रविवार, 29 दिसंबर 2019

Dalit Panther is the name of the authors' ground movement


लेखकों के जमीनी आंदोलन का नाम है दलित पैंथर
संजीव खुदशाह
वंचित वर्ग के आंदोलन का विश्व में एक अलग इतिहास है और उसका एक अपना मकाम है।  विश्व के वंचितों के आंदोलन का इतिहास, दलित पैंथर के जिक्र के बिना पूरा नहीं हो सकता। बहुत थोड़े समय चले इस दलित आंदोलन ने भारत में अपनी अमिट छाप छोड़ी है। आज जब हम ज वि पवार की किताब "दलित पैंथर एक अधिकारीक इतिहास" पढ़ते हैं तो हमें जानकारी मिलती है की उन्होंने क्या-क्या काम किया और किन हालातों में उपलब्धियां हासिल की?
ऐसा माना जाता रहा है की दलित पैंथर, अमेरिकी अश्वेत आंदोलन के ब्लैक पैंथर से प्रभावित हैं। यदपि ये लगभग समकालीन थे । ब्लैक पैंथर की स्थापना अमेरिका में 15 अक्टूबर 1966 को हुई थी जबकि दलित पैंथर का जन्म भारत में 29 मई 1972 को हुआ।
जिस समय भारत में दलित पैंथर की स्थापना हो रही थी। महाराष्ट्र राज्य में दलितों के प्रति अछूत पन की भावना और जातिगत शोषण की स्थिति चरम में थी। दैनिक अखबार दलितों के शोषण की खबरों से भरे होते थे। बे लगाम सामंती वर्ग जो शोषण कर रहा था। पुलिस प्रशासन शोषको के साथ खड़ा था और राज्य सरकार मानो इस शोषण में मौन सहमति दे रही थी। शिवसेना के गुंडे दलितों के साथ अत्याचार कर रहे थे। कांग्रेस की सरकार दलितों की नहीं सुन रही थी।
दलित महिलाओं के साथ बलात्कार करना। अपने खेतों में बेगारी कराना। दलित बस्तियों के कुओं में मल मूत्र डाल देना। उन्हें बहिष्कृत करना। उच्च जातियों का रोज का काम हो गया था। ऐसी परिस्थिति में उस समय दलितों के लिए काम कर रही राजनीतिक पार्टी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया कुछ नहीं कर पा रही थी या कहें शोषक पार्टियों की तरफ थी।
ऐसे समय में दलित पैंथर की स्थापना हुई। ज वि पवार की माने तो दलित पैंथर के शुरुआती दौर में नामदेव ढसाल, ज वि पवार, राजा ढाले, दया पवार, अर्जुन डांगले, विजय गिरकर, प्रहलाद चेदवनकर, रामदास सोरटे, मारुति सरोटे, कुडी राम थोरात, उत्तम खरात और अर्जुन कस्बे जैसे लोग शामिल थे। सभी दलित लेखक थे। कुछ लेखकों की गिनती नामी मराठी  साहित्यकारों में होती थी।
दलित पैंथर के पहले बयान में कहा गया कि "महाराष्ट्र में जातिगत पूर्वाग्रह पर बेलगाम हो गए हैं और धनी किसान, सत्ताधारी और ऊंची जातियों के गुंडे जघन्य अपराध कर रहे हैं। इस तरह के अमानवीय जातिवादी तत्वों से निपटने के लिए मुंबई के विद्रोही युवकों ने एक नए संगठन "दलित पैंथर" की स्थापना की है।"
शुरू में इस संगठन से मुंबई के ढोर चाल (छोटी जातियों के लिए प्रयुक्त शब्द) जहां नामी कवि नामदेव ढसाल रहा करते थे और कमाठीपुरा फर्स्ट लेन सफाई कर्मचारियों के लिए आवंटित मकान जिसे सिद्धार्थनगर भी कहा जाता था। जहां ज वि पवार रहते थे। के मोहल्ले के लोग जुड़ रहे थे । याने यहीं से दलित पैंथर की शुरुआत हुई।
12 अगस्त 1972 को एरण गांव में घटी एक घटना ने पूरे महाराष्ट्र को हिला कर रख दिया वहां रामदास नारनवरे नामक एक दलित किसान की क्रूरता पूर्वक हत्या कर दी गई। उसके पास 8 एकड़ भूमि थी और चार भाई मिलकर शांति और प्रसन्नता पूर्वक जीवन यापन कर रहे थे। अपने आत्म सम्मान और अपनी निर्भरता के कारण वे गांव वालों के आंखों की किरकिरी बने हुए थे। वह गांव वालों की खास करके सामंतों की जी हजूरी नहीं करते थे। इसीलिए गांव वाले उन्हें सबक सिखाने का मौका ढूंढ रहे थे। गांव में हैजा की बीमारी से 2 लोगों की मृत्यु ने उन्हें मौका दे दिया। गांव के लोगों ने बैठक बुलायी और उन्होंने निर्णय लिया कि गांव के देवी से सलाह लेंगे। एक भक्त के ऊपर देवी आई और उन्होंने इसके लिए रामदास नारनवरे को ही जिम्मेदार बताया। उन्होंने बताया कि वे श्मशान घाट जाकर शैतान को प्रसन्न करने के लिए तांत्रिक प्रयोग करते हैं। इसी कारण गांव में हैजा फैला है। इससे बचाव का एक ही तरीका है नारनवरे की बलि।
गांव वालों ने विचार करना शुरू किया की बलि देने का क्या तरीका होगा। वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मनुस्मृति में वर्णित तरीका ही सबसे बढ़िया होगा। वह उन्हें जबर्दस्ती पड़ोसी गांव पाटनसावंगी के मुखिया के पास ले गये। मनुस्मृति में निर्धारित नियमों के अनुसार नारनवरे की बलि दी गई। पहले उसके कान और नाक काटे गए फिर गला। उसके शव को एक कुएं में फेंक दिया गया। शव 2 दिन तक पानी में तैरता रहा। पुलिस ने इस मामले को रफा-दफा कर दिया। पोस्टमार्टम किया गया सरकारी सर्जन ने उसमें लिखा है कि मौत पानी में डूबने से हुई। क्योंकि मृतक दलित था इसलिए इस मामले को दबा दिया गया और लाश को दफना दिया गया। परंतु मीडिया को इस भयावह हत्याकांड की खबर लग गई और इस बारे में दैनिक अखबारों में खबर छपने लगी तो शव को फिर से निकालकर पोस्टमार्टम करवाना पड़ा। तब कहीं जाकर मामला खुला। इस मामले में 9 लोगों को गिरफ्तार किया गया।
दलित पैंथर एक समय पूरे महाराष्ट्र में सक्रिय था। जहां कहीं भी दलितों के साथ शोषण की सूचना मिलती। सारे पैंथर वहां पहुंच जाते हैं और दलितों को न्याय दिलाने का प्रयास करते हैं। एक बार राजगुरूनगर तहसील के अस्खेड़गांव में किसी उच्च जाति के व्यक्ति ने दलित किसान बिठूर दगड़ु मोरे की कनपटी पर बंदूक सटाकर 30 एकड़ भूमि को जबरन कब्जा कर लिया और उसमें फसल लेने लगा। जैसे ही दलित पैंथर को इसकी सूचना मिली। मुंबई से 92 दलित पैंथर तुरंत गांव पहुंचे और उस दबाव में आकर उसे  जमीन वापस करना पड़ा, मुआवजा भी देना पड़ा। इस तरह जहां भी शोषण होता दलित पैंथर खड़े हो जाते। साथ साथ पैंथर के सदस्य न्यूज़पेपर साहित्यिक पत्रिकाओं में भी कॉलम लिख रहे थे। कविताएं लिख रहे थे। गौरतलब यह है कि दलित पैंथर के सभी सदस्य गरीबी परिस्थिति से आते थे। कोई  टैक्सी चलाता था। कोई कपड़ा मिल में मजदूर था। कई सरकारी नौकरियों में थे। ज्यादातर लोग तंग गलियों , झुग्गियों, गंदी बस्तियों में रहते थे।
गैर दलितों को भी सहयोग किया।
दलित पैंथर शोषण के खिलाफ खड़े थे। कुछ प्रगतिशील सवर्ण भी दलित पैंथर के साथ थे। इसके कारण उन्हें अपनी नौकरी में समस्या आती थी। बड़े अधिकारी उन्हें सस्पेंड करने या नौकरी से बर्खास्त करने का नोटिस देते । दलित पैंथर ऐसे शोषण के खिलाफ उठ खड़े होते और उन्हें शोषण से मुक्ति दिलाते थे।यह संगठन दलितों में किसी एक जाति तक सिमटा हुआ नहीं था गैर बौद्ध दलित युवक बहुत मात्रा में इस संगठन के सदस्य थे।
दलित पैंथर पर अब तक चार किताबें लिखी जा चुकी है। जिसके लेखक हैं ज वि पवार, नामदेव ढसाल, अजय कुमार, शरण कुमार लिंबाले। दलित आंदोलन को समझने के लिए खास तौर पर दलित पैंथर के आंदोलन को समझने के लिए इन चारों किताबों को पढ़ना जरूरी है।
श्री पवार अपनी किताब में बताते हैं कि जगन्नाथ पुरी के शंकराचार्य निरंजन तीर्थ ने एक बार कहा था कि कोई मोची चाहे कितना ही पढ़ लिख ले वह मोची ही रहेगा और एक अछूत हमेशा अछूत ही रहेगा। दलित पैंथर को यह बर्दाश्त नहीं था। दलित पैंथर ने जगह-जगह शंकराचार्य का विरोध किया और महाराष्ट्र में उनके हर कार्यक्रम में बाधा डाली गई। शंकराचार्य इतना डर गए कि कई सालों तक महाराष्ट्र का दौरा नहीं किए।
एक बार दलित पैंथर ने महाराष्ट्र में दलितों पर हो रहे हमले के विरोध में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की रैली में विरोध करने का प्रेस रिलीज जारी किया। इससे पहले भी बड़े बड़े नेताओं के कार्यक्रमों और रैलियों में बाधा डाल चुके थे। प्रशासन भय ग्रस्त थी। उन्होंने प्रधानमंत्री से दलित पैंथर के नेताओं की मुलाकात करवाई ताकि कार्यक्रम निर्विघ्न रूप से आयोजित किया जा सके। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि दलित पैंथर कितना प्रभावशाली थे।
दलित पैंथर हमेशा राजनीति को प्रभावित करते रहे हैं लेकिन उनका दावा था कि वह एक गैर राजनीतिक सामाजिक संगठन है। वह डॉक्टर अंबेडकर के आदर्श पर चलते हैं। दलित पैंथर ने अपने 5 साल के कार्यकाल में संघर्ष के दौरान कइ पैंथरों को जान से हाथ धोना पड़ा कई पुलिस की मुठभेड़ में मारे गए।
दलित पैंथर के बाद कोई भी ऐसा संगठन सामने नहीं आया जो इसकी कमी पूरी करता हो। कुछ लोगों ने जरूर दावा किया कि वह दलित पैंथर अभी भी चला रहे हैं। लेकिन वह सिर्फ कागजों में था। वर्तमान में भीम आर्मी की सक्रियता बढ़ी है और भीम आर्मी के सदस्य दलित पैंथर की तरह ही काम कर रहे हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि भीम आर्मी को दलित लेखकों का साथ नहीं मिला। जबकि दलित पैंथर को लेखकों ने ही खड़ा किया था। दलित पैंथर और भीम आर्मी में बेसिक फर्क यह है कि दलित पैंथर का दावा था कि वह अंबेडकरी सिद्धांत को लेकर काम कर रहे हैं। जबकि भीम आर्मी के नेता कहते हैं की वह संविधान की रक्षा के लिए काम कर रहे हैं। 
ज वी पवार अपनी किताब में बताते हैं कि दलित पैंथर के पतन का सबसे बड़ा कारण था। पैंथर के बीच में कई गुटों का उभर जाना। कई बार यह होता था कि एक ही शहर में दलित पैंथर के अलग-अलग कार्यक्रम, अलग-अलग गुट के लोग करते थे। इससे आम जनता और कार्यकर्ताओं में कन्फ्यूजन पैदा होता था। कुछ जगह दलित पैंथर के लोग पद में आने के बाद वसूली का धंधा करते थे और खुद दलितों का शोषण करने लगे थे। इसीलिए एक प्रेस रिलीज जारी करके दलित पैंथर को आधिकारिक रूप से भंग कर दिया गया।
ब्लैक पैंथर की तरह दलित पैंथर का भी कार्यकाल बेहद कम था। ब्लैक पैंथर का कार्यकाल सिर्फ 2 साल का था। लेकिन उन्हें अमेरिका में पूर्ण सफलता मिल गई। दलित पैंथर का कार्यकाल सिर्फ 5 वर्ष का था जिसने पूरे भारत के दलित आंदोलन को प्रभावित किया और आज भी प्रेरणा का एक स्रोत है। लेकिन आज भी दलितों के साथ होने वाले शोषण और भेदभाव में कोई कमी नहीं आई है।
यह दलित आंदोलन, दलित लेखकों ने ही खड़ा किया था। आज की तरह जब दलित लेखक एक दूसरे की टांग खींचने में आमादा है । व्यक्तिवाद और जातिवाद का खेल, खेल रहे हैं । बहुत हुआ तो अपने आप को लेखन तक सीमित कर के आत्ममुग्धता में खोए हुए हैं। केवल लिखकर अपने काम का इतिश्री मानते हैं। उनके लिए दलित पैंथर एक  मिसाल की तरह है। देखना यह है क्या आज के दलित लेखक इससे कोई सबक ले पाएंगे?
PUBLISH IN NAVBHARAT 29/12/2019

सोमवार, 19 नवंबर 2018

Know how valuable your vote

जानिए कितना बहुमूल्य है आपका वोट

संजीव खुदशाह
भारत के ग्रामीण मतदाताओं में वोट के प्रति जागरूकता शहरी मतदाताओं के वनिस्पत कुछ ज्यादा होती है। आंकड़े बताते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में मतदान का प्रतिशत ज्यादा होता है और शहर के क्षेत्रों में मतदान का प्रतिशत कम होता है। इसके कुछ कारण है, शहरी मतदाता पढ़ा लिखा सक्षम होने के बावजूद कुछ भ्रम पाले हुए रहता है। जिसके कारण वह वोट डालने नहीं जाता है आइए जाने वह कौन कौन सी वजह है।
2 उसे यह भ्रम होता है कि- मैंने अगर वोट नहीं दिया तो क्या होगा ? सभी लोग वोट देंगे मेरे एक वोट से कुछ होने जाने वाला नहीं है।
3 कई बार उसकी सोच रहती है कि - उस दिन डिसाइड करेंगे वोट देना है या नहीं। समय मिला तो वोट देंगे नहीं मिला तो नहीं देंगे। आलस्य के भावना।
4 कुछ उल्‍झन का बहाना होता है जैसे- मुझे मालूम नहीं है कहां पर वोट देने जाना है। मतदाता सूची में मेरा नाम है या नहीं?

5 कभी वह अहंकारी हो जाता है सोचता है कि - वोट देने चला भी जाऊंगा तो मेरे जैसा व्यक्ति जिंदगी में कभी भी लाइन में खड़ा नहीं हुआ है। मैं लाइन में क्यों खड़े हो ऊंगा।
6 संकोच करता है - मुझे किससे पूछना है कि मेरा मतदान केंद्र कहां पर है। सूची में कहां पर मेरा नाम है। इसके संकोच के कारण शहरी लोग वोट देने नहीं जा पाते हैं।
जबकि मतदान संबंधी पूरी जानकारी चुनाव आयुक्‍त द्वारा इस वेबसाइट में मुहैया कराई गई है कोई भी व्‍यक्ति अपने नाम मतदान केन्‍द्र वोटर आई डी की जानकारी आसानी से ले सकता है1
पूरे देश के किसी भी राज्‍य के लिए https://eci.nic.in/eci_main1/Linkto_erollpdf.aspx,
इन तमाम कारणों से वह वोट देने नहीं जाता है। और फिर बाकी के 5 साल कोसता रहता है अपने ही प्रतिनिधियों को, कि वह फलां काम नहीं करते हैं। उन्होंने यह काम गलत किया है। और ऐसा होना चाहिए था। गलत आदमी चुना गया। जबकि वह स्‍वयं वोट न देकर अपनी जिम्‍मदारी नही निभाता है।
राजनीतिक पार्टी शहरी मतदाताओं को प्रेरित करने में उदासीनता
ज्यादातर ऐसा माना जाता है कि शहरी पढ़ा लिखा मतदाता अपने विवेक और ज्ञान का प्रयोग करके मत दान देते हैं। और किसी भी लालच जैसे दारू साड़ी कपड़ा आदि में ना आकर विवेक के आधार पर वोट देना पसंद करते हैं। इस कारण राजनीतिक पार्टियां शहरी मतदाताओं को वोट डालने के लिए ज्यादा प्रेरित नहीं करती है। क्योंकि ग्रामीण मतदाताओं के वनिस्पत शहरी मतदाताओं के पास उम्मीदवारों के संबंध में ज्यादा जानकारी होती है।
शहरी मतदाताओं में अवेयरनेस जागरूकता की कमी
ज्यादातर यह माना जाता है कि शहरी मतदाता जागरूक होता है। लेकिन सोशल मामलों में या कहें मतदान के मामलों में शहरी मतदाताओं में अवेयरनेस की कमी होती है। ज्यादातर पॉश इलाकों में मतदान का प्रतिशत बेहद कम होता है, जहां पर बुद्धिमान और रसूख वाले लोग बसते हैं। वहीं दूसरी ओर शहर के ही स्लम और झुग्गी झोपड़ी वाले एरिया में मतदान का प्रतिशत अधिक होता है।
चुनाव आयुक्‍त जागरूकता मुहिम
चुनाव आयुक्‍त के द्वारा मतदान के प्रति मतदाता की रूची बढाने के लिए विज्ञापन फलैक्‍स नुक्‍कड नाटक रैली का प्रयोग किया जा रहा है, और मतदान हेतु प्रेरीत करने में कोई कसर नही छोड़ी जा रही  है।
आपका एक वोट क्या क्या कर सकता है
कुछ मतदाता यह समझते हैं कि उनके एक वोट देने नहीं देने से क्या फर्क पड़ेगा। दरअसल उनका एक वोट जितने उम्मीदवार खड़े हैं। उन सभी को प्रभावित करता है। मान लीजिए 15 उम्मीदवार हैं। तो आपका एक वोट जिसे आप दे रहे हैं उसे आगे बढ़ाए गा और इतनी ही संख्या में वोट बाकी  उम्मीदवारों से कम हो जाएंगे। क्‍योकि वोट की संख्‍या निश्चित होती है।
आपने अपना वोट नहीं दिया तो क्या होगा
यदि आपने अपना वोट नहीं दिया है तो एक गलत उम्मीदवार चुना जा सकता है। एक अच्छा उम्मीदवार चुनने से महरूम हो सकता है। योग्‍य उम्‍मीदवार आपकी समस्‍याओं को समझ सकता है, जनहीत के मुद्दो को शासन के समक्ष उठा सकता है। वहीं यदि कोई भ्रष्‍ट उम्‍मीदवार विजयी होता है तो वह जन विरोधी  कार्य करेगा, जनता को आपस में लड़वायेगा, दंगे करवायेगा, जनता द्वारा जमा किये टैक्‍स के पैसे का दुरुपयोग करेगा, अपन घर भरेगा। यदि आप अपना वोट नोटा को भी देते हैं तो भी यह संदेश जाता है कि मौजूदा उम्मीदवारों में से कोई भी आपको पसंद नहीं है। लोकतंत्र में आपको हर प्रकार से अपनी बात को रखने का मौका मिलता है और वोटिंग या चुनाव प्रथा लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करती है। भारत का लोकतांत्रिक इतिहास इस बात का गवाह है कि जब जब पढ़ा-लिखा और समझदार मतदाता मत डालने के लिए भारी संख्या में निकलता है तो लोकतंत्र में अप्रत्याशित परिणाम आते हैं। आईये हम भारत के एक एक मतदाता यह सुनिश्चि‍त करे की वे अपना वोट जरूर दे और भारतीय लोकतंत्र को मज़बूती प्रदान करे।     

       



रविवार, 22 जुलाई 2018

तेजिंदर गगन का जाना


तेजिंदर गगन का जाना
संजीव खुदशाह
वरिष्ठ पत्रकार  प्रभाकर चौबे के दिवंगत होने की खबर का अभी एक पखवाड़ा भी नहीं हुआ था की खबर आई, तेजिंदर गगन नहीं रहे। मुझे याद है तेजिंदर गगन से मेरी पहली मुलाकात एक कार्यक्रम में हुई थी। वह एक राज्य संसाधन केंद्र के द्वारा आयोजित कार्यक्रम था। जिसमें वह बतौर साथी वक्ता पहुंचे थे। वहां एक महिला वक्ता ने अपने वक्तव्य के दौरान महिलाओं को दोयम दर्जे में रखे जाने की वकालत कर रही थी और सारे श्रोतागण स्तब्ध होकर सुन रहे थे। वह महिला किसी कॉलेज में प्रोफेसर थी मुझे उनका नाम अभी याद नहीं आ रहा है।
लेकिन जैसे ही तेजिंदर गगन के अपने वक्तव्य देने की बारी आई तो उन्होंने अपने वक्तव्य के प्रारंभ में ही कहा कि मेरी 62 साल की आयु में पहली बार किसी महिला को इस तरह के वक्तव्य देते हुए देखा है। यह एक दुर्भाग्य है की आज भी सार्वजनिक तौर पर ऐसी बातें कही जा रही है। वह भी एक महिला के द्वारा। उन्होंने बड़ी विनम्रता से अपनी बात को रखा। मैं उनकी इस बात से बहुत प्रभावित हुआ इस प्रकार उनसे मेरा मिलने जुलने का सिलसिला प्रारंभ हो गया।
प्रसंगवश बताना जरूरी है कि वे दूरदर्शन के निदेशक पद से सेवानिवृत्त हुए थे। तेजिंदरजी ने देशबंधु से अपने करियर की शुरुआत की थी. बाद में वे बैंक पदस्‍थ रहे और फिर आकाशवाणी और दूरदर्शन में लंबे समय तक कार्यरत रहे. इस दौरान उन्होंने रायपुरअंबिकापुरसंबलपुरनागपुरदेहरादूनचैन्नई व अहमदाबाद केंद्रों में अपनी सेवाएं दीं. उनके उपन्यास काला पादरीडायरी सागा सागासीढ़ियों पर चीता इत्यादि बहुचर्चित हुए।
सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने अनटोल्ड नाम की एक अंग्रेजी पत्रिका प्रकाशित कर रहे थे। जो वेबसाइट में भी उपलब्ध है। वे इस पत्रिका में वंचित समुदाय के दुख दर्द को पर्याप्त स्थान देते थे। वह रायपुर में तमाम साहित्यिक कार्यक्रमों में सक्रिय थे और लगभग हर कार्यक्रम में दिखाई पड़ते थे। उनकी बेहद सरल ढंग से अपनी बात रखने की शैली ने पाठकों और दर्शकों को प्रभावित कर रखा था। वे बहुत बड़ी बड़ी बातों को भी बहुत ही सहजता से बोलते थे।
हाल ही में उन्हें हिंदी साहित्य सम्मेलन छत्तीसगढ़ की ओर से सप्तपर्णी सम्मान से नवाजा गया था इसी सम्मान की श्रृंखला में इन पंक्तियों के लेखक को पुनर्नवा पुरस्कार से नवाजा गया। मुझे बेहद गर्व था कि उनके साथ मुझे भी सम्मानित किया गया। क्योंकि वह एक सुप्रसिध्‍द उपन्यासकार थे ।
उन्हें उनके उपन्यास काला पादरी के लिए बेहद प्रसिद्धि मिली। काला पादरी समकालीन हिन्दी साहित्य उपन्यास जगत में अपने आप में विलक्षण है। ‘‘काला पादरी’’ हिन्दी उपन्यास परम्परा से हटकर समाज की कुव्यवस्था पर तीखा प्रहार व कुरूपता का चेहरा उजागर करने वाला बेजोड़ दस्तावेज है। ‘‘कालापादरी’’ में जेम्स खाका की अंतर्मन की संवेदनाओं को उपन्यासकार ने पूरी दक्षता से उभारा है। अंततः उपन्यास की तार्किक परिणिती जेम्स खाका के उस निर्णय में होती है जो उसे धर्म की चाकरी से मुक्त करता है और वह चर्च की संडे की प्रार्थना मे शामिल होने के बजाए अपनी महिला मित्र सोंजेलिन मिंज के साथ बाजार जाने का निर्णय लेता है। ‘‘कालापादरी’’ की अंर्तवस्तु वर्तमान समय की अत्यंत संवेदनशील अंर्तवस्तु है इसमें व्यक्ति और समाज के भौतिक जीवन की संवेदनात्मक व मानवीय पहलू का सजग चित्रण है। निः संदेह कालापादरी के माध्यम से तेजिंदर ने उपन्यास जगत को गौरवन्वित किया है।
 वह कविताएं निबंध भी लिखा करते थे उनकी रचनाओं में सामाजिक कुरीतियों पर चोट तथा प्रगतिशीलता की झलक मिलती थी। फिलहाल वे संस्मरण लिख रहे थे और मुझे बताया था कि कुछ संस्मरण वे प्रकाशन के लिए भी भेज रहे हैं। इसे किताब के रूप में प्रकाशित करने की योजना भी है। गौरतलब है कि मासिक पत्रिका हंस में भी उनके संस्‍मरण प्रकाशित हुये है।
वे अक्‍सर कहा करते थी की उन्‍हे वामपंथ एवं अंबेडकरवाद की समझ उनके नागपुर पदस्‍थापना के दौरान हुई। वे चीजों को बहुत ही गहराई से देखते थे। अपने किसी भी वकतव्‍य में इस बात का बखूबी ख्‍याल रखते की किसी को बुरा न लगे। इसलिए वे विनम्रता से अपनी बात रखते थे। मरेी उनके साथ पत्रिका अनटोल्‍ड के प्रकाशन के संबंध में कई बार सम्‍पर्क हुआ लेकिन कई कारणों से पत्रिका का सतत प्रकाशन नही हो पाया।
उनका जाना साहित्‍य के लिए अपूर्णीय क्षति जिसकी भरपाई लगभग नामुमकिन है।

रविवार, 15 अप्रैल 2018

आंबेडकर जयंती पर विशेषः डॉ. आंबेडकर और उनका वैज्ञानिक चिंतन


आंबेडकर जयंती पर विशेष
डॉ आंबेडकर और उनका वैज्ञानिक चिंतन
संजीव खुदशाह
अक्सर डॉ आंबेडकर को केवल दलितों का नेता कहकर संबोधित किया जाता है। ऐसा संबोधित किया जाना दरअसल उनके साथ ज्यादती किया जाने जैसा है। ऐसा कहते समय हम भूल जाते हैं कि उन्होंने भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना की थी। हम भूल जाते हैं कि उन्होंने हीराकुंड जैसा विशाल बांध का निर्माण समेत दामोदर घाटी परियोजना और सोन नदी परियोजना जैसे 8 बड़े बांधो को स्थापित करने मे महत्वपूर्ण कदम उठाया। हम भूल जाते हैं कि उन्होंने संविधान की समानता मूलक धर्मनिरपेक्ष आत्मा को रचने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। हम यह भी भूल जाते हैं कि उन्होंने लोकतंत्र को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए स्वतंत्र चुनाव आयोग का गठन करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। हम उन्हें केवल दलितों का नेता कहकर उनके योगदानों पर पानी फेर देते हैं।
यदि विचार के दृष्टिकोण से देखें तो उनका सबसे बड़ा योगदान यह रहा है उनका वैज्ञानिक चिंतन। उन्होंने एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण दिया एक ऐसा दृष्टिकोण जो अंधविश्वास और पाखंड से परे हो। उन्होंने सबसे पहले जाति उन्मूलन की बात रखी और बकायदा उसका एक खाका तैयार किया जिसे हम जाति उन्मूलन किताब के नाम से जानते हैं। उन्होंने अर्थशास्त्र पर कई महत्वपूर्ण किताबे लिखी जिनमें से एक प्रसिद्धि किताब को प्रॉब्लम ऑफ रूपी के नाम से जाना जाता है।
आजादी के पहले महात्मा गांधी जब एक ओर नमक (स्वाद) के लिए लड़ाई कर रहे थे वहीं दूसरी और डॉक्टर अंबेडकर वंचित जातियों के लिए पीने के पानी की लड़ाई लड़ रहे थे। वहीं दूसरी ओर जब छोटी-छोटी रियासतें अपनी हुकूमत बचाने के लिए अंग्रेजों से संघर्ष कर रही थी। तो डॉक्टर अंबेडकर इन रियासतों ऊंची जातियों से पिछड़ी जातियों के जानवर से बदतर बर्ताव, शोषण से मुक्ति की बात कर रहे थे।  महात्मा फुले के बाद वे ही ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पूरे विश्व पटल में जातिगत शोषण का मुद्दा बड़ी ही मजबूती के साथ पेश किया। दरअसल दलित और पिछड़ी वंचित जातियों का मुद्दा विश्व पटल पर तब गुंजा जब उन्होंने गोलमेज सम्मेलन के दौरान जातिगतआर्थिक और राजनीतिक शोषण होने की बात रखी। बाद में इन मुद्दों को साइमन कमीशन में जगह मिली। पहली बार दबे कुचले वंचित जातियों को अधिकार देने की बात हुई।
उन्होंने देखा कि भारतीय महिलाओं को एक दलित से भी नीचे दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाता था। चाहे वो कितनी भी ऊंची जाति से ताल्लुक रखती हो। उन्हें ना तो अपने नाम पर संपत्ति रखने का अधिकार था ना ही पुरुष के समान उठने-बैठने, पढ़ने का। सामाजिक या सार्वजनिक तौर पर उनकी बातें नहीं सुनी जाती थी। डॉ अंबेडकर ने महिलाओं के लिए शिक्षा नौकरी पिता की संपत्ति में भाइयों के समान अधिकार तथा मातृत्व अवकाश के द्वार खोलें। खासतौर पर हिंदू कोड बिल में उन्होंने महिला और पुरुष को एक समान अधिकार दिए जाने की पुरजोर कोशिश की। बहुपत्‍नी प्रथा को गैरकानूनी बनाया।
 यहां पर उनकी उपलब्धि‍ को गिनाना मकसद नही है। मकसद है उनकी आधुनिक भारत में प्रासंगिकता पर गौर करना। उन्‍होने जो राय, अखण्‍ड भारत के संबंध में रखी थी वह बेहतद महत्‍वपूर्ण है। वे कहते है की आज का विशाल अखण्‍ड भारत धर्मनिरपेक्षता समानता की बुनियाद पर खड़ा है, इसकी अखण्‍डता को बचाये रखने के लिए जरूरी है की इसकी बुनियाद को मजबूत रखा जाय। वे राजनीतिक लोकतंत्र के लिए सामाजिक लोकतंत्र महत्‍वपूर्ण और जरूरी मानते थे। भारत में जिस प्रकार गैरबराबरी है उससे लगता है कि समाजिक लोकतंत्र आने में अभी और समय की जरूरत है। संविधान सभा के समापन भाषण में वे कहते है। ‘’तीसरी चीज जो हमें करनी चाहिएवह है कि मात्र राजनीतिक प्रजातंत्र पर संतोष न करना। हमें हमारे राजनीतिक प्रजातंत्र को एक सामाजिक प्रजातंत्र भी बनाना चाहिए। जब तक उसे सामाजिक प्रजातंत्र का आधार न मिलेराजनीतिक प्रजातंत्र चल नहीं सकता। सामाजिक प्रजातंत्र का अर्थ क्या हैवह एक ऐसी जीवन-पद्धति है जो स्वतंत्रतासमानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में स्वीकार करती है।"
उनके अनुसार धर्मनिरपेक्षता का मतलब यह है कि राजनीति से धर्म पूरी तरह अलग होना चाहिए। राजनीति और धर्म के घाल मेल से भारत की अखण्‍डता को खतरा हो सकता है। वे भारत में नायक वाद को भी एक खतरा बताते है संविधान सभा के समापन भाषण में कहते है कि दूसरी चीज जो हमें करनी चाहिएवह है जॉन स्टुअर्ट मिल की उस चेतावनी को ध्यान में रखनाजो उन्होंने उन लोगों को दी हैजिन्हें प्रजातंत्र को बनाए रखने में दिलचस्पी हैअर्थात् ''अपनी स्वतंत्रता को एक महानायक के चरणों में भी समर्पित न करें या उस पर विश्वास करके उसे इतनी शक्तियां प्रदान न कर दें कि वह संस्थाओं को नष्ट करने में समर्थ हो जाए।''
उन महान व्यक्तियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने में कुछ गलत नहीं हैजिन्होंने जीवनर्पयत देश की सेवा की हो। परंतु कृतज्ञता की भी कुछ सीमाएं हैं। जैसा कि आयरिश देशभक्त डेनियल ओ कॉमेल ने खूब कहा है, ''कोई पुरूष अपने सम्मान की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकताकोई महिला अपने सतीत्व की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकती और कोई राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता।'' यह सावधानी किसी अन्य देश के मुकाबले भारत के मामले में अधिक आवश्यक हैक्योंकि भारत में भक्ति या नायक-पूजा उसकी राजनीति में जो भूमिका अदा करती हैउस भूमिका के परिणाम के मामले में दुनिया का कोई देश भारत की बराबरी नहीं कर सकता। धर्म के क्षेत्र में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकता हैपरंतु राजनीति में भक्ति या नायक पूजा पतन और अंतत: तानाशाही का सीधा रास्ता है।‘’
जाहिर  है डॉं अंबेडकर की चिंता केवल समुदाय विशेष के लिए नही है वे देश को प्रबुध्‍द एवं अखण्‍ड देखना चाहते है। उनका यह प्रयास संविधान तथा उनके विचारो से स्पष्‍ट होता है। आशा ही नही पूर्ण विश्‍वास है कि देश उनके वैज्ञानिक चिंतन से सीख लेता रहेगा और तरक्‍की करता रहेगा।

रविवार, 25 मार्च 2018

Personality of the week Rajendra Gaikwad



लेखक और केंद्रीय जेल अधीक्षक श्री राजेंद्र गायकवाड बता रहे हैं कि किस प्रकार वह साहित्य और जेल के बीच सामंजस्य बैठाते हैं। वह यह भी बताते हैं कि पिछले साल कैदियों ने श्रम करके दो करोड़ रुपया कमाया। इसमें से आधी रकम उन पीड़ितों को दी गई जिन्हें इन कैदियों के द्वारा हानि पहुंचाया गया था। देखिए राजेंद्र गायकवाड़ का यह महत्वपूर्ण वीडियो।

https://www.youtube.com/channel/UCvKf...
contact.dmaindia@gmail.com

Web www.damindia.online

शनिवार, 17 मार्च 2018

स्टीफन हॉकिंग - जो हार कर भी जीत जाये


स्टीफन हॉकिंग - जो हार कर भी जीत जाये
संजीव खुदशाह
‘’वे लोग जिन्हें उनके IQ पर बहुत घमंड होता है, वे दरअसल हारे हुए लोग होते हैं.’’
‘’मैंने नोटिस किया है कि ऐसे लोग जो यह विश्वास करते हैं कि वही होगा जो भाग्य में लिखा होगा, वही सड़क पार करने से पहले सड़क को गौर से देखते हैं.’’
स्टीफन हाकिंग के विचार
ऐसा माना जाता रहा है कि अल्बर्ट आइंस्टाइन ने अब तक सबसे अधिक मानव बुद्धि का प्रयोग किया था। वे एक महान वैज्ञानिकों में गिने जाते रहे है। हमें इस बात पर इठलाना चाहिए कि हमने ऐसे वक्त को जिया है जब उन्ही के समकक्ष वैज्ञानिक स्टीफन हाकिंन भी इसी धरती में सांसे ले रहे थे। आज भले ही वे इस दुनिया में नही है। लेकिन उनके कई वैज्ञानिक अनुमान (भविष्यवाणी नही) उनके जीते जी ही पूरे होते रहे है। वे हमेशा दुनिया को अपनी रिसर्च से चौकाते रहे है।
दरअसल पूर्व भौतिक वैज्ञानिक अल्बर्ट आंइस्टाईन से उनका नाम जुडना ही स्टीफन हाकिंग के लिए एक महत्‍वपूर्ण घटना थी। वे बिग बैग थ्योरी एवं ब्‍लैक होल थ्‍योरी के कारण पूरे संसार में प्रसिध्द‍ हो गये। हिगस बोसोन  के रिसर्च के दौरन उनके अनुमानो के सही होते ही वे फिर चर्चा में आ गये, की ईश्वर कण जैसी कोइ चीज नही है।
प्रसंग वश  बताना जरूरी है कि स्टीफन हाकिंग का जन्म 8 जनवरी 1942 को इंग्लैंड के ऑक्सफ़ोर्ड  में हुआ था । जब स्टीफन हाकिंग का जन्म हुआ तो वो बिलकुल स्वस्थ्य और सामान्य थे। उनके पिता का नाम फ्रेंक और माता का नाम इसोबेल था। उनकी दो बार शादी हुई तथा उनके तीन बच्चे है।
उनके जीवन का सबसे चौंकाने वाला तथ्य यह है कि वे महज 21 साल की उम्र में एक असाध्य बीमारी से ग्रसित हो गये जिसका नामAmyotrophic Lateral Sclerosis [ALS ]था।  इस बीमारी में ग्रसित व्यक्ति का स्नायु तन्त्र से नियंत्रण खत्म होने लगता है जिससे उसके शरीर के हिस्से धीरे धीरे काम करना बंद कर देते है। अंत में श्वसन तन्त्र भी काम करना बंद कर देता है जिससे व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। डॉक्टरों ने कहा की उनकी मृत्यु 2 वर्ष के भीतर हो जायेगी। लेकिन वे इससे डरे नही और अपना ध्यान अध्ययन पर लगाने लगे। उनका शरीर धीरे धीरे काम करना बंद कर दिया। लेकिन उनकी बीमारीवहीं रुक गई। वे अपने दांये गाल एवं आंख के सहारे यंत्रो की मदद से वार्तालाप कर पाते थे। मस्तिष्‍क के  साथ साथ उनका कुछ अंग ही सक्रिय था।
इस वैज्ञानिक ने यह सिध्द कर दिया की इस दुनिया में कोई भी विकलांग नही होता। विकलांग होती है मनुष्य‍ की सोच, उन्होने अपनी सभी शारीरिक कमियों को धत्ता  बताते हुये कई महत्वपूर्ण खोज की। दरअसल स्टीफन हॉकिंस,गैलीलियो और अल्बर्ट आइंस्टाइन के ही पंक्ति के वैज्ञानिक है। ग़ौरतलब है कि गैलीलियो और अल्बर्ट आइंस्टाइन ने अपने वक्त के धार्मिक मान्यताओं को चुनौती दी थी एवं उनके अवैज्ञानिक सोच पर सवालिया निशान खड़ा किया था। गैलीलियो को तो धार्मिक लोगों ने आजीवन कारावास की सजा दी और वही उनकी मौत भी हो गई। आइंस्टाइन के साथ भी धार्मिक लोगों का संघर्ष चलता रहा। हलाकि बाद में आइंस्टाइन के कई उपदेश को तोड़ मरोड़कर ज़बरदस्ती धर्म के पक्ष में प्रचारित किया गया।
ठीक इसी प्रकार स्टीफन हॉकिंस भी अपने तमाम खोजों के बाद यह सिद्ध करते रहे की धार्मिक या भगवान जैसी चीजें बेवकूफी भरी हैं। आस्था से विज्ञान का कोई नाता नहीं है। चाहे मामला हिग्स बोसोन का हो या बिग बैंग थ्योरी का या फिर ब्रह्मांड की उत्पत्ति का। इन तमाम मुद्दों पर उन्होंने जो पेपर पेश किए उसमें उन्होंने इस बात को खुलकर बताया की विज्ञान का आधार अवलोकन तथा कारण है जबकि धर्म का आधार आस्था और अंधविश्वास है। वे हमेशा धार्मिक लोगों के निशाने पर रहे है। वह निश्चित रूप से भविष्य में अपने वैज्ञानिक सोच के लिए जाने जाएंगे और जैसे-जैसे मानव धार्मिक आडंबरों अंधविश्वासों से मुक्त होता जाएगा। वैसे वैसे उनके लिए गैलीलियो, अल्बर्ट आइंस्टाइन तथा स्टीफन हॉकिंग का महत्व भी बढ़ता जाएगा। हॉकिंग की सरलता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि एक ओर वे सुदूर अंतरिक्ष के रहस्य सुलझाते हैं तो दूसरी ओर टीवी पर भी नजर आते हैं। ब्रिटेन के कई चैनलों ने उन्हें लेकर कई लोकप्रिय प्रोगाम बनाए हैं। 
स्टीफन हॉकिंग अपने वैज्ञानिक खोज के लिए तो हमेशा याद के जाएंगे ही साथ में विकलांग लोगों के लिए भी प्रेरणा के स्रोत होंगे। उन्होंने अपने जीवन काल में यह सिद्ध कर दिया कि विकलांगता किसी भी मनुष्य की कमजोरी नहीं बन सकता। दरअसल विकलांग वे हैं जिन्होंने अपने आप को सीमित कर लिया हो और यह समझने लगे की उन्हे  सब पता है ज्ञानी है।
Publish in navbharat 17 march 2018
दुख की बात यह है कि स्टीफ़न हॉकिंग के मौत के तुरंत बाद कट्टरपंथी धार्मिक लोग उनके द्वारा दिए गए निष्कर्ष को धर्म के पक्ष में प्रचारित करने का प्रयास कर रहे हैं। जैसे हिग्स बोसोन को ईश्वर कण बताना। धर्म की उत्पत्ति को ब्रह्मांड से जोड़ना तथा उनके जन्म तथा मृत्यु दिवस के संबंध में अन्य  वैज्ञानिको के जन्म मृत्यु  से जोड़ना आदि। बावजूद इसके वे हमेशा तर्कशील लोगो, भौतिक विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान के प्रेरणा बने रहेंगे।
स्टीफन हॉकिन्स की महत्वपूर्ण किताबें
ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम
द ग्रांड डिजाइन
यूनिवर्स इन नटशेल
माई ब्रीफ हिस्ट्री
द थ्योरी ऑफ एवरीथि‍ग