गुरुवार, 29 अगस्त 2024

Reservation within reservation right or wrong?

आरक्षण भीतर आरक्षण सही या गलत?

संजीव खुदशाह

१ अगस्त २०२४ को आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के सात सदस्‍यीय पीठ के द्वारा देविन्‍दर सिंह विरूध पंजाब के बारे में फैसला आने के बाद अगड़ा दलित और पिछड़ा दलित के बीच द्वंद छि‍ड़ गया है। दोनो ओर से अपने अपने तर्क दिये जा रहे है। आज यह बहस राष्‍ट्रीय पटल पर हो रही है। अगड़े दलित उनको माना जाता है जो आजादी के बाद से लगातार नौकरी पेशा में आ रहे हैं और इस जाति के काफी मात्रा में लोग आरक्षण का लाभ लेकर उच्च पदों तक पहुंचे हैं समृद्ध साली हुए हैं। जैसे जाटव, महार, अहिरवार, सतनामी आदि आदि। वहीं दूसरी ओर पिछड़े दलित उन्हें माना जाता है जिन्हें परिस्थितिवश या उनके अति पिछड़ापन होने के कारण आरक्षण का लाभ उस तरह से नहीं मिल पाया जिस तरह से अगड़े दलितों को मिला है। जैसे वाल्मीकि, लालबेगी, मेहतर, डोमार, बंसोर, चुहड़ा, घसिया, देवार आदि आदि। इनमें प्रतिनिधित्व का बटवारा बेहद असमान है। सफाई कामगारों में भी लाभ लेने में वाल्मीकि जाति सबसे आगे है।

यहां यह बताना जरूरी है कि याचिका कर्ता डॉक्टर ओपी शुक्ला जो की दलित समाज से आते हैं, उनका कहना है कि आजादी के बाद से सफाई कामगार समाज का शोषण हुआ है। उनका प्रतिनिधित्व कहां गया ? आखिर किसने उनका प्रतिनिधित्व खाया है? यह बता दें। वह कहते हैं कि मैंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका इसीलिए डाली ताकि संविधान के अनुसार जो सबसे अंतिम व्यक्ति है। उसे इसका फायदा मिल सके। बहुत सारी ऐसी जातियां आज भी हैं जिन्हें सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व नहीं मिला है। इस फैसले से दक्षिण भारत में खुशी का माहौल है तो उत्तर भारत में द्वंद छि‍ड़ा है।

अगड़े दलित कहते हैं कि यह फैसला विधि सम्‍मत नहीं है। यह फूट डालो राज करो जैसा है। इस फैसले से दलितों में दो फाड़ हो जायेगा, वैमनस्य बढ़ेगा। वे कहते है कि उन्होंने अपना गंदा पुश्तैनी पेशा बहुत पहले छोड़ दिया था। लेकिन पिछड़े दलित जाति के लोगों ने अपना गंदा पुश्तैनी पेशा नहीं छोड़ा। जबकि डॉ अंबेडकर ने १९३० में यह आह्वान किया था कि अछूत अपना गंदा पेशा छोड़ दें। पिछड़े दलित जातियों में बहुत बड़ी संख्या सफाई कामगार जातियों की हैं। यह सत्य है कि इन्होंने अपना पुश्‍तैनी गंदा पेशा नहीं छोड़ा। इसके कारण इनमें उत्थान नहीं हो पाया। यह थोड़ा बहुत जागरूक हुई तो भी इन्होंने उस गंदे पेशे में अधिक वेतन और सुविधा की मांग करने लगे। कई जगह ऐसा भी देखने मिला की वे इन पेशों में 100% आरक्षण की मांग करने लगे। ऐसे भी उदाहरण हैं जबकि इन पिछड़े दलित जातियों के कुछ लोगों ने अपने गंदे पेशे को छोड़कर अच्छे पेशे को अपनाया और वह आगे तरक्की कर गये।  

माननीय सु‍प्रीम कोर्ट की सराहनीय पहल

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति जनजाति में क्रीमीलेयर की बात की थी जिसे माननीय प्रधानमंत्री ने लागू नहीं होगा कहकर इस पर विराम लगा दिया, जो सही भी था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के दूसरे निर्देश जिसमें यह कहा गया कि पीछे रह गई जातियों में अलग से आरक्षण का बंटवारा भी किया जाएगा। यह सुप्रीम कोर्ट का एक सराहनीय पहल है। आखिर अतिपिछड़े दलित और आदिवासी को अलग से आरक्षण मिलेगा तो इससे किसे आपत्ति होगी? 

यह प्रश्न खड़ा होता है कि आजादी के 75 साल बाद भी दलित आदिवासी इतने पिछड़े क्यों हैं? आखिर इनमें विकास और उत्थान क्यों नहीं हो रहा है आखिर क्या कमी रह गई। गंदे पेशे से छुटकारा देने के लिए प्रयास किया जाना चाहिए था। क्योंकि एक मानव के द्वारा अपमानजनक पेशे का किया जाना पूरे भारतवर्ष के लिए शर्म की बात है और संविधान के भी विरुद्ध है। चाहिए था कि जल्द से जल्द इन पेशे में लगे लोगों को हटाया जाए और मानव की जगह मशीन का उपयोग किया जाए । साथ-साथ इनका पुनर्वास किया जाना चाहिए।

माननीय सुप्रीम कोर्ट से यह अपेक्षा थी कि अजा अजजा में जो आरक्षण दिया जाता है वह आरक्षण बहुत मात्रा में नॉट फाउंड सूटेबल  कहकर जनरल पोस्ट भर दिए जाते हैं। कई कई साल तक बैकलॉग की भर्तियां नहीं निकाली जाती है। निर्देश दिया जाना चाहिए था कि बैकलॉग की भर्तियां तुरंत करें और नॉट फाउंड सूटेबल को सामान्‍य में समायोजित न करके अगली भर्ती में उसकी वैकेंसी फिर से उसी केटेगरी में निकाली जाए।

जाहिर है पिछड़े दलितों आदिवासियों को मुख्‍य धारा में लाने के लिए हमें बहुत सारे कदम उठाने पड़ेगें सिर्फ आरक्षण से काम नहीं चलेगा तभी हमारे देश में कोई पीछे नहीं रह जायेगा। न ही किसी को अपने विकास के लिए गुहार लगाने की जरूरत पड़ेगी। सुप्रीम कोर्ट के इस पहल का स्‍वागत किया जाना चाहिए। 





गुरुवार, 4 जुलाई 2024

My Shri Lanka Tour - Sanjeev Khudshah

 श्रीलंका के यादगार लम्‍हे

संजीव खुदशाह

बुद्ध जयंती के अवसर पर मुझे श्रीलंका को काफी करीब से जानने समझने का मौका मिला। श्रीलंका में कैसी जीवन चर्या है? लोग वहां कैसे रहते हैं? कैसा व्यवहार करते हैं? और बुद्ध धर्म का प्रचार वहां पर किस तरह से किया गया और वे बुद्ध धर्म को किस प्रकार से मानते हैं? ये सब जानना मेरे लिए किसी कौतूहल से कम न था ।

Loin Rock shrilanka

श्रीलंका पर बात शुरू करने से पहले मैं श्रीलंका के बारे में कुछ आधारभूत तथ्‍यों को बताना चाहूंगा। श्रीलंका एक पुरातन देश है इसका प्राचीन नाम सिंहल द्वि‍प है कुछ बरस पहले इसे सिलोन के आधिकारिक नाम से पुकारा जाता था। बाद में 1972 से इसे श्रीलंका अधिकारिक नाम से जाना जाने लगा। श्रीलंका की आबादी 2 करोड़ 21 लाख है यहां पर 80% लोग बौद्ध धर्म का पालन करते हैं। कुछ तमिल हिंदू, मुसलमान और ईसाई भी हैं। अनुराधापुरम श्रीलंका की प्राचीन राजधानी है। उसके बाद कैंडी कुछ समय तक राजधानी रही है। वर्तमान में कोलंबो श्रीलंका की राजधानी है। ऐतिहासिक रूप से अनुराधापुरम का बड़ा महत्व है भारत से लाया गया बोधी वृक्ष यहां मौजूद है। यहां पर भगवान बुद्ध की अस्थियां भी रखी गई है। श्रीलंका की ये खास बात यह है कि महिला पुरुष के अनुपात में महिलाएं ज्यादा है यानी 100 महिला में 92.12 पुरुष।


आकृति 1 Mahabodhi Tree shrilanka
श्रीलंका की प्राचीन नगरी अनुराधापुरम पर्यटन के लिहाज से महत्‍वपूर्ण है जिसमें महाबोधि वृक्ष, थुपा स्तूप, अभय गिरी स्तूप का दर्शन किया जा सकता है । यहां पर यह जानकर आश्चर्य हुआ कि गया में स्थित महाबोधि वृक्ष से भी पुराना यहां का महाबोधि वृक्ष है। बताया जाता है कि सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र एवं पुत्री संघमित्रा के माध्यम से गया के महाबोधि वृक्ष की शाखा यहां भेजी थी। ईशा से लगभग 300 वर्ष पूर्व। जो कि आज भी यहां पर मौजूद है। क्योंकि श्रीलंका में बौद्ध धर्म को मानने वाले बड़ी संख्या में है। इसीलिए इस वृक्ष को बहुत ही संभालकर रखा गया है। चारों ओर लोहे और ईंट के बाड़े से बोधि वृक्ष को घेरा गया है, एक सोने के स्तंभ से वृक्ष की शाखा को स्पर्श किया गया है। लोग इस स्तंभ को छूकर बोधि वृक्ष को स्पर्श करने का एहसास करते हैं।


आकृति 1 Mahabodhi Tree shrilanka

आकृति 2 Thuparam Stup

आकृति 2 Thuparam Stup

थूपाराम स्तूप- सम्राट अशोक के पुत्र महेंद्र के यहां आने पर 247 ईसा पूर्व श्रीलंका के राजा देवनामपिया तिस्सा के द्वारा बनाया गया। यह श्रीलंका में सबसे पुराना स्तूप है। इस स्तूप में भगवान बुद्ध के दाहिने कंधे  की अस्थि रखा गया है। इसलिए इसका महत्‍व ज्‍यादा है।

आकृति 3 Abhayagiri stup shrilanka

आकृति 3 Abhayagiri stup shrilanka

अभय गिरी स्तूप- श्रीलंका के अनुराधापुरम में अभय गिरी स्तूप की स्थापना राजा वलागम्बा ने अपने शासन के दौरान 89 से 77 ईसा पूर्व में की थी। महावम्श के अनुसार अभय गिरी विहार नाम की उत्पत्ति राजा वट्टागमनी अभय और जैन भिक्षु गिरी के नाम से हुई है जो पहले मठ में रहते थे।

आकृति 4 Dambul Cave

आकृति 4 Dambul Cave

अलुविहारे रॉक गुफा मंदिर - मटाले इसे दांबुला गुफा मंदिर भी कहते है।  यहां पर भारत में स्थित अजंता एंलोरा की गुफाओं की तरह पहाड़ पर गुफाओं की श्रृंखला है। जो की दर्शनिय है । खास बात यह है कि गुफा बनने के बाद से इसका रख रखाव किया जा रहा है। इसलिए इसकी पेंटिंग, बनावट, कलाकृति अब भी नई सी लगती है। जैसे अजंता ऐलोरा को भारत में एक समय भुला दिया गया बाद में फिर खोजा गया। यहा श्रीलंका में ऐसा नही है। इन गुफाओं में बौध्‍द भीक्षु अब भी रहते है और ध्‍यान साधना करते है।

आकृति 5 Golden bhudha temple

आकृति 5 Golden bhudha temple

गोल्डन बुद्धा टेंपल - श्रीलंका की इन प्राचीन गुफाओं के पास ही गोल्‍डन टेंपल है जिस पर बुद्ध की विशाल प्रतिमा है। यह टेम्‍पल ध्‍यान एवं पूजा का केन्‍द्र तो है ही साथ में इसमें ऐतिहासिक महत्‍व की चीजे रखी गई । यहां एक म्‍युजियम भी है। जो की देखने लायक है।

आकृति 6 Dant Vihar

आकृति 6 Dant Vihar

बुद्धा दंत विहार - पवित्र दंत अवशेष का मंदिर, श्रीलंका के शहर कैंडी में स्थित एक बौद्ध मंदिर है। कैंडी की पूर्व राजशाही के शाही महल परिसर में स्थित इस मंदिर में महात्मा बुद्ध के दांत रखे गये हैं। प्राचीन काल से ही इन पवित्र अवशेषों ने स्थानीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, क्योंकि यह माना जाता है कि यह अवशेष जिसके भी पास होते हैं वही इस देश पर शासन करता है। कैंडी श्रीलंका के राजाओं की अंतिम राजधानी थी और मुख्य रूप से इस मंदिर की वजह से यूनेस्को द्वारा इसे एक विश्व विरासत स्थल घोषित किया गया है।

श्रीलंका में चाय बगान का महत्‍व- श्रीलंका में चाय का बगान के पीछे ऐतिहासिक कहानी है। अंग्रेजो ने जब 1815 में श्रीलंका पर कब्‍जा किया तो पहले पहल चाय के बगान बनाये और इस हेतु उन्‍होने मजदूर तमिल नाडु से मगांये । इस तरह यहां पर चाय की खेती शुरू हुई। दुनिया के बड़े ब्रांड की चाय यहां तैयार होती है।

श्रीलंका इन दिनों आर्थिक विघटन से निकलने का प्रयास कर रहा है। इस कारण भारतीय ₹100 श्रीलंका में जाकर 340 श्रीलंका रुपए हो जाते हैं। श्रीलंका का अपना रेल सिस्‍टम है । लेकिन ये सब अब भी पुराने जमाने जैसा है।  तकनीक के मामले में हमारा देश भारत कही आगे है। बसे और दूसरे वाहन भारत से ही इंपोर्ट किए जाते हैं। पेट्रोल पर भी श्रीलंका हमारे भारत पर निर्भर है। जापान और चीन भी श्रीलंका के विकास के लिए सहयोग कर रहे है। भारत में जिस प्रकार श्रीलंका को राम रावण युद्ध या रावण के निवास स्थान के रूप में देखा जाता है। यहां के निवासियों से बातचीत के दौरान ज्ञात हुआ कि श्रीलंका के निवासी राम और रावण से बिल्कुल अनभिज्ञ है। कुछ वर्ष पूर्व श्रीलंका में माता सीता का एक मंदिर बनाया गया है। श्रीलंका में एक और चीज बड़ी प्रसिद्ध है वह है आदम का पैर। कई लोग इसे बुद्ध के पैरों का चिन्ह भी कहते हैं। यह भी बुद्ध विहार का हिस्सा है।

श्रीलंका में बहुत सारी ऐसी चीजे हैं जो की हमेशा याद की जायेगी। जैसे यहां के लोगों की शालीनता। वह शांत रहते है आपस में भी बहुत कम बातचीत करते हैं और श्रीलंका के सड़क, बाजार बिल्कुल स्वच्छ है। क्योंकि यहां के लोग कचरा सड़कों पर नहीं फेंकते । लोग डस्‍टबीन का प्रयोग करते है।  बौद्ध विहारों में साफ सफाई बौद्ध भिक्षु ही करते हुए देखे जाते हैं। श्रीलंका के निवासियों के बीच बौध्‍द भिक्षुओं का बहुत सम्मान है। कुछ बड़े शहर जैसे कैंडी और कोलंबो को छोड़ दें तो श्रीलंका में ट्रैफिक सिग्नल नहीं है। लेकिन लोगों में ट्रैफिक सेंस इतना ज्यादा है कि सड़कों पर हार्न का प्रयोग नहीं करना पड़ता । ज़ेबरा क्रॉसिंग में यदि एक व्यक्ति भी गुजर रहा हो, तो सारे वाहन रुक जाते हैं। यह अनुशासन भारत में बिरले ही देखने को मिलता है। भूमध्य रेखा


में होने के कारण श्रीलंका में मानसून बहुत जल्दी आ जाता है और खूब बारिश होती है। इस कारण पूरे श्रीलंका में हरियाली छाई हुई है। यहां के लोगों का नैन नक्श दक्षिण भारतीयों की तरह है। लेकिन यहां की मुख्य भाषा सिंहली है। भारत यथा संभव श्रीलंका को मदद करता है। संस्‍कृति और भूगोल के हिसाब से श्रीलंका भारत का छोटा भाई की तरह है। ऐतिहासिक रूप से श्रीलंका और हमारे देश के बीच पुराने संबंध है। आशा है समय के साथ साथ यह संबंध और प्रगाढ़ होगा।

Publish On Navbharat 16/06/2024

शुक्रवार, 12 जनवरी 2024

Cricket match in the stadium

 स्‍टेडियम में जाकर क्रिकेट मैच

संजीव खुदशाह

कल पहली बार  स्टेडियम में अंतरराष्ट्रीय राष्ट्रीय क्रिकेट देखने का मौका मिला।

यकीन मानिए तो क्रिकेट से मेरा विश्वास उठ चुका है। तब जब मैच फिक्सिंग के मामले में क्रिकेट की थू थू हुई थी। एक समय क्रिकेट को लेकर दीवानगी मेरे अंदर थी। लेकिन अब वह बात नहीं है टीवी पर भी क्रिकेट मैं बहुत कम देखता हूं। कोई बहुत खास मैच होता है तभी टीवी के सामने बैठता हूं।


कल मुझे अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच जो की रायपुर के शहीद वीर नारायण अंतरराष्ट्रीय स्टेडियम में खेला गया देखने का मौका मिला जो की मित्रों द्वारा प्रायोजित था।

स्टेडियम की ओर जाती हुई भीड़ देखकर अंदाजा लगाया जा सकता था कि क्रिकेट को लेकर कितनी दीवानगी है। बच्चे, बूढ़े, औरत, नौजवान, लड़कियां सब स्टेडियम की ओर जा रहे थे। गेट पर ही पानी के बोतल, सिक्के, खाने की वस्तुएं रखवा ली गई। भीतर जाने के बाद पता चला कि₹20 का पानी की बोतल ₹100 में और खाने के जो समान है। उनका रेट कितना ज्यादा की मत पूछिए।

जैसे ही मैं स्टेडियम के भीतर पहुंचा आवक रह गया। स्टेडियम में खचाखच भरी भीड़ और दूधिया रोशनी से नहाती खिलाड़ियों के मैदान। बेहद आकर्षक लग रहे थे। हम लोग जब अपनी सीट पर बैठकर क्रिकेट का आनंद लेने की कोशिश करने लगे तो महसूस हुआ की इससे ज्यादा अच्छा तो टीवी में लगता है। ऐसा लगता है कि हम खिलाड़ियों के साथ ही घूम रहे हैं या मैदान के बीच में है।

लेकिन क्रिकेट के मैदान में बात दूसरी हो जाती है। कौन बैटिंग कर रहा है? कौन बॉलिंग कर रहा है? आप समझ नहीं पाते. यह जानने के लिए डिस्प्ले बोर्ड जो मैदान में 1 या 2  होते हैं उनका सहारा लेना पड़ता है। बच्चे बूढ़े सब अपने गालों में तिरंगा झंडा बनाए हुए। भारतीय टीम की नीली शर्ट जो मैच के दौरान, एक-दो घंटे के लिए ही पहननी थी लोगों ने 150, 300 में खरीदा था। ऐसा नहीं लग रहा था की यह कार्यक्रम किसी विकासशील देश में हो रहा है। लोगों की खरीदने की ताकत पहले से कहीं अधिक है। टिकट की मूल या 3500 से 25000 तक थे।

क्रिकेट का मैच दरअसल एक इवेंट हो गया है। ओवर खत्म होने के बाद आकर्षक म्यूजिक बजाया जाता है। चौका- छक्का या विकेट गिरने पर भी चीयर गर्ल्स नाचती हैं या फिर लोकल कलाकार डांस करते हैं। और दर्शकों को टीम से कोई लेना-देना नहीं। देशभक्ति तो अपनी जगह है। लेकिन दर्शक सिर्फ और सिर्फ इंजॉय करने के लिए वहां पर जाते हैं। उन्हें हर बॉल पर हर रन पर चिल्लाना है, खुशियां मनाना है। यह बड़ा अच्छा संकेत है कम से कम अति राष्ट्रवाद और किसी देश को लेकर के वह वैमनस्यता वाली बात यहां पर नहीं दिखती है।

आम भारतीयों के जीवन में ऐसी कुछ कमी रह गई है जो उनकी खुशियों में बाधा है इस बाधा को दूर करती है क्रिकेट। जो मैदान में जाकर देखी जाती है। इसे आप  मैदान में जाकर देखें बिना महसूस नहीं कर सकते।

क्रिकेट मैच के ऑर्गेनाइजर आम जनता की इस जरूरत को समझ चुके हैं। इसीलिए इवेंट को इस तरह से रचा जाता है की क्रिकेट सिर्फ और सिर्फ एक मनोरंजन का खेल लगता है। जिसमें कोई देश जीते, कोई देश हरे। जो जनता अपनी पैसे को खर्च कर वहां पर आई है उसका सिर्फ और सिर्फ एक मकसद होता है एंजॉय करना। खुशियां मनाना। यह बात सही है कि अपने देश को हराते हुए देखना किसी को भी अच्छा नहीं लगता है। फिर भी खेल भावना लोगों में अपनी जगह बना रही है।

बॉलीवुड की फिल्में लगातार फ्लॉप हो रही है जिसका टिकट 150 से ₹400 का लेकिन लोग उसे नहीं देखने जाते हैं‌। जबकि क्रिकेट का टिकट 3000 से लेकर 25000 तक है। फिर भी लोग वहां जा रहे हैं क्योंकि वह एंजॉयमेंट, वह दीवानगी जो क्रिकेट में है वह फिल्में नहीं दे पा रही हैं। या कहीं और ऐसा मनोरंजन उनको नहीं मिल पा रहा है।

मुझे लगता है कि एक न एक बार इस तरह स्टेडियम में जाकर क्रिकेट मैच जरूर देखना चाहिए।

https://dailychhattisgarh.com/article-details.php?article=218913&path_article=11

Publish on 2 dec 2023

सोमवार, 17 जुलाई 2023

Pros and cons of uniform civil code समान नागरिक संहिता के नफे नुकसान

 

समान नागरिक संहिता के नफे नुकसान

संजीव खुदशाह

समान नागरिक संहिता, आजकल चारों ओर इस मुद्दे पर चर्चा हो रही है। चर्चा होने का कारण यह है की 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले केंद्र की सरकार (भाजपा सरकार) ने समान नागरिक संहिता लागू करने की बात रखी। प्रधान मंत्री श्री नरेन्‍द्र मोदी ने इस सं‍हिता को लेकर ब्‍यान दिया। आज हम यूनिफॉर्म सिविल कोड याने समान नागरिक संहिता के तमाम पहलुओं पर बात रखेंगे।

केंद्र सरकार के इस प्रस्ताव का एक तरफ स्वागत हो रहा है तो दूसरी तरफ इसकी निंदा भी की जा रही है। कहा जा रहा है इससे अल्पसंख्यकों के अधिकार का हनन होगा, विविधता की संस्कृति समाप्त हो जाएगी। यह भी कहा जा रहा है की मुसलमानों को ठिकाने लगाने के लिए यह कानून लाया जा रहा है।

वैसे केंद्र सरकार की तरफ से समान नागरिक संहिता का कोई मसौदा प्रस्तुत नहीं किया गया है। इस कारण केंद्र सरकार ठीक-ठीक क्या करना चाहती है, इस कानून को लाने के पीछे उनका क्या मकसद है? यह कहा नहीं जा सकता और जब तक कि मसौदा सामने ना आए तब तक इसके पक्ष या विपक्ष में कहना बहुत जल्दबाजी होगी। यह एक ऐसा मुद्दा है जिसे भा जा पा की मातृ संगठन आर एस एस ने बरसों से यूनिफॉर्म सिविल कोड की बात को रखा है, एक देश एक कानून की बात वे हमेशा कहते आऐ है और देश के बहुत सारे लोगों को इस कानून के पक्ष में राजी भी किया है। उनका तर्क है की महिलाओं और वंचितों को अलग-अलग संस्कृति और कानून के नाम पर शोषण होता है। इस कानून के सहारे उन शोषण को दूर किया जा सकता है। इसीलिए वह इस प्रकार के कानून की वकालत करती है।

संविधान क्या कहता है?

आइए जानने की कोशिश करते हैं कि भारत का संविधान इस मामले में क्या कहता है? जब भारतीय संविधान का निर्माण किया जा रहा था, तब समान नागरिक संहिता की आवश्यकता को महसूस किया गया था। प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉक्टर अंबेडकर भी समान नागरिक संहिता के पक्षधर थे और उसी पर यह काम भी कर रहे थे। भारतीय संविधान की धारा 44 में समान नागरिक संहिता को लागू करने के बारे में लिखा गया है। हिंदू कोड बिल को समान नागरिक संहिता का प्रथम सोपान कहा जा सकता है। जिसमें शादी, तलाक, बच्चा गोद लेना, उत्तराधिकार से जुड़े मामले को शामिल किया गया। जिसका उस समय कट्टर वादियों द्वारा विरोध किया गया था। जैसे कि आप सभी को मालूम है कि डॉक्टर अंबेडकर को कानून मंत्री रहते हुए इस हिंदू कोड बिल को पास ना करवाने के कारण मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। हालांकि बाद में हिंदू कोड बिल पास हुआ और देश में लागू हुआ। हिंदू कोड बिल में खासतौर पर हिन्‍दुओं के अलावा जैन, सिख, बौद्ध को भी शामिल किया गया है।

संविधान सभा के द्वारा प्रस्तावित समान नागरिक संहिता का लक्ष्य और अभी के सरकार के द्वारा प्रस्तावित समान नागरिक संहिता के लक्ष्‍य में अंतर है। अभी की सरकार किसी खास वर्ग को खुश करने के  लिए यह संहिता को लाने की बात कह रही है। लेकिन संविधान सभा के निर्माण के दौरान संविधान सभा के सदस्यों ने एक ऐसे भारत की कल्पना की जहां पर धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, परंपरा के नाम पर, संप्रदाय के नाम पर, महिलाओं बच्‍चो और बुजुर्गो का शोषण ना हो।

समान नागरिक संहिता में सबसे ज्यादा लाभ महिलाओं को होने वाला है क्योंकि धर्म संप्रदाय जाति वयवस्‍था अक्सर महिलाओं के हितों का दमन करती है। आप इसे एक उदाहरण से समझ सकते हैं मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार एक तलाकशुदा महिला को भरण पोषण का अधिकार नहीं है लेकिन हिंदू ला में यह अधिकार हिंदू महिलाओं को मिलता है।

इसी प्रकार कई आदिवासी समाजों में पिता की संपत्ति पर बेटियों को अधिकार नहीं मिलता क्योंकि यह उनकी परंपरा है, ऐसा उनका दावा है। कानून भी उसी मुताबिक बना हुआ है। जबकि यह अधिकार हिंदू कोड बिल में बेटियों को दिया गया है।

सामान नागरिक संहिता लागू होने पर देश की सारी महिलाओं, बच्‍चों, बुजुर्गो एवं वंचितों को एक जैसा अधिकार प्राप्त होगा। जैसा कि संविधान सभा के सदस्यों ने सपना देखा था।

यानी समान नागरिक संहिता एक सामाजिक मामलों से संबंधित कानून है, जो सभी पंथ के लिए विवाह, तलाक, भरण पोषण, विरासत व बच्चा गोद लेने में समान रूप से लागू होता है। दूसरे शब्दों में कहें अलग-अलग संप्रदायों के लिए अलग-अलग सिविल कानून न होना समान नागरिक संहिता की मूल भावना है।

समान नागरिक संहिता की भारत में क्या है चुनौतियां?

भारत एक ऐसा देश है जहां पर छुआछूत भेदभाव ऊंच-नीच शोषण का बोलबाला है। जहां पर एक जाति दूसरे जाति के समान नहीं है। प्रश्न उठता है कि क्या जब एक जाति दूसरी जाति के समान नहीं है तो समान नागरिक संहिता लागू की जा सकती है। उच्च जातियों द्वारा छोटी जातियों के ऊपर शोषण करने का वीडियो अक्सर वायरल होता रहता है, ऐसी घटनाएं समाचारों में अक्सर आती रहती है। ये घटनाएं इस ओर इशारा करती है कि‍ भारत में समान नागरिक संहिता लागू करने के पहले जातियों में समानता पर लाना होगा। कितनी ऐसी जातियां हैं जिनका प्रतिनिधित्व शासन-प्रशासन में आज भी नहीं है। और कई ऐसी जातियां हैं जो अपनी जनसंख्या के अनुपात से कई गुना ज्यादा प्रतिनिधित्व पर कब्जा बनाए बैठी हुई।

समान नागरिक संहिता पर टिप्पणी करने वालों का यह तर्क है कि भविष्य में समान नागरिक संहिता लागू हो जाने के बाद आरक्षण को भी निशाना बनाया जा सकता है। बुजुर्वा वर्ग इस कोशिश में है की आरक्षण को निष्प्रभावी बना दिया जाए । ऐसा भी हो सकता है समान नागरिक संहिता को लागू करने में आरक्षण एक रोड़े की तरह देखा जाएगा।

इससे ऐसा वर्ग जो अपनी जनसंख्या से कई गुना ज्यादा अनुपात में शासन प्रशासन पर कब्जा बनाए बैठा है। आरक्षण समाप्त हो जाने के बाद उसका कब्जा स्थाई हो जाएगा। और एससी एसटी ओबीसी एवं अल्‍पसंख्‍यक वर्ग हमेशा के लिए शासन प्रशासन से महरूम हो जाएंगे।

यह भी कहा जा रहा है की इस कानून के लागू होने के बाद सबसे ज्यादा नुकसान आदिवासियों का होगा उनकी जमीने छीन ली जा सकेगी। क्योंकि विशेष आदिवासी कानून किसी काम का नहीं रह जाएगा।

दलित आदिवासी जातियों में शादी और तलाक बेहद आम बात है। सामाजिक बैठकों में इन मामलों का निपटारा कर लिया जाता है। समान नागरिक संहिता लागू हो जाने के बाद हर बार कोर्ट जाना पड़ेगा। कोर्ट में भी प्रकरणों की संख्या बढ़ जाएगी।

चाहे जो भी हो हमारे पूर्वजों ने समान नागरिक संहिता का स्वप्न देखा है। जिसे उन्होंने संविधान में दर्ज भी किया है। इसीलिए समान नागरिक संहिता की जरूरत तो है। लेकिन यह देखा जाना होगा कि क्या देश इसके लिए तैयार है

? क्या इस कानून के लागू होने के पहले समानता आ चुकी है? धार्मिक समानता, जातिगत समानता, लैंगिक समानता आ चुकी है? समान नागरिक संहिता के लागू हो जाने के बाद या उसके पहले बहुत सारे ऐसे हितग्राही हैं जो कि धर्म के नाम पर परंपराओं के नाम पर संपत्ति और संस्थाओं पर कब्जा जमाए हुए हैं। उन्हें तकलीफ होगी और वह विरोध भी करेंगे जैसा कि हिंदू कोर्ट भी लागू होने के पहले हुआ था। ऐसा हो सकता है कि महिलाएं भी सामने आए और वह कहेंगे कि हमें अधिकार नहीं चाहिए, यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू मत करो। यह एकदम कॉमन सी बात है जब अमेरिका के गुलामों की बेड़ियां खोलने का आदेश जारी हुआ तो अमेरिका के गुलाम चिल्ला चिल्ला कर रोने लगे और कहने लगे कि यह हमारी बेड़िया नहीं है यह हमारे गहने है। और उसे वह पहनने के लिए जिद करने लगे। बदलाव के समय ऐसा होता है इन सब का मुकाबला करते हुए समान नागरिक संहिता को लागू करना एक चुनौती होगी। देखना यह होगा कि किस प्रकार सरकार तमाम संस्थाओं, संगठनों  के बीच सहमति बनाते हुए यह कानून लागू कर पाएगी।

शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2022

22 Vows dispute and Agenda of RSS

 

आर एस एस का एजेंडा और 22 प्रतिज्ञाएं

संजीव खुदशाह 

पिछले दिनों 22 प्रतिज्ञा को लेकर पूरे देश में चर्चा छिड़ गई इसके पीछे आम आदमी पार्टी के मंत्री श्री राजेन्‍द्र पाल गौतम ने 22 प्रतिज्ञाएं को बौद्ध धर्म शिक्षा के कार्यक्रम में दोहराया और हिंदुत्व वादी लोगों ने इसे अपनी भावनाओं के आहत होने की बात कहकर इसे तूल दिया। इसके बाद अरविंद केजरीवाल ने श्री राजेन्‍द्र पा
ल गौतम को मंत्री पद से हटा दिया।

यहां पर 22 प्रतिज्ञाएं विशेष महत्वपूर्ण नहीं है। क्योंकि यह हमेशा से पढ़ी जाती रही हैं। तमाम बुद्धिस्ट कार्यक्रमों में, बहुजन कार्यक्रमों में यह 22 प्रतिज्ञाओं का पढ़ा जाना एक आम बात है। लेकिन इस छोटे से कारण को लेकर किसी मंत्री को मंत्री पद से हटा देना बड़ी घटना है। इस पर हम चर्चा करें इससे पहले धर्मांतरण को ले कर बात करते हैं।

यहां यह बताना चाहता हूं कि कोई भी धर्मांतरण में प्रतिज्ञा, कसम, शपथ लेना एक आम बात है। जब कोई व्यक्ति हिंदू से मुसलमान बनता है, हिंदू से ईसाई बनता है, तो उसे उसके पुराने धर्म को ना मानने की शपथ दिलाई जाती है। 22 प्रतिज्ञाएं कोई नई नहीं है। वैसे भी 22 प्रतिज्ञाओं में से केवल शुरू की 3 प्रतिज्ञा ही हिन्दू देवी देवता पर आधारित है। कई जगह ईसाई बनाते समय मां-बाप की शपथ दिलाई जाती है। पुराने देवी देवताओं को ना मानने की शपथ दिलाई जाती है। इसी प्रकार मुसलमान धर्म में प्रवेश के दौरान भी शपथ दिलाई जाती है। ऐसी शपथ

, जाहिर है कि मुस्लिम से हिंदू बनने के दौरान भी पुराने इष्ट देव, अल्लाह या भगवान , उन्हें ना मानने की शपथ दिलाई जाती है। अब प्रश्न उठता है कि जब यह बहुत छोटी सी बात है। तो इस बात को इतना तूल क्यों दिया जा रहा है। यह समझना जरूरी है जब यह छोटी सी बात है तो इस बात पर एक मंत्री को पद से हटाया क्यों गया। इसे भी समझना जरूरी है।

दरअसल बहुत सारे लोग आर एस एस के सही एजेंडे को नहीं समझ पाते हैं। लोग समझते हैं कि भारतीय जनता पार्टी को सत्‍ता में बनाए रखना ही आर एस एस का मकसद है। लेकिन यह सच्चाई नहीं है। सच्चाई यह है की आर एस एस के लिए भारतीय जनता पार्टी एक मोहरा मात्र है। दरअसल आर एस एस का मकसद है हिंदुत्व के मुद्दे को मेंस्ट्रीम में लाना, राजनीति की धुरी में हिंदुत्व को रखना है और आर एस एस अपने इस मकसद में पूरी तरह से कामयाब दिखती है। ऐसी बात नहीं है कि इससे पहले हिंदुत्व के मुद्दे पर पार्टियां बात नहीं करती थी। लेकिन 2014 के बाद में परिस्थितियों पूरी बदल गई। अब कोई भी पार्टी के एजेंडे में कौमी एकता, भाईचारा, तर्क शीलता, विज्ञान वाद नहीं है इसीलिए कांग्रेस के राहुल गांधी अपने जनेऊ को दिखाते फिरते हैं। मंदिर मंदिर माथा टेकते हैं। इसीलिए समाजवाद की बात करने वाली समाज वादी पार्टी ब्राह्मण सम्मेलन करती है। बहुजन की बात करने वाली बहुजन समाज पार्टी हाथी को गणेश बताती हैं। मायावती त्रिशूल लिए फिरती हैं। आम आदमी को लेकर चलने की बात करने वाली पार्टी के अध्यक्ष अरविंद केजरीवाल अपने आप को हनुमान का भक्त बताते हैं। यानी जितनी बड़ी पार्टियां हैं वह सब हिंदुत्व की तरफ बड़ी तेजी से बढ़ती हुई देखी जा सकती है। अगर आप। JDU, AIMIM और AIDMK को छोड़ दें तो सभी बड़ी पार्टियां हिंदुत्व के एजेंडे पर चलती हुई दिखती हैं।

दरअसल आर एस एस का भी मकसद यही है की हिंदुत्व को राजनीति की धुरी बनाया जाए। इसलिए आर एस एस के खिलाफ बात करने वाले राहुल गांधी भी अपने आप को हिंदुत्व से अलग नहीं दिखाना चाहते हैं। मुसलमानों की बात करने वाली आप पार्टी, समाज वादी पार्टी अपने आप को हिंदुत्व के एजेंडे से जुड़े रखना चाहते हैं। बहुजन समाज पार्टी ने अपनी विचारधारा को लगभग पूरा बदल दिया है। इसके पीछे कोई दबाव नहीं है। लेकिन आर एस एस ने जो माहौल बनाया है। जो भ्रम लोगों में पैदा किया है कि हिंदुत्व के बिना राजनीति नहीं की जा सकती। वह भ्रम पैदा करने में पूरी तरह से सफल हो गई। भारतीय जनता पार्टी को छोड़कर बाकी पार्टियों को लगता है कि वह भी हिंदुत्व को लेकर बात करेंगे तो लोग भाजपा को छोड़कर उन्‍हे वोट देगे। और वे सत्ता में आ जाएंगे। लेकिन यह उनका भ्रम है। सवर्ण हिन्‍दू किसी भी हाल में भारतीय जनता पार्टी का साथ नहीं छोड़ेंगे। बाकी जो 80% जनता है जो कि किसी ना किसी प्रकार से हिंदुत्व से पीड़ित है। उनके धर्म ग्रंथों से आहत है। वह हिंदुओं में शामिल हैं। वह जनता के लिए आज की तारीख में कोई ऑप्शन नहीं है। जो विज्ञान की बात करना चाहती है , जो जनता कौमी एकता को बढ़ाना चाहती है,  उस जनता के लिए आज कोई विकल्‍प नहीं है। क्योंकि कांग्रेस की सरकार भी जहां बन रही है वहां पर वे हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए बीजेपी को पीछे छोड़ देना चाह रहे हैं। अब आप समझ सकते हैं कि आर एस एस अपने मकसद में किस कदर सफल हुआ है। और इतनी छोटी सी बात कांग्रेस की विचारक नहीं समझ पा रहे हैं। इसे आर एस एस की सफलता के रूप में भी देखा जाना चाहिए।

आर एस एस के कार्यकर्ता, विचारक अक्सर यह बोलते हुए देखे जाते हैं कि देखो हमने कांग्रेस को मजबूर किया राम गमन पथ बनाने के लिए। हमने उन्हें जनेऊ दिखाने के लिए मजबूर कर दिया। हमने आम आदमी पार्टी के केजरीवाल को कृष्‍ण बनने के लिए मजबूर कर दिया। याने संघ ने जो भ्रम तैयार किया है उसमें भ्रमित होने के लिए सभी पार्टी आमादा है। होड़ लगी हुई है हिन्‍दुत्‍व के ऐजेन्‍डे में आने की।

80% जनता का क्या होगा?

यदि सवर्ण और कट्टर हिंदुओं को छोड़ दें। तो 80% जनता जिसमें ईसाई, मुस्लिम, सिक्‍ख, कबीरपंथी, रवीदासी तमाम पंथों को मानने वाले लोग। जिनमें ओबीसी एससी एसटी हिंदू भी शामिल हैं। उनके लिए आज कोई विकल्प नहीं है। क्योंकि भारत की जो 80% जनता है वह हिंदुओं के धर्म ग्रंथों से आहत है। और वह हिंदुत्व के एजेंडे पर नहीं विकास के एजेंडे पर गरीबी, भूखमरी, शिक्षा, स्वास्थ्य के मुद्दे पर केन्‍द्रीत राजनीति को देखना चाहती है। समता, समानता, भाईचारा पर केंद्रित राजनीति देखना चाहती है। लेकिन कोई पार्टी इस पथ पर चलती हुई नहीं दिखती है। इसीलिए मौजूद नरम दल गरम दल में किसी एक को चुनना उनकी मजबूरी हो जाती है। तमाम गोदी मीडिया होने के बावजूद भारत की लगभग 80% जनता देश के राजनीतिक माहौल को समझ रही है। यह खुशी की बात है। आप इस विकसित होती भारत की जनता की राजनीतिक समझ को सलाम कर सकते हैं। यही कारण है की पिछले 2014 से हिंदुत्व का माहौल होने के बावजूद बहुत सारे राज्यों में गैर भाजपा सरकार बनी है।

 

जब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के द्वारा धर्मांतरण किया गया तब पहली बार 22 प्रतिज्ञाएं उपस्थित लाखो की जनसंख्या को दिलाई गई। इसके बाद जहां भी धर्मांतरण होता है तो सबसे पहले 22 प्रतिज्ञाएं की शपथ दिलाई जाती है। उसके बाद ही बुद्ध की शरण में लाया जाता है। प्रश्न उठता है कि उस समय तथाकथित हिंदुओं की भावनाएं क्यों आहत नहीं हुई। बहुत सारे दलित बुद्धिजीवी कहते हैं कि डॉक्टर अंबेडकर के साहित्य का निचोड़ 22 प्रतिज्ञाएं हैं। अगर आप उनकी तमाम किताबें नहीं पढ़ पा रहे हैं लेकिन यदि उनकी 22 प्रतिज्ञाएं पढ़ ले तो आपको समझ आ जाएगा कि उनकी किताबों में क्या है।  संघ अपने एजेंडे में डॉक्टर अंबेडकर को रखती है जहां एक ओर गांधी की आलोचना करते हैं वहीं दूसरी ओर डॉक्टर अंबेडकर की प्रशंसा करते हैं। और उन्हें अपनी ओर बनाए रखने की कोशिश करते हैं। फिर यही काम आम आदमी पार्टी भी करती है। आम आदमी पार्टी के तमाम कार्यालयों में और जहां उनकी सरकार है उनके ऑफिस में डॉक्टर अंबेडकर की फोटो लगाना अनिवार्य कर दिया गया है। इसके बावजूद बाबा साहब की 22 प्रतिज्ञा से उन्हें परेशानी हुई। प्रश्न उठता है की क्या बहुजनों को लुभाने के लिए ही डॉ आंबेडकर की तस्वीर लगाई जा रही है? उनकी विचारधारा का क्या होगा? उनकी तमाम लिखी किताबों का क्या होगा? जिसे भारत सरकार ने प्रिंट करके प्रकाशित किया है? आखिर वह क्या कारण है जो कि आम आदमी पार्टी अपने आपको बाबा साहब के करीबी बताते हुए उनकी प्रतिज्ञा को पढ़ने वाले मंत्री को वह हटा देती है। इसका सीधा कारण है 15% सवर्ण जनता को खुश करने की कोशिश। जबकि कोई भी राजनीतिक पार्टी 15% सवर्ण जनता के वोटों से सरकार नहीं बना सकती। यह उन्हें मालूम है। लेकिन वे उनके गोदी मीडिया से डरते हैं, उनके खिलाफ आईटी सेल से डरते हैं, उनको लगता है कि वह यदि हिंदुत्व के खिलाफ जाएंगे तो उनका विनाश निश्चित है।

तो क्या करना चाहिए?

हिंदुत्व के एजेंडे को अगर छोड़ दें तो राजनीति के लिए एजेंटों की कमी नहीं है। समता, समानता, भाईचारा, तर्क शीलता, विकास, स्वास्थ्य , गरीबी, बेरोजगारी जैसे तमाम मुद्दे हैं। जिन्हें राजनीति की धूरी बनाकर विपक्ष आगे बढ़ सकता है। और जनता के लिए एक विकल्प बन सकता है। ऐसा करने के लिए उन्हें हिंदुत्व के विरोध में कोई बात बोलने की जरूरत नहीं है। हिंदुत्व विरोधी बनने की कोई जरूरत नहीं है। ना ही अपने आप को हिंदुत्व में घुसा हुआ बताने की जरूरत है। लेकिन आज के दौर का दुखद पहलू यह है की इतनी छोटी सी समझ यदि एक दो दलों को छोड़ दें तो किसी को भी नहीं है। काश भारत की राजनीतिक एजेंडा पर किसी धर्म के कब्जे के बजाए कौमी एकता की बात होती। बात होती विज्ञान की। बात होती भाईचारे की। बात होती शिक्षा स्वास्थ्य और विकास की।

 

रविवार, 19 अप्रैल 2020

Know that Dr. Ambedkar's two things which the did not accept by safai kamgar


जानिये डॉ अंबेडकर की वह दो बाते जिन्‍हे 
सफाई कामगार दलित जातियों ने नही माना

 संजीव खुदशाह

वैसे तो दलितों में विभिन्न जातियां होती है। विभिन्न जातियों के पेशे भी भिन्न भिन्न होते है। लोकिन पूरी दलित जातियों के बड़े समूह को दो भागों में बांट कर देखा जाता रहा है। पहला चमार दलित जातियां जो मरी गाय की खाल निकालती और उसका मांस खाती थी। दूसरा सफाई कामगार जातियां जो झाड़ू लगाने से लेकर पैखाना सिर पर ढोने का काम करती रही है।

यदि अंबेडकरी आंदोलन के पि‍रप्रेक्ष्य  में देखे तो चमार दलित जातियां आंदोलन के प्रभाव में जल्दीं आयी और तरक्की‍ कर गई। वही़ सफाई कामगार दलित जातियां अंबेडकरी आंदोलन में थोड़ी देर से आयी या कहे बहुत कम आई, पीछे रह गई। आइये आज इसके विभिन्न  पहलुओं पर पड़ताल करते है।
क्या है अंबेडकर का प्रभाव (आंदोलन) कौन सी ही वे दो बाते?
सन 1930 में डॉं अंबेडकर ने देखा की दलितों के साथ बेहद भेदभाव हो रहा है। उनका शोषण नही रूक रहा है। तो उन्होने दलितों से दो अपील की (1) अपना गांव या मुहल्ले  छोड़ दो, शहर में बस जाओं (2) अपना गंदा पुश्तैनी पेशा छोड़ कोई दूसरा पेशा अपनाओ। इन दो अह्वान का असर यह हुआ की दलित जाति शोषण शिकार अपने गांव को छोड़ कर शहर में आ बसी। इसके लिए उन्हे उच्च जाति के लोग उन्हे गांव छोड़कर जाने नही देना चाहते थे। इससे उनकी सुविधाओं और आराम पसंद जिदगी के खलल पैदा हो सकती थी। उनके घर बेगारी कौन करेगा? कौन उनके मरे जानवरों को फेकेगा?
दूसरा काम यह हुआ की दलित जातियां मरे जानवरों को फेकने चमड़े निकालने का काम करने से इनकार कर दिया। इसका असर यह हुआ की गांव में दलितों के साथ मार पीट की गई। दलितों की भूखे मरने की नौबत आ गई। बावजूद इसके बहुसंख्यक दलितों ने अपना रास्ता  नही छोड़ा। डां अंबेडकर के आह्वान पर कायम रहे। गौर तलब है ऐसा करने वाली दलित जातियां चमार वर्ग की थी। सफाई कामगारों ने डॉं अंबेडकर के दानो आह्वान का पालन नही किया। न वे आज भी कर रहे है। आज भी  वे अपनी जातिगत गंदी बस्ति‍यों में रहते है और अपना वही पुराना गंदा पेशा अपनाए हुये है।
इसके क्या कारण है यह ठीक ठीक बताना बेहद कठीन है। लेकिन तत्कालीन परिस्थितियों को देखकर कुछ निष्कर्ष पर पहुचा जा सकता है। उन्होने डॉं अंबेडकर के आह्वान को नही माना इसके निम्न कारण हो सकते है।
1) सुविधा - उन तक बात नही पहुची होगी की अपने शोषण कारी गांव को छोड़ दिया जाय। उस समय (1930) सफाई कामगार जातियां ज्यादातर शहरों में निवास करती थी। वैसा कष्टकारी जीवन उन्हे देखने को नही मिला जैसा गांव में दलितों को मिलता है। इसलिए उनको शहर में रहने के करण गांव छोड़ने का प्रश्नो नही उठता। रही बात उनकी गंदी बस्‍तियों को छोड़ने की तो उन्होने इसलिए नही छोड़ा होगा क्योकि उन्हे गांव के वनिस्पत कष्ट या शोषण कम रहा होगा। बात जो भी हो यह एक सच्चा ई है कि सफाई कामगारों ने अपनी गंदी बस्तियों को नही छोड़ा ।
2) आत्मो सम्मायन नही जागा- गंदे पेशे को छोड़ने का आह्वान भी सफाई कामगारों ने अनसुना कर दिया। इसका कारण था उनकी आर्थिक स्थिति, अंग्रेजों / अफसरों से निकटता जो उन्हे सुविधा भोगी बनाती थी। वे अफसरों की तिमारदारी से लेकर सभी गंदे काम करते थे। वे झाड़ु लगाते, नाली साफ करते, मैला ढोते, उनकी जूठन खाते। उन्हे कभी अपने आत्म सम्मान के अपमान होने का एहसास नही हुआ। यही सब बाते उन्हे पुस्तैनी पेशे पर एकाधिकार रखने हेतु प्ररित करती थी। इस लिए उन्होने डॉं अंबेडकर के इस आह्वान को भी नही माना।
3) सामाजिक नेतृत्व शुरू से आज तक सफाई कामगार जातियों में जो सामाजिक नेतृत्व् मिला चाहे वो जाति पंचायत के रूप में रहा या किसी धार्मिक नेता के रूप में उन्होने हमेशा सफाई कामगारों का शोषण किया। उन्हे डॉं अंबेडकर के विरुध भड़काया। कहा की वे सिर्फ चमारो के नेता है। इस काम में हिन्दूवादी लोग / राजनीतिक पार्टीयां मदद करती रही। सामाजिक नेता अपनी राजनीति चमकाने के लिए नये नये गुरूओं की पूजा करने लगे जैसे वाल्मीकि, सुदर्शन, गोगापीर, मांतग, देवक ऋषि आदि आदि। वे सारे काम इन समाजिक नेताओं द्वारा किये गये जो इन्हे अंबेडकरी आंदोलन से दूर रखे जाने के लिए किये जाने जरूरी थे। इसका एक बड़ा कारण गांधी का प्रभाव भी रहा है।
4) गांधी का प्रभाव- इसी दौरान (1932) गांधी ने हरिजन सेवा समिति का गठन किया। वे हरिजन नामक अंग्रेजी पत्र प्रकाशित करते थे। इसके केन्द्र में उन्होने सफाई कामगारों को रखा। वे हिन्दूवादी थे और वे नही चाहते थे की दलित इस पेशे को छोड़े। उन्होने उल्टे यह कहा की ‘’ यदि मेरा अगला जन्म होगा तो मै एक भंगी के घर जन्म  लेना पसंद करूगा।‘’ इसका प्रभाव यह पड़ा की सफाई कामगार अपने पेशे के प्रति झूठे उत्साह से भरा गये। आत्मसम्मान के उलट अपने आपको फेविकोल से इस पेशे से जोड़ लिया।
अब प्रश्न उठता है कि सफाई कामगारों में आत्मसम्मान कब जागेगा। कब वे अपना पुश्तैनी पेशा एवं गंदी बस्तियां छोड़ेगे। कब अंबेडकरी आंदोलन से जुड़ेगे?
1) सफाई कामगारों के बर्बादी के कारण समाजिक नेता- सफाई कामगारों का सबसे बड़ा नुकसान उनके ही समाजिक नेताओं ने किया। इतिहास गवाह है कि किसी भी सामाजिक नेता ने डॉं अंबेडकर के दोनो आह्वान को पूरा करने में कोई रूची नही दिखाई । उल्टे वे पार्टी के टिकट पाने पद  पाने के निजी लालाच में डॉं अंबेडकर के विरुध लोगो को भड़काते रहे। यह प्रकिया आज भी जारी है। 
2) धर्मान्धता यह देखा गया है जो दलित जातियां पिछड़ी या गरीबी का शिकार रही है वे अति धार्मिकता से ग्रसि‍त रही है। सफाई कामगारों के साथ भी यही हुआ। जाति शोषण से परेशान होकर यदि कोई धर्मांतरण करना चाहता तो उसे किसी काल्पनिक गुरू के सहारे धर्माधता में ढकेल दिया जाता। वे गरीब होने के बावजूद सारे कर्म काण्ड कर्ज लेकर करती। भले ही बच्चों को शिक्षा देने के लिए पैसे न हो। आज भी धर्मांधता सफाई कामगारों के पिछडे़पन का एक बड़ा करण है।
3) नशा-सफाई कामगार के परिवार ज्यादतर नशे के गिरफ्त में होते है। नशे के कारण वे अपने पेशे आत्म सम्मान के बारे में सोच नही पाते है। नशा करना घर की महिलाओं से या आपस में झगड़ना दैनिक दिन चर्या का अहम हिस्सा  है।
4) आलस- आमतौर पर सफाई कामगारों द्वारा यह सुना जाता है कि अपना वाला काम करो बड़े मजे है। रोज सुबह एक दो घंटा काम करों। दिन भर का आराम। इस काम में मेहनत कम होने की एक वजह के कारण लोग इस काम को छोड़़ना नही चाहते यह देखा गया है। दूसरा यह है कि घरों में सेफ्टी टैक साफ करने के उचे दाम मिलते है। अगर एक दिन में दो घरो का काम मिल गया तो इतने पैसे आ जाते है कि एक हफ्ता काम करने की जरूरत नही पड़ती। शहरी करण ने आम लोगो को इस काम के उचे दाम देने के लिए मजबूर किया है।
तो प्रश्न यह उठता है कि सफाई कामगार कब अपनी गंदी बस्ती और गंदे पेशे को छोड़ेगा?
 यह तभी होगा जब वह अंबेडकरी आंदोलन से जुड़ेगा। सामाजिक नेता, धर्मांधता, नशे के गिरफ्त्‍ से बाहर निकलेगा आलस को त्यागेगा। उसे खुद सोचना होगा क्यों  वह आज तक इतना पिछडा है। परियार कहते है जिस समाज का आत्मसम्मान नही होता वह कीड़ों का एक झुण्ड के बराबर है। इसलिए आत्मसम्मान जगाना होगा। इस काम में समाज के ही अंबेडकरवादी पेरियार वादी बुध्दजीवियों सामाजिक कार्यकर्ताओं को आगे आना होगा तभी इस समाज में आत्मसम्मान जागेगा और सफाई कामगार समुदाय अंबेडकरी आंदोलन से जुड़ेगा।