गतिविधियों को देश द्रोह के रूप में नही देखा।  जबकि उस वक्‍त भारत ब्रिटेन का अभिन्‍न अंग था।  इन विश्‍व विद्यालयों की लोकताँत्रिक व्‍यवस्‍था इसलिए महान है क्‍योकि उनकी मान्‍यता है कि विश्‍वविद्याल खुले विमर्श का धरातल है कोई निजी कोचिंग सेन्‍टर नही। विश्‍वविद्यालय को किसी विचार धारा विशेष धर्म विशेष के दायरे में बांध ने का अर्थ हे उसके प्रतिमानों को विमर्श को ज्ञान को संकुचित कर देना। इसलिए इसमे कोई आश्‍चर्य नही की विश्‍व की 100 चोटी के विश्‍वविद्यालयों में भारत का एक विश्‍वविद्यालय शामिल नही हो सका।
 दुनिया के किसी विकसित और लोकताँत्रिक देश के विश्वविद्यालयों को देख लीजिए। अमेरिका में तो तीन-तीन बड़े छात्र आंदोलन हो चुके हैं। सबसे पहला 1965 के अमेरिका-वियतनाम युद्ध के समय। इसमें मिशिगन यूनिवर्सिटी के छात्रों ने युद्ध के खिलाफ प्रदर्शन किया। आपको पता होगा कि यह लड़ाई अमेरिका हार भी गया था। कोई देशद्रोह का केस नहीं हुआ। दूसरा 1965-73 में हुआ। लेकिन कोई देशद्रोह नहीं माना गया। तीसरा कोलंबिया यूनिवर्सिटी में साल 1968 में हुआ। दरअसल कुछ हथियार कंपनियों ने वियतनाम में अमेरिका को लडऩे के लिए उकसाया था। यह उनके खिलाफ था। इसमें भी अमेरिका विरोधी नारे लगाए गए। पर कोई केस नहीं दर्ज किया गया। फिर 2003 में पूरे अमेरिकी विश्वविद्यालयों में इराक युद्ध के विरोध में प्रदर्शन हुए।
ब्रिटेन के ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में तो बकायदे आयोजन होते हैं जिसमे सरकार और उसकी नीतियों की खुलकर आलोचना होती है,विमर्श होता है। कुछ लोग यह भी दलील देने लगे है कि जेएन यू जनता के टैक्स से चलता है। उनके लिए जवाब है कि जैसे जनता के पैसे से नेता लोगों को सुविधाएँ भोगने का हक है उसी तरह विश्वविद्यालयों को चलने का भीबल्कि यह तो शिक्षा पर खर्च हो रहा।
खतरा कन्‍हैया कुमार से है या कम्‍युनिष्‍ट विचार धारा से?
दरअसल  भारत में दो विचारधारा चल रही है एक मनुवादी विचारधारा दूसरी अंबेडकरवादी विचार धारा। मनुवादी विचार धारा जिसे हम ब्राम्‍हणवादी विचारधारा भी कहते है। ब्राम्‍हणवादी  विचारधारा से कभी भी गांधीवादी या समाजवादी विचारधारा से खतरा नही रहा है न ही वे कम्‍युनिष्‍ट विचारधारा से घबराये है। क्‍योकि भारतीय कम्‍युनिष्‍ट विचारधारा मनुवाद को बचाने का ही काम करता रहा है। ज्‍यादातर भारत के कम्‍यूनिष्‍ट  विचारक यही मानते रहे है की भारत मे जाति शोषण कोई समस्‍या है ही नही। यदि है भी तो पूंजीवाद और साम्राज्‍यवाद के खत्‍म हो जाने पर सब समस्‍या खत्‍म हो जायेगी। वे जानबूझ कर भारत में ऊँच नीच छुआ छूत को नजर अंदाज़ करते रहे क्‍योकि ये विचारक उन्‍ही शोषक तबके से आते थे। यानि वे किसी न किसी रूप में ब्राम्‍हणवाद को बचाने का काम करते रहे। लेकिन अब कम्‍युनिष्‍ट विचारधारा का एक धड़ा ब्राम्‍हणवाद को खत्‍म करने पर जोर दे रहा है।
देश में इसी तारतम्‍य में कई घटनाएँ लगातार घटी है महाराष्‍ट्र  में अम्‍बेडकरी रिंग टोन रखने पर छात्र की हत्‍यातमिलनाडु में अम्‍बेडकर पेरियार स्‍टुडेन्‍ यूनियन पर प्रतिबंधहैदराबाद में दलित छात्र रोहित वेमुला की तरह तरह से विश्‍वविद्यालय प्रशासन के द्वारा प्रताडि़त किया गया तत्‍पश्‍चात उसकी आत्‍म हत्‍या। इसके बाद जे एन यू छात्र संघ अध्‍यक्ष कन्‍हैया कुमार को रोहित के साथ खड़े होने पर देश विरोधी नारे लगाने के आरोप में गिराफतारी।
इन घटनाओं को सिल सिलेवार देखने एवं उसका विश्‍लेषण करने पर एक खास  बात नजर आती है वह है अंबेडकर फूले पेरियार की विचार धारा । हालांकि कन्‍हैया कुमार जो कि जे एन यू छात्र संघ के अध्‍यक्ष है तथा भारतीय कम्‍युनिष्‍ट पार्टी के छात्र संगठन ए आई एस ए‍फ से चुन कर आये है।
कन्‍हैया को षडयंत्र में फँसाने का कारण
रोहित के मौत के बाद कन्‍हैया खुल कर प्रशासन का विरोध करता रहा वह आज़ादी के लगातार नारे भी लगाता रहा। उसके नारे है
ब्राम्‍हणवाद से आज़ादी, मनुवाद से आज़ादी, सामंतवाद से आज़ादी, रोहित हम शर्मिंदा है, द्रोणाचार्य अभी भी जिन्‍दा है। आदि आदि ।
इन आधारो पर उस पर देश विद्रोही होने का केस नही दर्ज किया जा सकता था। लेकिन मनु वादियों की जड़े हिल रही थी उन्‍हे लग रहा था कि यदि ऐसा चलता रहा तो वो दिन दूर नही जब यहां से ब्राम्‍हण वाद की अर्थी निकलेगी। भारत के इतिहास में पहली बार खुल कर ब्राम्‍हणवाद के विरोध में नारे लगे और ब्राम्‍हणवाद पर चर्चा हाने लगी। इसी बीच एक ब्राम्‍हणवादी मीडिया एक्‍सपर्ट शिल्‍पी तिवारी ने कन्‍हैया के नारे लगाने वाले वीडियो में छेड़छाड़ कीदेश विरोधी एवं पाकिस्‍तान के पक्ष में नारे लगाते ऑडियो को उस वीडियो मे फिट किया। सोची समझी साज़िश के तहत जी न्‍यूज समेत कुछ ब्राम्‍हणवादी चैनलों ने इसे खूब दिखाया ताकि कन्‍हैया एवं उसके साथियों को देश द्रोही साबित किया जा सके। आनन फानन उसे जेल में डाल दिया गया। उस पर देश द्रोह की धारायें लगाई गई। इस बीच मनु वादियों ने सोशल मी‍डिया पर खूब तांडव मचाया उस वीडियो को नये नये जुमले के साथ खूब शेयर किया । लोगो को गुमराह करने में कोई कसर नही छोड़ी। इस दरमियान कन्‍हैया का आोरिजिनल वीडियो सोशल मीडिया मे तैरने लगा। कुछेक इलेक्‍ट्रानिक मीडिया ने भी वीडियो के साथ की गई छेड़ छाड़ को विस्‍तार से दिखाया। कन्‍हैया रिहा हुआ और एक नये तेवर के साथ सामने आया।
इस घटना को कम्‍युनिष्‍ट पार्टी ने लेफ्ट के उभार के रूप में देखा। सीताराम येचुरी ने घोषणा तक कर दिया की कन्‍हैया कम्‍युनिष्‍ट पार्टी के लिए चुनाव प्रचार करेगे। गौर तलब है कि कम्‍युनिष्‍ट पार्टी आफ इंडिया ने अब तक अपने पत्‍ते नही खोले है की वे हमेशा की तरह मनुवाद के पक्ष में रहेगा की कन्‍हैया की तरह अम्‍बेडकरवाद के पक्ष में। वे सिर्फ ये सोच रहे है की कन्‍हैया की लोकप्रियता का फायदा अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेकने मे कैसे करे।
शासन प्रशासन में बैठे ब्राम्‍हणवादी  लोग ये भली भॉंती जानते है की तर्क विमर्श से अंबेडकरवाद का मुकाबला नही किया जा सकता वे ब्राम्‍हणवाद को बचाने के लिए तीन ढाल का इस्‍तेमाल करते है। 1. संस्‍कृति के नाम पर 2. धार्मिक भावना के नाम पर 3. हिन्‍दू राष्‍ट्रवाद के नाम पर।  इसलिए वे महिषासुर दिवस मनाये जाने पर घबराते है। इसलिए वे बीफ पार्टी के नाम पर कतराते हैइन्‍हे देश द्रोही साबित करने में तुल जाते है क्‍योकि उनको वास्‍तविक खतरा देशद्रोहियों से नही बल्‍की समतावादी विचारधारा अंबेडकरवाद से है। जो जाति भेदलिंग भेदरंगभेदक्षेत्र भेद को खत्‍म करने की बात करता है और इन भेद को खत्‍म करने का मतलब है मनु वादियों को मुफ्त की सुविधाएँमलाई मिलना  बंद  होना।
यह तो तय है की समता वादी विचार धारा की आंधी आ चुकी है। पिछले साल विभिन्‍न विश्‍वविद्यालय  समेत करीब 300 स्‍थानो में महिषासुर दिवस मनाया गया। मनुस्‍मृति दहन दिवस हर साल जोर शेार से मनाया जाता है। अम्‍बेडकर परिनिर्वाण दिवस में हर साल 20 से 30 लाख लोग चैत्‍य भूमि में शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने जाते है। भले ही मीडिया इन्‍हे जगह न दे रहा हो लेकिन वे जानते है शिक्षण संस्‍थानो से ब्राम्‍हणवाद की जड़े हिलने लगी है।
कन्‍हैया कुमार बिहार की भूमि हार जाति से ताल्‍लुख रखते है प्रख्‍यात लेखक श्री रजनीकांत शास्‍त्री अपनी किताब हिन्‍दू जाति का उत्‍थान पतन में कहते की शास्‍त्रो के अनुसार भूमिहाल(भूमिहार) एक शूद्र जाति है। हालांकि जोत अधिनियम लागु होने के कारण ये जातियां सम्‍पन्‍न हो गई। भूमिहार अन्‍य छोटी जातियों की भांती कभी क्षत्रिय तो कभी ब्राम्‍हण हाने का दावा करती रही है। लेकिन क्षत्रिय या ब्राम्‍हण से इनके वैवाहिक संबंध नही बनाते है।
श्री रजनी कांत शा‍स्‍त्री लिखते है कि भूमिहाल शब्‍द सेजिसका अपभ्रंश भूमिहार शब्‍द बना। वे भूमि पृथ्‍वी लक्षणया क्षेत्र हलति हलयं क्षेत्र कर्पति इति भूमिहाल:भूमिहल (कर्षर्ण) अण्‍ कर्म्‍मण्‍यण 3/2/1 इति पाणिनि सूत्रस्‍थ प्रवृति रूप पद समास:’ का हवाला देते है।
जे एन यू समेत कन्‍हैया के अम्‍बेडकरी विचारधारा में आने की घटना को देश का विशाल समतावादी समुदाय बड़ी आशा की नजर से देख रहा है। उनमें एक शोषितो का नेता नजर आ रहा है। तो दूसरी ओर कुछेक लोग शंका की निगाह से भी देख रहे है। वे तर्क देते है कि जन समर्थन के लिए अंबेडकर का नाम लिया जा रहा है कन्‍हैया दबंग जाति से है उनका वास्‍तव में अंबेडकर से वास्‍ता नही है।
दरअसल विचार धारा किसी जाति या संप्रदाय की मोहताज नही होती जिस प्रकार ब्राम्‍हणवादी  होने के लिए ब्राम्‍हण होना जरूरी नही है। उसी प्रकार अम्‍बेडकरवादी होने के लिए किसी जाति विशेष में जन्‍म लेना जरूरी नही है। यह तो तय है कि जो बीज रोहित वेमुला ने बोया है वह तमाम विश्‍वविद्यालय में कन्‍हैया के रूप में फल फूल रहा है। यह आंधी अब चल चुकी है इससे खतरा सिर्फ और सिर्फ ब्राम्‍हणवाद को हैजो अपने आपको बचाने के लिए हिन्‍दू राष्‍ट्रवाददेशद्रोह जैसे ह‍थियार का प्रयोग करेगा। जिसकी पोल जे एन यू की घटना से पहले ही खुल चुकी है। ब्राम्‍हणवाद की कोशिश रहेगी की अम्‍बेडकरवाद, फूलेवाद, कम्‍युनिष्‍ट जैसी प्रेगतिशील विचार धारा कभी एक नह हो पाये।

शनिवार, 30 जनवरी 2016

आजाद भारत में आखिर तर्कशील लोगों की हत्यायें क्यो हो रही है?




धर्मांधता पर प्रहार 


हम तेजी से एक ऐसा समाज बनते जा रहे हैं, जिसमें मतभेदों को तर्क और बहस से नहीं बल्कि गोलियों से सुलझाया जाता है

मेरे मोबाइल में वाट्सएप में कुछ महीनों पूर्व एक संदेश आया, जिसका शीर्षक था, ”भारत में विज्ञान ने जनेऊ पहन लिया और चुटिया रख ली है’’। संदेश में उच्च शिक्षण संस्थानों में धर्म के बोलबाले को उजागर किया गया था। इस संदेश का एक पैराग्राफ मैं उदृत करना चाहूंगा:
”गीता के 18वें अध्याय में प्रभु ने चार वर्णो की स्थापना की है और हर वर्ण के कर्तव्य बताएं है। ऐसा एक आईआईटी की साईट पर दर्ज है। लिंक खोलिये और पढिय़े।’’ उसी तरह दिल्ली आईआईटी के मुख्य द्वार के पास से गुजऱते हुऐ शनि मंदिर में विद्यार्थियों की भीड़ को देखकर आप सोच में पड़ जायेगें। हाय रे, भारतीय विज्ञान।
इस संदेश का जिक्र मैं इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि यह दृश्य भारत के ऐसे उच्च शिक्षा संस्थान का है, जहां से निकले विधार्थी देश के सबसे अधिक प्रतिभाशाली व शिक्षित नागरिक माने जाते हैं। गौरतलब है कि इस संदेश में बताये लिंक (www.gitasupersite.iitk.ac.in/srimad) को जब मैने खोला तो पाया की संदेश में कही गई बातें बहुत हद तक सही हैं।
यह मुद्दा कितना गंभीर है इसका अंदाज़ा आप अंधविश्वास-विरोधी कार्यकर्ताओं की संघर्ष गाथाओं से कर सकते हैं, जिनमें से तीन को इस मुहिम में अपनी जानें तक गंवानी पड़ीं।

डॉं नरेन्द्र दाभोलकर (1 नवम्बर 1945 – 20 अगस्त 2013)

NarendraDabholkarडॉं नरेन्द्र दाभोलकर ‘महाराष्ट्र अंधविश्वास निर्मूलन समिति’ के संस्थापक एवं अध्यक्ष और ‘साधना’ के संपादक थे। वे तर्कवादी मराठी लेखक थे। वे साहित्य के क्षेत्र में एक बड़ा नाम थे और महाराष्ट्र में नर बलि, जादू -टोना और काले जादू जैसी कुप्रथाओं के खिलाफ चलाए जा रहे आंदोलनों के अगुआ माने जाते थे। उनके इस प्रयास को कुछ ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ संगठनों का विरोध भी झेलना पड़ा था। पुणे में दिन-दहाड़े अज्ञात हमलावरों ने गोली मार कर उनकी हत्या कर दी।
डॉ नरेन्द्र दाभोलकर के प्रयासों के चलते जल्द ही महाराष्ट्र सरकार विधानसभा में जादू टोना निरोधक विधेयक लाने जा रही थी। दाभोलकर पिछले 16 साल से काले जादू के खिलाफ एक कड़े कानून की मांग कर रहे थे।
दाभोलकर के नेतृत्व में ‘अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति’ समाज की मानसिकता को बदलने एवं लोगों में वैज्ञानिक सोच विकसित करने के लिए काम कर रही थी।
इस त्रासदी का एकमात्र सुखद पहलू यह है कि उनकी शहादत के बाद महाराष्ट्र विधानसभा ने अंधविश्वास विरोधी विघेयक पारित कर दिया। 2014 में उन्हें मरणोपरांत पद्मश्री से सम्मानित किया गया। अब यह देखना बाकी है कि अन्य राज्य कब तक ऐसे कानून लागू करते हैं।

गोविंद पानसरे (26 नवंबर, 1933 – 20 फरवरी, 2015)

govind-pansareकम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के वरिष्ठतम सदस्यों में से एक गोविंद पानसरे अंधविश्वास के खिलाफ मुहिम चलते थे। पानसारे एक वैचारिक योद्धा थे और उन्होंने तकरीबन 21 किताबें लिखीं थीं। उनमें से सबसे ज्यादा चर्चित महाराष्ट्र के इतिहासपुरुष छत्रपति शिवाजी पर उनकी किताब ‘शिवाजी कौन होता?’ थी। इस पुस्तक में उन्होंने शिवाजी के बारे में सांप्रदायिक ताकतों द्वारा फैलाए गए झूठ का पर्दाफाश किया था। उनकी इस किताब की एक लाख से ज्यादा प्रतियाँ बिक चुकी हैं।
कोल्हापुर में अज्ञात हमलावरों ने पानसरे की हत्या कर दी। उनकी हत्या के बाद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा कि पानसारे की हत्या के लिए प्रतिक्रियावादी ताकतों सहित पूरी व्यवस्था जिम्मेदार है। वे महाराष्ट्र में सांप्रदायिकता के खिलाफ भी काम कर रहे थे। वे भी दाभोलकर की तरह महाराष्ट्र में जागरूकता पैदा कर रहे थे। दोनों की हत्या तथाकथित प्रगतिशील तबके के लिए चुनौती है।

एमएम कलबुर्गी (28 नवम्बर,1938 -30 अगस्त, 2015)

mm kalburjiप्रख्यात चिंतक, हम्पी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति व अंधविश्वास तथा मूर्तिपूजा के खिलाफ मुहिम छेडऩे वाले एमएम कलबुर्गी 77 वर्ष के थे। वे एक प्रसिद्ध विद्वान और शोधकर्ता थे तथा धार्मिक-सामाजिक समानता के पक्षधर थे। वे अपनी बेबाक और स्पष्ट टिप्पणीयों के लिए कई बार विवादों में घिर चुके थे। उन्हें केंद्रीय और राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कारों से नवाज़ा गया था। कलबुर्गी की 30 अगस्त, 2015 की सुबह कर्नाटक के धारवाड़ स्थित उनके आवास पर कुछ अज्ञात बंदूकधारियों ने गोली मारकर हत्या कर दी। पुलिस के अनुसार, सुबह 8.40 बजे उन्हें गोली मारी गयी और अस्पताल ले जाने के दौरन उनकी मृत्यु हो गयी।
हम तेजी से एक ऐसा समाज बनते जा रहे हैं जिसमें मतभेदों को तर्क और बहस से नहीं बल्कि गोलियों से सुलझाया जाता है।
बजरंग दल ने कलबुर्गी की हत्या को सही ठहराया और यह धमकी दी कि धर्म के विरूद्ध बोलने वालों की इसी तरह हत्यायें होंगीं। हालांकि धमकी देने वाले को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया, लेकिन हत्यारे आज भी पुलिस की गिरफ़्त से बाहर हैं।

डॉं नरेन्द्र नायक

Narendra Nayakडॉं नरेन्द्र नायक मूल रूप से गोवा निवासी हैं लेकिन उन्होंने अपना अंधविश्वास-विरोधी अभियान कर्नाटक से प्रारंभ किया। वे मेडिकल कॉलेज के प्रोफेसर की नौकरी छोड़ कर अपना पूरा जीवन आमजनों को विज्ञान के सिद्धांतों से परिचित करवाने और अंधविश्वास के खतरों के प्रति आगाह करने में व्यतीत कर रहे है। वे डॉं नरेन्द्रा दाभोलकरकी विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। वे ‘भारतीय तर्कशील समाज’ के अध्यक्ष हैं। उन्होंने भारतीय टीवी चैनलों सहीत डिस्कवरी चैनल के लिए भी अंधविश्वास-विरोधी कार्यक्रम तैयार किये हैं। वे लगभग 16 भाषाएँ जानते हैं और विश्व भर में अपने कार्यक्रम करते हैं। उनकी जान को भी खतरा है। हाल ही में उन्होंने एक नये प्रकार के अंधविश्वास ‘मिड ब्रेन एक्टीवेशन’(तीसरे नेत्र को सक्रिय करना) का पर्दाफ़ाश किया है।

भंते बुद्ध प्रकाश

बिहार अल्पसंख्यक आयोग व साइंस फॉर सोसाइटी के पूर्व सदस्य, पटना निवासी भंते बुद्ध प्रकाश ने अंधविश्वास के खिलाफ पूरे देश में जंग छेड़ रखी है। वे पिछले कई वर्षो से देश के विभिन्न राज्यों में जागरूकता फैलाने का काम कर रहे हैं। उन्होंने इस अभियान को ‘अंधविश्वास भगाओ, देश बचाओ’ का नाम दिया है।
किसी भी क्षेत्र में डायन-बिसाही की घटना या अन्धविश्वास-जनित अपराध की सूचना मिलने पर भंते बुद्ध प्रकाश वहांbudhprakash पहुंचते हैं और लोगों को जागरूक करते हैं ताकि घटना की पुनरावृति नहीं हो। बुद्ध प्रकाश का मानना है कि ओझा, बैगा व भगत आदि ही सर्वप्रथम किसी औरत को डायन की संज्ञा देते है और अन्य लोग उन पर विश्वास कर लेते हैं। किसी की मौत बीमारी या दुर्घटना से हो सकती है, भूत-प्रेत व डायन से नहीं। वे कहते हैं कि अंधविश्वास पीढ़ी दर पीढ़ी समाज में जड़ जमाए हुए है। व्यापक पैमाने पर जागरूकता अभियान चलाकर ही इसे समाप्त किया जा सकता है। लोगों में वैज्ञानिक सोच को विकसित करना होगा।
यह त्रासद और विडम्बनापूर्ण है कि भारत में लोकतंत्र होने के बावजूद वैज्ञानिक सोच के समर्थकों को इस तरह का संघर्ष करना पड़ रहा है। दरअसलए तलवार उन सब लेखको-पत्रकारों-वैज्ञानिको पर लटक रही है, जो धर्म के आगे घुटने नही टेकते, जो सच्चाई का दामन थामे हुये है और आम लोगो को आगाह कर रहे हैं। वरिष्ठ लेखक उदय प्रकाश ने कुलबर्गी की हत्या के विरोध में साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया है। ये सारे लेखक- आंबेडकरवादी, सत्यसशोधक, तर्कशील-अपने कदम पीछे खींचने के लिए तैयार नही हैं, क्योकि वे जानते है कि वे अंधविश्वास के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़ रहे हैं। 17वी शताब्दी में ऐसी ही लड़ाई यूरोप में लड़ी गई थी। इसके बाद वहां के लोग विज्ञान और धर्म के बीच फर्क करना सीख गये। इसके बाद यूरोप में एक नए युग की शुरुआत हुई, अविष्कारों और खोजों के युग की, ऐसे युग की, जिसने ज्ञान को नए आयाम दिए।
फारवर्ड प्रेस के अक्टूबर, 2015 अंक में प्रकाशित

रविवार, 18 अक्तूबर 2015

बहुजन साहित्य की अवधारण

ओबीसी साहित्य की जरूरत
  • संजीव खुदशाह
चाहे इसे माने या न माने लेकिन ये बात तय है कि आज जो बहुजन साहित्य की अवधारणा की बात चली है उसके मूल में दलित साहित्य का कान्सेप्ट है। दलित साहित्य ने जिस मज़बूती के साथ साहित्य जगत में अपनी पैठ बनाई है उससे अन्य पीड़ित वर्ग निश्चित रूप से औचक है। और वह परोक्ष अपरोक्ष रूप से इस साहित्यिक मुहिम का हिस्सा बनना चाहता है। वह दलित साहित्य में दर्ज पीडा और विद्रोह को अपना समझता है लेकिन वह कोशिशों के बावजूद इसका हिस्सा नही बन सका। इसके कारणों पर मैं बाद में चर्चा करूगां। इसके पहले ये चर्चा जरूरी है कि बहुजन साहित्य की अवधारणा की जरूरत क्यो है?
मैं समझता हूँ बहुजन साहित्य की अवधारणा के दो महत्वपूर्ण कारण है पहला ओबीसी को दलित साहित्य में स्थान न मिल पाना। दूसरा सवर्ण (द्विज) साहित्य (वर्तमान में मुख्यधारा का साहित्य) में ओबीसी साहित्य की अभिव्यक्ति की संभावना शून्य होना। मै ओबीसी साहित्य की उपस्थिति का समर्थक हूँ लेकिन ये साहित्य दलित साहित्य से किस प्रकार भिन्न होगा फिलहाल इस पर बात करना जल्दबाजी समझता हूँ। तीसरा कारण है एक ऐसे सा‍हित्यिक छतरी का के निर्माण की आवश्यकता होना जिसमें सभी गैरब्राम्हणवादी साहित्य समाहित हो जाये।
प्रमोद रंजन कहते है बहुजन साहित्य की अवधारणा का जन्म फारवर्ड प्रेस के संपादकीय विभाग से हुआ। यह बात सही है कि हिन्दी बेल्ट में बहुजन साहित्य की अवधारणा का प्रचार प्रसार और उसका ‍िस्थरीकरण फारवर्ड प्रेस ने ही किया। और आज ये दलित-बहुजनो की एक महत्वपूर्ण पत्रिका के रूप में स्थापित हो चुकी है।
क्या दलित साहित्य से ओबीसी बाहर है ?
बहुजन साहित्य की अवधारणा के प्रश्न पर कुछ लोगो का तर्क है कि दलित साहित्य में ओबीसी को स्थान नही मिलने के कारण बहुजन साहित्य की अवधारणा की जरूरत पडी। यहां यह बताना जरूरी है कि दलित साहित्य के निर्माण या प्रकिया में कोई ऐसा नियम नही है। जिसमें ये कहा गया हो की इसमें केवल अनुसूचित जाति के लोग ही लिखेगे। न ही दलित का मतलब अनुसूचित जाति है। जबकि ग़ौरतलब है कि दलित साहित्य ज्यादातर ओबीसी सिध्दांतकारो के सिद्धांत पर ही खड़ा हुआ है। जैसे महात्मा फूले, ई रामास्वामी पेरियार, संत कबीर आद‍ि। दलित साहित्य में ओबीसी क्यो दूर है इस मुआमले मे  जय प्रकाश कर्दम के 2012 फारवर्ड प्रेस बहुजन वार्षिकी में छपे लेख को उदधृत करना चाहूगां। जिसमें वे लिखते है।
यह दिक्कत ओबीसी साहित्य की नही ओबीसी साहित्य कारों की है वे सवर्ण और दलित दोनो नावों पर एक साथ सवार होकर चलना चाहते है, जो संभव नही है। इस बात पर गंभीरता से विचार किया जाए कि सवर्ण साहित्य का पिछलग्गू बन कर उनको और उनके समाज को क्या मिला ? यदि वे स्वयं को दलित मानकर दलित समाज और साहित्य के साथ सच्चे मन से जुडे जो कोई वजह नही कि उनको दलित साहित्य में समुचित स्थान और सम्मान नही मिले। यदि वे पूरी निष्ठा से दलित साहित्य से जुडेगे तो दलित साहित्यकार के रूप में रहकर और जगह बनाने से उन्हे कोई नही रोक सकता। फारवर्ड प्रेस सिंतबर 2012 पृष्ठ क्रमांक 53
यह उल्लेखनीय है कि दलितों ने दलित साहित्य एवं विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए अपना खून तक बहाया है। ओबीसी के लिए मण्डल आयोग लागू होने पर आरक्षण का झंडा दलितों ने ही बुलंद रखा। दलितों ने सवर्णों के हमले को झेला जिनमें बहुसंख्यक ओबीसी थे। आज भी ओबीसी द्वारा दलितों पर होने वाले जातीय हमले पर दलित अकेला लड़ता है। गोहाना, झज्जर और खैरलांजी इसके उदाहरण है।  ओबीसी साहित्यकार मौन रहता है। यहां फर्क हम स्पष्ट देखते है कि दलित ओबीसी के दर्द को अपना दर्द समझता है लेकिन ओबीसी दलितों के दर्द में मौन हो जाता है। ऐसी स्थिति में ओबीसी और एस सी का एक साहित्यिक छतरी में आना कठिन दिखता है। यही कारण है आम एस सी यानी दलित ओबीसी को एक शोषक के तौर पर देखता है।
बहुजन साहित्य की अवधारणा में यही सबसे बड़ा रोडा है क्योंकि शोषक कभी पीड़ित नही हो सकता । यदि वह पीड़ित है और वह प्रतिरोध करना चाहता है तो इसकी सबसे पहली शर्त है वह शोषण बंद करे या उसका विरोध दर्ज करे।
बहुजन साहित्य के इतिहास पर चर्चा
कुछ लोग बहुजन साहित्य  (आशय ओबीसी साहित्य से है) को 600 ई-र्पू से प्रारंभ मानते है। वे कौत्य को वह व्यक्ति मानते है जिन्होंने भौतिक बुध्दि वाद से मिलता जुलता दर्शन प्रारंभ किया। वे तंतुवाय परिवार से संबंधित थे। यह बात अपनी जगह ठीक है। लेकिन वास्तव में बहुजन विचार धारा या साहित्य की शुरूआत बुद्ध से हुई। क्योंकि बुद्ध ने ही सर्वप्रथम बहुजन शब्द का प्रयोग किया था। इसलिए बुद्ध के सिद्धांत बहुजन साहित्य के मूल भूत सिद्धांत में शामिल होने चाहिए।
1.      वेदों क बकवास मानना
2.      ब्राम्हणी कर्म कांड यज्ञ आद‍ि को नही मानना।
3.      अनीश्वरवादी होना
4.      जातिप्रथा का विरोध करना।
 इस प्रकार बुध्द के सिद्धांत की एक फ़ेहरिस्त है जो मानववादी विचार धारा को पुष्ट करता है। इस प्रकार जुलाहा जाति में जन्मे कबीर भी दलित साहित्य के प्रर्वतक माने जा‍ते है। जबकि कबीर ओबीसी वर्ग से ताल्लुक रखते थे। मैं बहुजन साहित्य के असल निर्माता महात्मा फूले को मानता हूँ। जिन्होंने बुद्ध कबीर की परंपरा को पुर्नजीवित किया। गौरतलब है कि बुद्ध कबीर और फूले दलित साहित्य के मजबूत आधार स्तम्भ है। जबकि तीनों ओबीसी वर्ग से ताल्लुक रखते है। (बुध्द शाक्य जाति के है और शाक्य नागवंशी कृषक अनार्य जाति है, विस्तृत विवरण देखने के लिए आप इन पंक्तियों के लेखक की किताब आधुनिक भारत मे पिछड़ा वर्ग-पूर्वाग्रह मिथक एवं वास्तविकताएं बुद्ध की जाति पर प्रश्न पृष्ठ क्रमांक 71 का अवलोकन किया जाना चाहिए।)

वास्तविक ओबीसी कौन है?
ये जानकर बड़ा दुख होता है कि दलित साहित्य से बहुजन साहित्य क अलग अस्तित्व के पैरोकार साहित्यकार ये नही जानते क‍ि ओबीसी कौन है। राजेन्द्र प्रसाद सिंह फारवर्ड प्रेस मार्च 2012 अंक में प्रकाशित लेख में ओबीसी विमर्श (बहुजन साहित्य) पर चर्चा के दौरान भारतेन्दु हरीशचंद्र, मैथिली शरण गुप्त तथा गांधी को ओबीसी बता कर फूले नही समाते है।
वे लिखते है परंतु हिन्दी के द्विजवादी आलोचको ने भारतेन्दु मैथिली शरण गुप्त, जय शंकर प्रसाद और रेणु जैसे ओबीसी रचना कारों के मुल्यांकन में ऐसा धुंध फैला रखा है कि वे चीजे हमें दिखाई नही पड़ती है। पृष्ठ 41 मार्च 2012 फारवर्ड प्रेस
एक जगह वे गांधी को ओबीसी बताते है
महात्मा गांधी बाबा साहेब अंबेडकर और राममनोहर लोहिया में दो गांधी और लोहिया ओबीसी बहुजन में आते है। जबकि अंबेडकर दलित है। गांधी को बहुजन होने पर गर्व है। इसलिए उन्होने अपनी आत्मकथा के आरंभ में लिखा है मै जाति का बनिया हूँ। पृष्ठ 42 मार्च 2012 फारवर्ड प्रेस
सभी जानते है कि किस प्रकार भारतेन्दु हरिशचंन्द्र मैथिली शरण गुप्त आदि ने द्विज साहित्‍य को पुष्ट किया। यह तथ्य भी सर्वविदीत है कि गांधी ने किस प्रकार साइमन कमीशन के मुआमले में अछुतो के अधिकार के विरूद्ध अनशन किया था। और अछूतों की हार के रूप में पूना पैक्ट का जन्म हुआ। गांधी वास्तव में द्विज वोट के समर्थक थे उनका मानना था कि इन्हे(आशय अजा अजजा और पिछड़ा वर्ग से है) वोट का अधिकार देने से वोट खराब होगा। उनका कहना था ये हिन्दुओ का आंतरिक धार्मिक मामला है इसे आपस में मिल बैठ कर निपटायेगे।
इसके बावजूद राजेन्द्र प्रसाद सिंह यह लिखते है
शारीरिक श्रम की श्रेष्ठता आजीवको ने स्वीकारी थी। बुद्ध भी शारीरिक श्रम के पक्ष में है। कबीर और गांधी भी शारीरिक श्रम की श्रेष्ठता को स्वीकारते है। कहने का मतलब यह है कि ओबीसी का कोई भी दार्शनिक विचारक अथवा चिंतक ऐसा नही है जिन्होंने श्रम के महत्व को नकारा हो। पृष्ठ 42 मार्च 2012 फारवर्ड प्रेस
यहां पर वे गांधी को ओबीसी का दार्शनिक बताते है। बहुजनों को इस प्रकार गुमराह होने से बचना जरूरी है। क्योंकि दलित बहुजन के दार्शनिक वही हो सकते है जो मन वचन और कर्म से दलित बहुजन के हितैषी हो भले ही वो इस समुदाय का न हो
प्रगतीशीलता का छद्म
यदि हिन्दी साहित्य को गौर से देखे तो पाते है ये साहित्य दो भागो में बांटा जा सकता है। एक ब्राम्हणवादी(द्विज) साहित्य जिसे हम आज मुख्य धारा का साहित्य कहते है इसमें भक्ति साहित्य भी शामिल है। दूसरा गैर ब्राम्हणवादी साहित्य जिसमें दलित साहित्य, निगुर्ण धारा का साहित्य, बहुजन साहित्य शामिल है।
ब्राम्हणवादी साहित्य यथा स्थितीवादी होकर प्रगतीशीलता का ढोग करता है। ब्राम्हणवादी लेखक (जो अज अजजा आबीसी भी हो सकता है) अपने साहित्य में सामाजिक रूढ़ियों पर चोट नही करता बल्कि उन रूढियों पर से आंखे मूंद लेता है। ब्राम्हणवादी साहित्यकार चापलूस होता है वह ऐसी कोई बात नही लिखता जिससे द्विज व्यवस्था नराज हो। उसे ऐसा लगता है कि इन्हे नाराज करने से व बहिस्कृत कर दिया जायेगा।
बहुजन अवधारणा का नायक
बहुजन साहित्य आज अपनी शैशव अवस्था में है लेकिन इसके नायक को लेकर आज भी संशय है। जिस प्रकार दलित साहित्य का नायक डा अंबेडकर है उसी प्रकार एक पथप्रदर्शक नायक बहुजन साहित्य में होने की आवश्यकता मै समझता हूँ। कही कही देखा गया है कि पौराणिक मिथकों को नायक के रूप में स्थापित करने की कोशिश क गई है जैसे बलीराजा, हिषासुर, रावण आद‍ि। फारवर्ड प्रेस के प्रमुख संपादक श्री आईवन कोस्का साक्षात्कार के दौरान यह स्वीकार करते है कि इस प्रकार पौराणिक नायकों को बहुजन नायक के रूप में प्रतिस्थापित करना एक आत्मधाती कदम होगा। लेकिन लोगो का ध्यान आकर्षित करने तथा धार्मिक विरोध दर्ज करने तक यह बात ठीक है।
पौराणिक नायको को महत्व देने का मतलब है वेद पुराणो को जाने अनजाने महत्वपूर्ण बना देना। जब आप इन्हे महत्व देते है तो इस वैदिक जाल से निकलने का प्रश्न नही उठता। इतिहास गवाह है लालबेगी (सफाई कामगार) जाति ने 1920 के आस-पास वाल्मीकि को अपना गुरू बना लिया। आज वे अपने आपको चाह कर भी ब्राम्हणवाद की गिरफ़्त से आज़ाद नही कर पा रहे है। इसी काल में डोमार, हेला, एवं मखियार जाति (अन्य दलित जात‍ियां) सुदर्शन को अपना नायक बनाया, उनका भी यही हश्र हुआ।
बहुजन साहित्य को इन पौराणिक नायकों की कतई जरूरत नही क्योंकि बुद्ध से लेकर कबीर, फूले, चंदापूरे, ललईसिंह, कर्पूरी ठाकुर, पेरियार समेत कई दार्शनिक नायक है। जिन्हे बहुजन अपना नायक चुन सकते है। महात्मा ज्योतिबा फूले को बहुजन साहित्य के एक बहुत बडे हिस्से से नायक के रूप मे स्वीकृति मिल चुकी है। आईवन कोस्का बताते है की फूले और अम्बेडकर दोनो यूरोपियन विचारधारा से प्रभावित थे। उनके जीवन में इसाई विचारधारा और देश में कार्यरत मिशनरी के क्रियाकलापों का गहरा प्रभाव पडा।

बहुजन साहित्य की अवधारणा के नामाकरण को लेकर चर्चाये चल रही है। एक ऐसे नाम की आवश्यकता है जिसमें दलित साहित्य, ओबीसी साहित्य, आदिवासी एवं स्त्री साहित्य समाहित हो सके। स्पष्ट है कि बहुजन का सीधा अर्थ है बहुसंख्यक आबादी। इसका यह अर्थ कतई नही है जिससे यह मतलब निकाला जाय की बहुजन शोषित पीड़ित आबादी का नाम है। न ही ये शब्द किसी आंदोलन या संघर्ष का संकेत देता है। बल्कि आम भारतीय बहुजन साहित्य को राजनीतिक पार्टी बहुजन समाज पार्टी से जोड कर देखता है। इसलिए ऐसे साहित्यिक शब्दावली की संभावनाओं पर विचार किया जाना चाहिए जो सभी साहि‍त्यिक वर्गो को एक में समाहित कर सके। जैसे दलित बहुजन साहित्य, अम्बेडकरवादी साहित्य या फूलेवादी साहित्य इत्याद‍ि यहां मुझे दलित-बहुजन साहित्य शब्दावली इस अवधारणा के लिए उपयुक्त प्रतीत होता है। दलित बहुजन यानी शोषित बहुसंख्यक वर्ग जिसमें स्त्री पुरूष अल्पसंख्यक अजा अजजा ओबीसी सभी शामिल है। और यह शब्दावली एक बडे समूह द्वारा प्रयोग ‍किया जा रहा है। 
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