रविवार, 31 अगस्त 2025

Promotion and Regulation of Online Gaming Bill, 2025

 मध्यम वर्ग और युवाओं की रक्षा के लिए मील का पत्थर यह अधिनियम

(ऑनलाइन गेमिंग का संवर्धन और विनियमन विधेयक 2025)

संजीव खुदशाह 

इतिहास और पुराने आंकड़े बताते हैं की जुआ खेलने से सिर्फ बर्बादी होती है और फायदा उसका होता है जो जुआ खिलाता है। जुए की जड़ में सट्टा बाजार, ऑनलाइन गेमिंग, लॉटरी जैसी तमाम खेल आते हैं जो की बिना मेहनत के पैसे कमाने के लिए प्रेरित करते हैं। लेकिन इसमें खेलने वाला अंत में बर्बाद होता है। बहुत सारी ऐसी खबरें आ रही थी। तमाम प्रकार के जुए अब ऑनलाइन प्लेटफॉर्म में आ चुके हैं और अब उनकी गिरफ्त में वह भी हैं जिनकी पहुंच में सट्टा बाजार, लॉटरी आदि नहीं था। यानी अब दूरस्थ इलाके के लोग भी जुए से जुड़कर  आर्थिक जोखिम उठा रहे हैं।

ऑनलाइन जुआ क्या है

जब किसी इंटरनेट लिंक वेबसाइट या मोबाइल ऐप के जरिए पैसे दांव पर लगाए जाते हैं तो इसे ऑनलाइन गेमिंग या ऑनलाइन जुआ कहते हैं। ऑनलाइन जुआ खेलने के दौरान आपके सामने एक कंप्यूटर या एक व्यक्ति या एक से ज्यादा व्यक्ति हो सकते हैं। ग़ौरतलब है कि नए यूजर्स को ऑनलाइन जुएं की ओर आकर्षित करने के लिए शुरू-शुरू में कुछ पैसे जीताए जाते हैं उन्हें मुफ्त में गेम खेलने की पेशकश की जाती है। जब तक वह व्यक्ति गेम खेलने का आदि न हो जाए।

गेम खेलने का आदी होने के बाद व्यक्ति मानसिक रूप से जड़ हो जाता है और जीतने के लिए पैसे लगाता जाता है। इस प्रकार वह कर्ज और बर्बादी की कगार में पहुंच जाता है। इसके लिए वह कई गैर कानूनी काम और आत्महत्या करने के लिए भी अग्रसर हो जाता है।

ऑनलाइन मनी गेम्स के तेजी से प्रसार ने युवक-युवतियों, परिवारों और राष्ट्र के लिए गंभीर खतरा पैदा किए हैं। जहां डिजिटल प्रौद्योगिकी ने कई लाभ अर्जित किए हैं। इन खेलों ने कानून में खामियों का लाभ उठाया है और भारी सामाजिक नुकसान का कारण बना है। इस विधेयक पर चर्चा के दौरान राज्यसभा को संबोधित करते हुए केंद्रीय इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री श्री अश्वनी वैष्णव कहते हैं कि एक अनुमान के मुताबिक 45 करोड़ लोग ऑनलाइन मनी गेम से नकारात्मक रूप से प्रभावित हुए हैं और इसके कारण उन्हें 20,000 करोड रुपए से अधिक के नुकसान का सामना करना पड़ा। सरकार ने इन अंतरालों को बंद करने और नागरिकों की रक्षा करने के लिए बड़े कदम उठाए हैं। 

राष्ट्र और नागरिकों की रक्षा के लिए बहुत समय से यह मांग होती रही है कि ऑनलाइन गेमिंग यानी ऑनलाइन जुएं को विनियमित करने के लिए कोई कानून बनाया जाए। पिछले दिनों सरकार ने इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए ऑनलाइन गेमिंग संवर्धन और विनियमन विधेयक 2025 पारित किया है।

जानिए इस कानून में क्या है खास

ई स्पोर्ट्स का प्रचार करना-

स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ाने के लिए इस सेक्टर को प्रशिक्षण अकादमियों अनुसंधान केंद्रों और प्रौद्योगिकी की प्लेटफार्म की स्थापना की जाएगी और इ स्पोर्ट को आगे बढ़ाया जाएगा। 

हानिकारक ऑनलाइन मनी गेम्स का निषेध-

यह विधेयक ऑनलाइन मनी गेम्स पर पूर्ण प्रतिबंध लगाता है। यह चांस के खेल, स्कीम के खेल और दोनों को मिलाने वाले खेलों पर लागू होता है। अब तक इस तरह के खेल के लिए क्रिकेट और बॉलीवुड के सेलिब्रिटी विज्ञापन दिया करते थे। अब ऐसे खेलों का विज्ञापन और प्रचार सख्त वर्जित रहेगा। इन प्लेटफार्म में संबंधित वित्तीय लेनदेन बैंको या भुगतान प्रणालियों द्वारा नहीं किया जा सकता । प्राधिकारियों को सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 के तहत गैर कानूनी प्लेटफॉर्मों तक पहुंच को अवरोध करने का भी अधिकार होगा। 

अपराध और दंड -

विधेयक के अंतर्गत कठोर दंड का प्रावधान किया गया है। ऑनलाइन मनी गेम्स की पेशकश या सुविधा देने पर 3 साल तक की कैद और एक करोड रुपए तक का जुर्माना हो सकता है। इन खेलों से संबंधित वित्तीय लेनदेन भी इसी तरह के दंड के साथ दंडनीय हैं। ऐसे खेलों का विज्ञापन करने पर 2 साल तक की जेल और 50 लख रुपए तक का जुर्माना हो सकता है। बार-बार अपराध करने वालों के लिए कठोर दंड का प्रावधान किया गया है। जिसमें 5 साल तक की सजा और 2 करोड रुपए का जुर्माना सम्मिलित है। प्रमुख प्रावधानों के तहत अपराध संज्ञेय और गैर जमानती होंगे। जिसका अर्थ है कि पुलिस बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकती है और जमानत का अधिकार नहीं होगा। 

इस कानून के क्या फायदे होंगे -

रचनात्मक अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन मिलेगा और सुरक्षित ऑनलाइन प्लेटफॉर्म उपलब्ध होगा। धोखा घड़ी की गुंजाइश कम होगी। युवाओं को सशक्त बनाने में सहयोग मिलेगा। ई स्पोर्ट और कौशल आधारित डिजिटल गेम से आत्मविश्वास अनुशासन और टीमवर्क बनाने में मदद मिलेगी। प्रतिभाशाली खिलाड़ियों के करियर के मार्ग भी प्रशस्त होंगे। एक सुरक्षित डिजिटल वातावरण बनेगा। परिवारों को लालच देने वाले गेमों से बचाया जाएगा। यह प्लेटफॉर्म अक्सर उपयोगकर्ताओं को आसान वित्तीय लाभ के झूठे वादों के साथ लुभाते हैं, जिसकी लत पड़ जाती है और वित्तीय विपत्ति का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार के खतरों को दूर करके यह विधेयक एक स्वस्थ और सुरक्षित डिजिटल स्पेस बनाने में मदद करेगा।

ऑनलाइन गेमिंग का संवर्धन और विनियमन विधेयक 2025 भारत की डिजिटल यात्रा में एक निर्णायक कदम साबित होगा। अनियमित मनी गेमिंग के खतरों को दूर करने और नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। उन बर्बाद होने वाले परिवारों, युवाओं, मध्यम वर्ग को राहत मिलेगी। जो ऑनलाइन झूठे वादों के आधार पर फंस जाते हैं और वित्तीय जोखिम उठाते हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि विधेयक सुनिश्चित करता है कि प्रौद्योगिकी, समाज को नुकसान पहुंचाने के बजाय उसकी सेवा करें। यानी सूचना प्रौद्योगिकी को यह कानून मजबूत करेगा न की कमजोर । बल्कि मील का पत्थर साबित होगा।

 


 

रविवार, 20 अप्रैल 2025

व्यवहारिक और लचीला बनकर हैरत में डाल सकता है भारत

 अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध का भारत और दुनिया के लिए क्या मतलब है?

संजीव खुदशाह

अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध मुख्य रूप से टैरिफ, व्यापार संतुलन और आर्थिक नीतियों को लेकर चल रहा है। यह 2018 से शुरू हुआ जब अमेरिका ने चीनी सामानों पर टैरिफ लगाए। इसके जवाब में चीन ने भी अमेरिकी उत्पादन पर जवाबी टैरिफ बढ़ाया । हाल के वर्षों में खासकर 2025 में यह तनाव और बढ़ा है।

अमेरिका ने चीनी आयात पर 104% तक टैरिफ लगाए जिसे बाद में बढ़ाकर 145% तक किया गया। चीन ने इस टैरिफ के जवाब में अमेरिकी माल पर 34% से 125% तक टैरिफ बढ़ाए। यानी दोनों देशों ने आपस में एक दूसरे की प्रोडक्ट पर टैरिफ में भारी भरकम वृद्धि कर दी और खुलेआम टैरिफ वार की घोषणा की जाने लगी। इससे दोनों देशों के शेयर बाजारों में गिरावट आ गई। अमेरिकी बाजारों में 3% तक की कमी देखी गई । जबकि चीनी बाजार में 3 से 4% तक की गिरावट दर्ज हुई। वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाएं और अर्थव्यवस्था पर भी इसका असर पड़ने लगा। अमेरिका का दावा है कि वह व्यापार घाटे को कम करना चाहता है और घरेलू उद्योगों की रक्षा करना चाहता है। इसी कारण उसे टैरिफ बढ़ाना पड़ रहा है। लेकिन चीन इसे आर्थिक दबाव के रूप में देखता है और यह कहता है कि यह लड़ाई अंत तक चलेगी।

यह टैरिफ युद्ध अन्य देशों जैसे पाकिस्तान और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर बुरा असर कर सकता है। वैश्विक व्यापार विशेषज्ञ आर्थिक व्यवधानों की चेतावनी भी दे रहे हैं। वर्तमान में दोनों देशों के बीच तनावपूर्ण बयान बाजी जारी है। चीन ने कहा है कि वह किसी भी तरह के व्यापार युद्ध के लिए तैयार है। जबकि अमेरिका अपनी अमेरिका फर्स्ट नीति पर कायम है। यह स्थिति वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए अनिश्चितता पैदा कर रही है।

भारत पर इसका प्रभाव अवसर

कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत के लिए यह एक अवसर है। चीन पर निर्भरता कम करने के लिए अमेरिका और यूरोपीय देश भारत, वियतनाम, बांग्लादेश जैसी देशों की ओर रुख कर सकते हैं। इससे भारत को निवेश और उत्पादन के नए मौके मिल सकते हैं। निर्यात में भी वृद्धि हो सकती है। कुछ अमेरिकी कंपनियां जो पहले चीन से सामान मंगवाती थी। वह भारत से मंगवाने पर विचार कर रही है। खासकर टेक्सटाइल, फार्मा और आईटी उत्पादों में। मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा मिल सकता है, मेक इन इंडिया को नई ऊर्जा मिल सकती है। क्योंकि विदेशी कंपनियां चीन से बाहर आकर भारत में निवेश करने लगेगी ऐसा अनुमान है। भारत की रणनीति आत्मनिर्भर भारत को बढ़ावा मिल सकता है। घरेलू उत्पाद को बढ़ावा देकर वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में भागीदारी बढ़ाने का प्रयास किया जाना चाहिए। भारत ने कई बहुपक्षीय समझौते की शुरुआत कर दी है। खासतौर पर यूएई, ऑस्ट्रेलिया और यूके के साथ नए व्यापार समझौतों पर बातचित जारी है। यहां भारत कूटनीति का सहारा लेकर चीन के साथ सीमा विवाद और अमेरिका के साथ सुरक्षा साझेदारी के बीच संतुलन भी बनाने का प्रयास कर सकता है। भारत कुछ क्षेत्र जैसे इलेक्ट्रॉनिक्स टेक्सटाइल और फार्मास्यूटिकल में चीन का विकल्प बन सकता है। क्योंकि कंपनियां आपूर्ति श्रृंखला को विविधता देना चाहती है। FDI में वृद्धि हो सकती है वैश्विक कंपनियां भारत में निवेश बढ़ा सकती हैं जैसे कि एप्पल और सैमसंग ने विनिर्माण इकाइयां स्थापित की है। व्यापार युद्ध में भारत को घरेलू विनिर्माण और मेक इन इंडिया को बढ़ावा देने का मौका मिल सकता है।

चुनौतियां

भारत के लिए कई चुनौतियां भी हैं सबसे पहले है अनिश्चितता का माहौल बनेगा। वैश्विक बाजार में अस्थिरता से भारतीय अर्थव्यवस्था भी प्रभावित हो सकती है। खासकर अगर अमेरिका और चीन दोनों की ग्रोथ धीमी पड़ती है तो प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण पर असर पड़ेगा। अगर अमेरिका और चीन के बीच तकनीकी संघर्ष और गहराता है तो वैश्विक इनोवेशन और सप्लाई चैन पर भी असर पड़ेगा। जिसका प्रभाव भारत में स्पष्ट दिखाई पड़ सकता है। चुनौती यह भी है कि भारत की इलेक्ट्रॉनिक्स और सोलर उद्योग जैसे क्षेत्र चीन से आयातित कच्चे माल पर निर्भर है। जिससे लागत बढ़ सकती है। चीन अपने अतिरिक्त माल को भारत और अन्य बाजारों में सस्ते दाम पर बेच सकता है। जिससे घरेलू उद्योगों को प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ सकता है। वैश्विक मांग में कमी होने के कारण व्यापार युद्ध से विश्व अर्थव्यवस्था मंदी की ओर जा सकती है। जिससे भारतीयों का निर्यात प्रभावित हो सकता है। चिंता यह भी होगी भारत कई कच्चे माल और इलेक्ट्रॉनिक घटकों के लिए चीन पर निर्भर है। टैरिफ और आपूर्ति श्रृंखला में रुकावट से लागत बढ़ सकती है। व्यापार युद्ध से वैश्विक मांग कम होने की आशंका है। जिससे भारत के निर्यात प्रभावित हो सकते हैं। वैश्विक अनिश्चितता से रुपए पर दबाव पड़ सकता है।

वैश्विक प्रभाव

वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में बदलाव- कंपनियां अब चीन +1 रणनीति अपनाने लगी है। जिससे वैश्विक व्यापार का नक्शा बदल रहा है। मुद्रा बाजार और कमोडिटी कीमतों पर असर पड़ रहा है। व्यापार युद्ध से डॉलर की मांग कच्चे तेल की कीमतें और सोने जैसी सेफ हेवन असेट्स की कीमतों में उतार-चढ़ाव आ रहा है। विश्व व्यापार संगठन WTO की भूमिका पर सवाल उठ रहा है। अमेरिका चीन टकराव ने बहुपक्षीय व्यापार समझौता की प्रभावशीलता पर भी प्रश्न खड़े कर रहे हैं।

चीन +1 रणनीति क्या है? कई अंतरराष्ट्रीय कंपनियां चीन पर निर्भरता कम करने के लिए भारत वियतनाम और मेक्सिको जैसे देशों में उत्पादन स्थानांतरित कर रही है! भारत ने इलेक्ट्रॉनिक्स, फार्मास्यूटिकल्स और ऑटोमोबाइल्स जैसे क्षेत्रों में उत्पादन लिंक प्रोत्साहन PLI योजनाएं शुरू की है। अमेरिका में चीनी वस्तुओं पर उच्च टैरिफ के कारण भारतीय उत्पादों जैसे रसायन, स्टील, वस्त्र की मांग बढ़ सकती है।

इसका वैश्विक प्रभाव यह भी पड़ सकता है कि वैश्विक विकास दर में कमी (IMF के अनुसार 2019 में वैश्विक विकास दर 3% रही जो 2017 के 3.8% से कम थी) अंतर्राष्ट्रीय व्यापार नेटवर्क और आपूर्ति श्रृंखला में बदलाव भी हो सकता है। अमेरिका और चीन के बीच 5G , AI और सेमीकंडक्टर जैसे क्षेत्रों में प्रदोष प्रभुत्व की लड़ाई से दुनिया दो ध्रुवों में बढ़ सकती है। भारत जैसे देशों को दोनों पक्षों के साथ संतुलन बनाकर चलना फायदेमंद रहेगा। अमेरिका भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया जैसे देश गठ जोड़ कर सकते हैं। जो कि चीन के प्रभाव को संतुलित करने में सहायक होंगे। यूरोप और दक्षिण पूर्व एशिया के देश व्यापार युद्ध के बीच अपने हितों की रक्षा के लिए नए समझौते की ओर बढ़ रहे हैं। विकासशील देशों पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा। अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देश जो चीन के साथ व्यापार और ऋण पर निर्भर है। आर्थिक मंदी और ऋण संकट का सामना उन्हें करना पड़ सकता है। कंपनियां चीन से बाहर विनिर्माण इकाई स्थानांतरित कर रही हैं जैसे वियतनाम, भारत, मेक्सिको। जिससे नई व्यापारिक गतिशीलता की गुंजाइश बढ़ गई है। टैरिफ से वैश्विक स्तर पर कीमत बढ़ रही है। जिससे महंगाई बढ़ सकती है और आर्थिक विकास धीमा भी हो सकता है। अमेरिका और चीन के बीच तकनीकी प्रतिबंधों (जैसे चिप्स और 5G) से वैश्विक तकनीकी पारिस्थितिकी तंत्र दो खेमों में बंट सकता है। व्यापार युद्ध में विश्व व्यापार संगठन यानी WTO जैसे संस्थानों को कमजोर किया है और संरक्षणवाद को बढ़ावा दिया है। यानी वैश्विक सहयोग पर भी इसका असर और स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है।

निष्कर्ष

भारत के लिए यह व्यापार युद्ध अवसर और चुनौतियों का मिश्रण है। यदि भारत रणनीतिक सुधारो जैसे बुनियादी ढांचा, व्यापार नीति को लागू करें तो वह वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में मजबूती से बना रह सकता है। वैश्विक स्तर पर यह युद्ध अनिश्चितता और आर्थिक पुनर्गठन का कारण बन रहा है। वहीं दूसरी ओर अमेरिका चीन व्यापार युद्ध ने भारत के लिए निवेश और निर्यात के नए अवसर खोले हैं। लेकिन साथ ही आपूर्ति श्रृंखला और भू राजनीतिक चुनौतियां भी पैदा की है। वैश्विक स्तर पर यह संघर्ष आर्थिक बहु ध्रुवीयता को बढ़ावा दे रहा है। जहां भारत जैसे देशों की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। भारत की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वह घरेलू उद्योगों को मजबूत करने और वैश्विक गठ जोड़ों में सक्रिय भूमिका निभाने में कितना सक्षम है। भारत अगर अपनी नीतियों को व्यावहारिक और लचिला बनाएं तो वह वैश्विक बदलाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

Publish in Rastriya Sahara 19/4/2025

गुरुवार, 29 अगस्त 2024

Reservation within reservation right or wrong?

आरक्षण भीतर आरक्षण सही या गलत?

संजीव खुदशाह

१ अगस्त २०२४ को आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के सात सदस्‍यीय पीठ के द्वारा देविन्‍दर सिंह विरूध पंजाब के बारे में फैसला आने के बाद अगड़ा दलित और पिछड़ा दलित के बीच द्वंद छि‍ड़ गया है। दोनो ओर से अपने अपने तर्क दिये जा रहे है। आज यह बहस राष्‍ट्रीय पटल पर हो रही है। अगड़े दलित उनको माना जाता है जो आजादी के बाद से लगातार नौकरी पेशा में आ रहे हैं और इस जाति के काफी मात्रा में लोग आरक्षण का लाभ लेकर उच्च पदों तक पहुंचे हैं समृद्ध साली हुए हैं। जैसे जाटव, महार, अहिरवार, सतनामी आदि आदि। वहीं दूसरी ओर पिछड़े दलित उन्हें माना जाता है जिन्हें परिस्थितिवश या उनके अति पिछड़ापन होने के कारण आरक्षण का लाभ उस तरह से नहीं मिल पाया जिस तरह से अगड़े दलितों को मिला है। जैसे वाल्मीकि, लालबेगी, मेहतर, डोमार, बंसोर, चुहड़ा, घसिया, देवार आदि आदि। इनमें प्रतिनिधित्व का बटवारा बेहद असमान है। सफाई कामगारों में भी लाभ लेने में वाल्मीकि जाति सबसे आगे है।

यहां यह बताना जरूरी है कि याचिका कर्ता डॉक्टर ओपी शुक्ला जो की दलित समाज से आते हैं, उनका कहना है कि आजादी के बाद से सफाई कामगार समाज का शोषण हुआ है। उनका प्रतिनिधित्व कहां गया ? आखिर किसने उनका प्रतिनिधित्व खाया है? यह बता दें। वह कहते हैं कि मैंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका इसीलिए डाली ताकि संविधान के अनुसार जो सबसे अंतिम व्यक्ति है। उसे इसका फायदा मिल सके। बहुत सारी ऐसी जातियां आज भी हैं जिन्हें सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व नहीं मिला है। इस फैसले से दक्षिण भारत में खुशी का माहौल है तो उत्तर भारत में द्वंद छि‍ड़ा है।

अगड़े दलित कहते हैं कि यह फैसला विधि सम्‍मत नहीं है। यह फूट डालो राज करो जैसा है। इस फैसले से दलितों में दो फाड़ हो जायेगा, वैमनस्य बढ़ेगा। वे कहते है कि उन्होंने अपना गंदा पुश्तैनी पेशा बहुत पहले छोड़ दिया था। लेकिन पिछड़े दलित जाति के लोगों ने अपना गंदा पुश्तैनी पेशा नहीं छोड़ा। जबकि डॉ अंबेडकर ने १९३० में यह आह्वान किया था कि अछूत अपना गंदा पेशा छोड़ दें। पिछड़े दलित जातियों में बहुत बड़ी संख्या सफाई कामगार जातियों की हैं। यह सत्य है कि इन्होंने अपना पुश्‍तैनी गंदा पेशा नहीं छोड़ा। इसके कारण इनमें उत्थान नहीं हो पाया। यह थोड़ा बहुत जागरूक हुई तो भी इन्होंने उस गंदे पेशे में अधिक वेतन और सुविधा की मांग करने लगे। कई जगह ऐसा भी देखने मिला की वे इन पेशों में 100% आरक्षण की मांग करने लगे। ऐसे भी उदाहरण हैं जबकि इन पिछड़े दलित जातियों के कुछ लोगों ने अपने गंदे पेशे को छोड़कर अच्छे पेशे को अपनाया और वह आगे तरक्की कर गये।  

माननीय सु‍प्रीम कोर्ट की सराहनीय पहल

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति जनजाति में क्रीमीलेयर की बात की थी जिसे माननीय प्रधानमंत्री ने लागू नहीं होगा कहकर इस पर विराम लगा दिया, जो सही भी था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के दूसरे निर्देश जिसमें यह कहा गया कि पीछे रह गई जातियों में अलग से आरक्षण का बंटवारा भी किया जाएगा। यह सुप्रीम कोर्ट का एक सराहनीय पहल है। आखिर अतिपिछड़े दलित और आदिवासी को अलग से आरक्षण मिलेगा तो इससे किसे आपत्ति होगी? 

यह प्रश्न खड़ा होता है कि आजादी के 75 साल बाद भी दलित आदिवासी इतने पिछड़े क्यों हैं? आखिर इनमें विकास और उत्थान क्यों नहीं हो रहा है आखिर क्या कमी रह गई। गंदे पेशे से छुटकारा देने के लिए प्रयास किया जाना चाहिए था। क्योंकि एक मानव के द्वारा अपमानजनक पेशे का किया जाना पूरे भारतवर्ष के लिए शर्म की बात है और संविधान के भी विरुद्ध है। चाहिए था कि जल्द से जल्द इन पेशे में लगे लोगों को हटाया जाए और मानव की जगह मशीन का उपयोग किया जाए । साथ-साथ इनका पुनर्वास किया जाना चाहिए।

माननीय सुप्रीम कोर्ट से यह अपेक्षा थी कि अजा अजजा में जो आरक्षण दिया जाता है वह आरक्षण बहुत मात्रा में नॉट फाउंड सूटेबल  कहकर जनरल पोस्ट भर दिए जाते हैं। कई कई साल तक बैकलॉग की भर्तियां नहीं निकाली जाती है। निर्देश दिया जाना चाहिए था कि बैकलॉग की भर्तियां तुरंत करें और नॉट फाउंड सूटेबल को सामान्‍य में समायोजित न करके अगली भर्ती में उसकी वैकेंसी फिर से उसी केटेगरी में निकाली जाए।

जाहिर है पिछड़े दलितों आदिवासियों को मुख्‍य धारा में लाने के लिए हमें बहुत सारे कदम उठाने पड़ेगें सिर्फ आरक्षण से काम नहीं चलेगा तभी हमारे देश में कोई पीछे नहीं रह जायेगा। न ही किसी को अपने विकास के लिए गुहार लगाने की जरूरत पड़ेगी। सुप्रीम कोर्ट के इस पहल का स्‍वागत किया जाना चाहिए। 





रविवार, 29 दिसंबर 2019

Dalit Panther is the name of the authors' ground movement


लेखकों के जमीनी आंदोलन का नाम है दलित पैंथर
संजीव खुदशाह
वंचित वर्ग के आंदोलन का विश्व में एक अलग इतिहास है और उसका एक अपना मकाम है।  विश्व के वंचितों के आंदोलन का इतिहास, दलित पैंथर के जिक्र के बिना पूरा नहीं हो सकता। बहुत थोड़े समय चले इस दलित आंदोलन ने भारत में अपनी अमिट छाप छोड़ी है। आज जब हम ज वि पवार की किताब "दलित पैंथर एक अधिकारीक इतिहास" पढ़ते हैं तो हमें जानकारी मिलती है की उन्होंने क्या-क्या काम किया और किन हालातों में उपलब्धियां हासिल की?
ऐसा माना जाता रहा है की दलित पैंथर, अमेरिकी अश्वेत आंदोलन के ब्लैक पैंथर से प्रभावित हैं। यदपि ये लगभग समकालीन थे । ब्लैक पैंथर की स्थापना अमेरिका में 15 अक्टूबर 1966 को हुई थी जबकि दलित पैंथर का जन्म भारत में 29 मई 1972 को हुआ।
जिस समय भारत में दलित पैंथर की स्थापना हो रही थी। महाराष्ट्र राज्य में दलितों के प्रति अछूत पन की भावना और जातिगत शोषण की स्थिति चरम में थी। दैनिक अखबार दलितों के शोषण की खबरों से भरे होते थे। बे लगाम सामंती वर्ग जो शोषण कर रहा था। पुलिस प्रशासन शोषको के साथ खड़ा था और राज्य सरकार मानो इस शोषण में मौन सहमति दे रही थी। शिवसेना के गुंडे दलितों के साथ अत्याचार कर रहे थे। कांग्रेस की सरकार दलितों की नहीं सुन रही थी।
दलित महिलाओं के साथ बलात्कार करना। अपने खेतों में बेगारी कराना। दलित बस्तियों के कुओं में मल मूत्र डाल देना। उन्हें बहिष्कृत करना। उच्च जातियों का रोज का काम हो गया था। ऐसी परिस्थिति में उस समय दलितों के लिए काम कर रही राजनीतिक पार्टी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया कुछ नहीं कर पा रही थी या कहें शोषक पार्टियों की तरफ थी।
ऐसे समय में दलित पैंथर की स्थापना हुई। ज वि पवार की माने तो दलित पैंथर के शुरुआती दौर में नामदेव ढसाल, ज वि पवार, राजा ढाले, दया पवार, अर्जुन डांगले, विजय गिरकर, प्रहलाद चेदवनकर, रामदास सोरटे, मारुति सरोटे, कुडी राम थोरात, उत्तम खरात और अर्जुन कस्बे जैसे लोग शामिल थे। सभी दलित लेखक थे। कुछ लेखकों की गिनती नामी मराठी  साहित्यकारों में होती थी।
दलित पैंथर के पहले बयान में कहा गया कि "महाराष्ट्र में जातिगत पूर्वाग्रह पर बेलगाम हो गए हैं और धनी किसान, सत्ताधारी और ऊंची जातियों के गुंडे जघन्य अपराध कर रहे हैं। इस तरह के अमानवीय जातिवादी तत्वों से निपटने के लिए मुंबई के विद्रोही युवकों ने एक नए संगठन "दलित पैंथर" की स्थापना की है।"
शुरू में इस संगठन से मुंबई के ढोर चाल (छोटी जातियों के लिए प्रयुक्त शब्द) जहां नामी कवि नामदेव ढसाल रहा करते थे और कमाठीपुरा फर्स्ट लेन सफाई कर्मचारियों के लिए आवंटित मकान जिसे सिद्धार्थनगर भी कहा जाता था। जहां ज वि पवार रहते थे। के मोहल्ले के लोग जुड़ रहे थे । याने यहीं से दलित पैंथर की शुरुआत हुई।
12 अगस्त 1972 को एरण गांव में घटी एक घटना ने पूरे महाराष्ट्र को हिला कर रख दिया वहां रामदास नारनवरे नामक एक दलित किसान की क्रूरता पूर्वक हत्या कर दी गई। उसके पास 8 एकड़ भूमि थी और चार भाई मिलकर शांति और प्रसन्नता पूर्वक जीवन यापन कर रहे थे। अपने आत्म सम्मान और अपनी निर्भरता के कारण वे गांव वालों के आंखों की किरकिरी बने हुए थे। वह गांव वालों की खास करके सामंतों की जी हजूरी नहीं करते थे। इसीलिए गांव वाले उन्हें सबक सिखाने का मौका ढूंढ रहे थे। गांव में हैजा की बीमारी से 2 लोगों की मृत्यु ने उन्हें मौका दे दिया। गांव के लोगों ने बैठक बुलायी और उन्होंने निर्णय लिया कि गांव के देवी से सलाह लेंगे। एक भक्त के ऊपर देवी आई और उन्होंने इसके लिए रामदास नारनवरे को ही जिम्मेदार बताया। उन्होंने बताया कि वे श्मशान घाट जाकर शैतान को प्रसन्न करने के लिए तांत्रिक प्रयोग करते हैं। इसी कारण गांव में हैजा फैला है। इससे बचाव का एक ही तरीका है नारनवरे की बलि।
गांव वालों ने विचार करना शुरू किया की बलि देने का क्या तरीका होगा। वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मनुस्मृति में वर्णित तरीका ही सबसे बढ़िया होगा। वह उन्हें जबर्दस्ती पड़ोसी गांव पाटनसावंगी के मुखिया के पास ले गये। मनुस्मृति में निर्धारित नियमों के अनुसार नारनवरे की बलि दी गई। पहले उसके कान और नाक काटे गए फिर गला। उसके शव को एक कुएं में फेंक दिया गया। शव 2 दिन तक पानी में तैरता रहा। पुलिस ने इस मामले को रफा-दफा कर दिया। पोस्टमार्टम किया गया सरकारी सर्जन ने उसमें लिखा है कि मौत पानी में डूबने से हुई। क्योंकि मृतक दलित था इसलिए इस मामले को दबा दिया गया और लाश को दफना दिया गया। परंतु मीडिया को इस भयावह हत्याकांड की खबर लग गई और इस बारे में दैनिक अखबारों में खबर छपने लगी तो शव को फिर से निकालकर पोस्टमार्टम करवाना पड़ा। तब कहीं जाकर मामला खुला। इस मामले में 9 लोगों को गिरफ्तार किया गया।
दलित पैंथर एक समय पूरे महाराष्ट्र में सक्रिय था। जहां कहीं भी दलितों के साथ शोषण की सूचना मिलती। सारे पैंथर वहां पहुंच जाते हैं और दलितों को न्याय दिलाने का प्रयास करते हैं। एक बार राजगुरूनगर तहसील के अस्खेड़गांव में किसी उच्च जाति के व्यक्ति ने दलित किसान बिठूर दगड़ु मोरे की कनपटी पर बंदूक सटाकर 30 एकड़ भूमि को जबरन कब्जा कर लिया और उसमें फसल लेने लगा। जैसे ही दलित पैंथर को इसकी सूचना मिली। मुंबई से 92 दलित पैंथर तुरंत गांव पहुंचे और उस दबाव में आकर उसे  जमीन वापस करना पड़ा, मुआवजा भी देना पड़ा। इस तरह जहां भी शोषण होता दलित पैंथर खड़े हो जाते। साथ साथ पैंथर के सदस्य न्यूज़पेपर साहित्यिक पत्रिकाओं में भी कॉलम लिख रहे थे। कविताएं लिख रहे थे। गौरतलब यह है कि दलित पैंथर के सभी सदस्य गरीबी परिस्थिति से आते थे। कोई  टैक्सी चलाता था। कोई कपड़ा मिल में मजदूर था। कई सरकारी नौकरियों में थे। ज्यादातर लोग तंग गलियों , झुग्गियों, गंदी बस्तियों में रहते थे।
गैर दलितों को भी सहयोग किया।
दलित पैंथर शोषण के खिलाफ खड़े थे। कुछ प्रगतिशील सवर्ण भी दलित पैंथर के साथ थे। इसके कारण उन्हें अपनी नौकरी में समस्या आती थी। बड़े अधिकारी उन्हें सस्पेंड करने या नौकरी से बर्खास्त करने का नोटिस देते । दलित पैंथर ऐसे शोषण के खिलाफ उठ खड़े होते और उन्हें शोषण से मुक्ति दिलाते थे।यह संगठन दलितों में किसी एक जाति तक सिमटा हुआ नहीं था गैर बौद्ध दलित युवक बहुत मात्रा में इस संगठन के सदस्य थे।
दलित पैंथर पर अब तक चार किताबें लिखी जा चुकी है। जिसके लेखक हैं ज वि पवार, नामदेव ढसाल, अजय कुमार, शरण कुमार लिंबाले। दलित आंदोलन को समझने के लिए खास तौर पर दलित पैंथर के आंदोलन को समझने के लिए इन चारों किताबों को पढ़ना जरूरी है।
श्री पवार अपनी किताब में बताते हैं कि जगन्नाथ पुरी के शंकराचार्य निरंजन तीर्थ ने एक बार कहा था कि कोई मोची चाहे कितना ही पढ़ लिख ले वह मोची ही रहेगा और एक अछूत हमेशा अछूत ही रहेगा। दलित पैंथर को यह बर्दाश्त नहीं था। दलित पैंथर ने जगह-जगह शंकराचार्य का विरोध किया और महाराष्ट्र में उनके हर कार्यक्रम में बाधा डाली गई। शंकराचार्य इतना डर गए कि कई सालों तक महाराष्ट्र का दौरा नहीं किए।
एक बार दलित पैंथर ने महाराष्ट्र में दलितों पर हो रहे हमले के विरोध में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की रैली में विरोध करने का प्रेस रिलीज जारी किया। इससे पहले भी बड़े बड़े नेताओं के कार्यक्रमों और रैलियों में बाधा डाल चुके थे। प्रशासन भय ग्रस्त थी। उन्होंने प्रधानमंत्री से दलित पैंथर के नेताओं की मुलाकात करवाई ताकि कार्यक्रम निर्विघ्न रूप से आयोजित किया जा सके। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि दलित पैंथर कितना प्रभावशाली थे।
दलित पैंथर हमेशा राजनीति को प्रभावित करते रहे हैं लेकिन उनका दावा था कि वह एक गैर राजनीतिक सामाजिक संगठन है। वह डॉक्टर अंबेडकर के आदर्श पर चलते हैं। दलित पैंथर ने अपने 5 साल के कार्यकाल में संघर्ष के दौरान कइ पैंथरों को जान से हाथ धोना पड़ा कई पुलिस की मुठभेड़ में मारे गए।
दलित पैंथर के बाद कोई भी ऐसा संगठन सामने नहीं आया जो इसकी कमी पूरी करता हो। कुछ लोगों ने जरूर दावा किया कि वह दलित पैंथर अभी भी चला रहे हैं। लेकिन वह सिर्फ कागजों में था। वर्तमान में भीम आर्मी की सक्रियता बढ़ी है और भीम आर्मी के सदस्य दलित पैंथर की तरह ही काम कर रहे हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि भीम आर्मी को दलित लेखकों का साथ नहीं मिला। जबकि दलित पैंथर को लेखकों ने ही खड़ा किया था। दलित पैंथर और भीम आर्मी में बेसिक फर्क यह है कि दलित पैंथर का दावा था कि वह अंबेडकरी सिद्धांत को लेकर काम कर रहे हैं। जबकि भीम आर्मी के नेता कहते हैं की वह संविधान की रक्षा के लिए काम कर रहे हैं। 
ज वी पवार अपनी किताब में बताते हैं कि दलित पैंथर के पतन का सबसे बड़ा कारण था। पैंथर के बीच में कई गुटों का उभर जाना। कई बार यह होता था कि एक ही शहर में दलित पैंथर के अलग-अलग कार्यक्रम, अलग-अलग गुट के लोग करते थे। इससे आम जनता और कार्यकर्ताओं में कन्फ्यूजन पैदा होता था। कुछ जगह दलित पैंथर के लोग पद में आने के बाद वसूली का धंधा करते थे और खुद दलितों का शोषण करने लगे थे। इसीलिए एक प्रेस रिलीज जारी करके दलित पैंथर को आधिकारिक रूप से भंग कर दिया गया।
ब्लैक पैंथर की तरह दलित पैंथर का भी कार्यकाल बेहद कम था। ब्लैक पैंथर का कार्यकाल सिर्फ 2 साल का था। लेकिन उन्हें अमेरिका में पूर्ण सफलता मिल गई। दलित पैंथर का कार्यकाल सिर्फ 5 वर्ष का था जिसने पूरे भारत के दलित आंदोलन को प्रभावित किया और आज भी प्रेरणा का एक स्रोत है। लेकिन आज भी दलितों के साथ होने वाले शोषण और भेदभाव में कोई कमी नहीं आई है।
यह दलित आंदोलन, दलित लेखकों ने ही खड़ा किया था। आज की तरह जब दलित लेखक एक दूसरे की टांग खींचने में आमादा है । व्यक्तिवाद और जातिवाद का खेल, खेल रहे हैं । बहुत हुआ तो अपने आप को लेखन तक सीमित कर के आत्ममुग्धता में खोए हुए हैं। केवल लिखकर अपने काम का इतिश्री मानते हैं। उनके लिए दलित पैंथर एक  मिसाल की तरह है। देखना यह है क्या आज के दलित लेखक इससे कोई सबक ले पाएंगे?
PUBLISH IN NAVBHARAT 29/12/2019

सोमवार, 19 नवंबर 2018

Know how valuable your vote

जानिए कितना बहुमूल्य है आपका वोट

संजीव खुदशाह
भारत के ग्रामीण मतदाताओं में वोट के प्रति जागरूकता शहरी मतदाताओं के वनिस्पत कुछ ज्यादा होती है। आंकड़े बताते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में मतदान का प्रतिशत ज्यादा होता है और शहर के क्षेत्रों में मतदान का प्रतिशत कम होता है। इसके कुछ कारण है, शहरी मतदाता पढ़ा लिखा सक्षम होने के बावजूद कुछ भ्रम पाले हुए रहता है। जिसके कारण वह वोट डालने नहीं जाता है आइए जाने वह कौन कौन सी वजह है।
2 उसे यह भ्रम होता है कि- मैंने अगर वोट नहीं दिया तो क्या होगा ? सभी लोग वोट देंगे मेरे एक वोट से कुछ होने जाने वाला नहीं है।
3 कई बार उसकी सोच रहती है कि - उस दिन डिसाइड करेंगे वोट देना है या नहीं। समय मिला तो वोट देंगे नहीं मिला तो नहीं देंगे। आलस्य के भावना।
4 कुछ उल्‍झन का बहाना होता है जैसे- मुझे मालूम नहीं है कहां पर वोट देने जाना है। मतदाता सूची में मेरा नाम है या नहीं?

5 कभी वह अहंकारी हो जाता है सोचता है कि - वोट देने चला भी जाऊंगा तो मेरे जैसा व्यक्ति जिंदगी में कभी भी लाइन में खड़ा नहीं हुआ है। मैं लाइन में क्यों खड़े हो ऊंगा।
6 संकोच करता है - मुझे किससे पूछना है कि मेरा मतदान केंद्र कहां पर है। सूची में कहां पर मेरा नाम है। इसके संकोच के कारण शहरी लोग वोट देने नहीं जा पाते हैं।
जबकि मतदान संबंधी पूरी जानकारी चुनाव आयुक्‍त द्वारा इस वेबसाइट में मुहैया कराई गई है कोई भी व्‍यक्ति अपने नाम मतदान केन्‍द्र वोटर आई डी की जानकारी आसानी से ले सकता है1
पूरे देश के किसी भी राज्‍य के लिए https://eci.nic.in/eci_main1/Linkto_erollpdf.aspx,
इन तमाम कारणों से वह वोट देने नहीं जाता है। और फिर बाकी के 5 साल कोसता रहता है अपने ही प्रतिनिधियों को, कि वह फलां काम नहीं करते हैं। उन्होंने यह काम गलत किया है। और ऐसा होना चाहिए था। गलत आदमी चुना गया। जबकि वह स्‍वयं वोट न देकर अपनी जिम्‍मदारी नही निभाता है।
राजनीतिक पार्टी शहरी मतदाताओं को प्रेरित करने में उदासीनता
ज्यादातर ऐसा माना जाता है कि शहरी पढ़ा लिखा मतदाता अपने विवेक और ज्ञान का प्रयोग करके मत दान देते हैं। और किसी भी लालच जैसे दारू साड़ी कपड़ा आदि में ना आकर विवेक के आधार पर वोट देना पसंद करते हैं। इस कारण राजनीतिक पार्टियां शहरी मतदाताओं को वोट डालने के लिए ज्यादा प्रेरित नहीं करती है। क्योंकि ग्रामीण मतदाताओं के वनिस्पत शहरी मतदाताओं के पास उम्मीदवारों के संबंध में ज्यादा जानकारी होती है।
शहरी मतदाताओं में अवेयरनेस जागरूकता की कमी
ज्यादातर यह माना जाता है कि शहरी मतदाता जागरूक होता है। लेकिन सोशल मामलों में या कहें मतदान के मामलों में शहरी मतदाताओं में अवेयरनेस की कमी होती है। ज्यादातर पॉश इलाकों में मतदान का प्रतिशत बेहद कम होता है, जहां पर बुद्धिमान और रसूख वाले लोग बसते हैं। वहीं दूसरी ओर शहर के ही स्लम और झुग्गी झोपड़ी वाले एरिया में मतदान का प्रतिशत अधिक होता है।
चुनाव आयुक्‍त जागरूकता मुहिम
चुनाव आयुक्‍त के द्वारा मतदान के प्रति मतदाता की रूची बढाने के लिए विज्ञापन फलैक्‍स नुक्‍कड नाटक रैली का प्रयोग किया जा रहा है, और मतदान हेतु प्रेरीत करने में कोई कसर नही छोड़ी जा रही  है।
आपका एक वोट क्या क्या कर सकता है
कुछ मतदाता यह समझते हैं कि उनके एक वोट देने नहीं देने से क्या फर्क पड़ेगा। दरअसल उनका एक वोट जितने उम्मीदवार खड़े हैं। उन सभी को प्रभावित करता है। मान लीजिए 15 उम्मीदवार हैं। तो आपका एक वोट जिसे आप दे रहे हैं उसे आगे बढ़ाए गा और इतनी ही संख्या में वोट बाकी  उम्मीदवारों से कम हो जाएंगे। क्‍योकि वोट की संख्‍या निश्चित होती है।
आपने अपना वोट नहीं दिया तो क्या होगा
यदि आपने अपना वोट नहीं दिया है तो एक गलत उम्मीदवार चुना जा सकता है। एक अच्छा उम्मीदवार चुनने से महरूम हो सकता है। योग्‍य उम्‍मीदवार आपकी समस्‍याओं को समझ सकता है, जनहीत के मुद्दो को शासन के समक्ष उठा सकता है। वहीं यदि कोई भ्रष्‍ट उम्‍मीदवार विजयी होता है तो वह जन विरोधी  कार्य करेगा, जनता को आपस में लड़वायेगा, दंगे करवायेगा, जनता द्वारा जमा किये टैक्‍स के पैसे का दुरुपयोग करेगा, अपन घर भरेगा। यदि आप अपना वोट नोटा को भी देते हैं तो भी यह संदेश जाता है कि मौजूदा उम्मीदवारों में से कोई भी आपको पसंद नहीं है। लोकतंत्र में आपको हर प्रकार से अपनी बात को रखने का मौका मिलता है और वोटिंग या चुनाव प्रथा लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करती है। भारत का लोकतांत्रिक इतिहास इस बात का गवाह है कि जब जब पढ़ा-लिखा और समझदार मतदाता मत डालने के लिए भारी संख्या में निकलता है तो लोकतंत्र में अप्रत्याशित परिणाम आते हैं। आईये हम भारत के एक एक मतदाता यह सुनिश्चि‍त करे की वे अपना वोट जरूर दे और भारतीय लोकतंत्र को मज़बूती प्रदान करे।     

       



रविवार, 22 जुलाई 2018

तेजिंदर गगन का जाना


तेजिंदर गगन का जाना
संजीव खुदशाह
वरिष्ठ पत्रकार  प्रभाकर चौबे के दिवंगत होने की खबर का अभी एक पखवाड़ा भी नहीं हुआ था की खबर आई, तेजिंदर गगन नहीं रहे। मुझे याद है तेजिंदर गगन से मेरी पहली मुलाकात एक कार्यक्रम में हुई थी। वह एक राज्य संसाधन केंद्र के द्वारा आयोजित कार्यक्रम था। जिसमें वह बतौर साथी वक्ता पहुंचे थे। वहां एक महिला वक्ता ने अपने वक्तव्य के दौरान महिलाओं को दोयम दर्जे में रखे जाने की वकालत कर रही थी और सारे श्रोतागण स्तब्ध होकर सुन रहे थे। वह महिला किसी कॉलेज में प्रोफेसर थी मुझे उनका नाम अभी याद नहीं आ रहा है।
लेकिन जैसे ही तेजिंदर गगन के अपने वक्तव्य देने की बारी आई तो उन्होंने अपने वक्तव्य के प्रारंभ में ही कहा कि मेरी 62 साल की आयु में पहली बार किसी महिला को इस तरह के वक्तव्य देते हुए देखा है। यह एक दुर्भाग्य है की आज भी सार्वजनिक तौर पर ऐसी बातें कही जा रही है। वह भी एक महिला के द्वारा। उन्होंने बड़ी विनम्रता से अपनी बात को रखा। मैं उनकी इस बात से बहुत प्रभावित हुआ इस प्रकार उनसे मेरा मिलने जुलने का सिलसिला प्रारंभ हो गया।
प्रसंगवश बताना जरूरी है कि वे दूरदर्शन के निदेशक पद से सेवानिवृत्त हुए थे। तेजिंदरजी ने देशबंधु से अपने करियर की शुरुआत की थी. बाद में वे बैंक पदस्‍थ रहे और फिर आकाशवाणी और दूरदर्शन में लंबे समय तक कार्यरत रहे. इस दौरान उन्होंने रायपुरअंबिकापुरसंबलपुरनागपुरदेहरादूनचैन्नई व अहमदाबाद केंद्रों में अपनी सेवाएं दीं. उनके उपन्यास काला पादरीडायरी सागा सागासीढ़ियों पर चीता इत्यादि बहुचर्चित हुए।
सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने अनटोल्ड नाम की एक अंग्रेजी पत्रिका प्रकाशित कर रहे थे। जो वेबसाइट में भी उपलब्ध है। वे इस पत्रिका में वंचित समुदाय के दुख दर्द को पर्याप्त स्थान देते थे। वह रायपुर में तमाम साहित्यिक कार्यक्रमों में सक्रिय थे और लगभग हर कार्यक्रम में दिखाई पड़ते थे। उनकी बेहद सरल ढंग से अपनी बात रखने की शैली ने पाठकों और दर्शकों को प्रभावित कर रखा था। वे बहुत बड़ी बड़ी बातों को भी बहुत ही सहजता से बोलते थे।
हाल ही में उन्हें हिंदी साहित्य सम्मेलन छत्तीसगढ़ की ओर से सप्तपर्णी सम्मान से नवाजा गया था इसी सम्मान की श्रृंखला में इन पंक्तियों के लेखक को पुनर्नवा पुरस्कार से नवाजा गया। मुझे बेहद गर्व था कि उनके साथ मुझे भी सम्मानित किया गया। क्योंकि वह एक सुप्रसिध्‍द उपन्यासकार थे ।
उन्हें उनके उपन्यास काला पादरी के लिए बेहद प्रसिद्धि मिली। काला पादरी समकालीन हिन्दी साहित्य उपन्यास जगत में अपने आप में विलक्षण है। ‘‘काला पादरी’’ हिन्दी उपन्यास परम्परा से हटकर समाज की कुव्यवस्था पर तीखा प्रहार व कुरूपता का चेहरा उजागर करने वाला बेजोड़ दस्तावेज है। ‘‘कालापादरी’’ में जेम्स खाका की अंतर्मन की संवेदनाओं को उपन्यासकार ने पूरी दक्षता से उभारा है। अंततः उपन्यास की तार्किक परिणिती जेम्स खाका के उस निर्णय में होती है जो उसे धर्म की चाकरी से मुक्त करता है और वह चर्च की संडे की प्रार्थना मे शामिल होने के बजाए अपनी महिला मित्र सोंजेलिन मिंज के साथ बाजार जाने का निर्णय लेता है। ‘‘कालापादरी’’ की अंर्तवस्तु वर्तमान समय की अत्यंत संवेदनशील अंर्तवस्तु है इसमें व्यक्ति और समाज के भौतिक जीवन की संवेदनात्मक व मानवीय पहलू का सजग चित्रण है। निः संदेह कालापादरी के माध्यम से तेजिंदर ने उपन्यास जगत को गौरवन्वित किया है।
 वह कविताएं निबंध भी लिखा करते थे उनकी रचनाओं में सामाजिक कुरीतियों पर चोट तथा प्रगतिशीलता की झलक मिलती थी। फिलहाल वे संस्मरण लिख रहे थे और मुझे बताया था कि कुछ संस्मरण वे प्रकाशन के लिए भी भेज रहे हैं। इसे किताब के रूप में प्रकाशित करने की योजना भी है। गौरतलब है कि मासिक पत्रिका हंस में भी उनके संस्‍मरण प्रकाशित हुये है।
वे अक्‍सर कहा करते थी की उन्‍हे वामपंथ एवं अंबेडकरवाद की समझ उनके नागपुर पदस्‍थापना के दौरान हुई। वे चीजों को बहुत ही गहराई से देखते थे। अपने किसी भी वकतव्‍य में इस बात का बखूबी ख्‍याल रखते की किसी को बुरा न लगे। इसलिए वे विनम्रता से अपनी बात रखते थे। मरेी उनके साथ पत्रिका अनटोल्‍ड के प्रकाशन के संबंध में कई बार सम्‍पर्क हुआ लेकिन कई कारणों से पत्रिका का सतत प्रकाशन नही हो पाया।
उनका जाना साहित्‍य के लिए अपूर्णीय क्षति जिसकी भरपाई लगभग नामुमकिन है।

रविवार, 15 अप्रैल 2018

आंबेडकर जयंती पर विशेषः डॉ. आंबेडकर और उनका वैज्ञानिक चिंतन


आंबेडकर जयंती पर विशेष
डॉ आंबेडकर और उनका वैज्ञानिक चिंतन
संजीव खुदशाह
अक्सर डॉ आंबेडकर को केवल दलितों का नेता कहकर संबोधित किया जाता है। ऐसा संबोधित किया जाना दरअसल उनके साथ ज्यादती किया जाने जैसा है। ऐसा कहते समय हम भूल जाते हैं कि उन्होंने भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना की थी। हम भूल जाते हैं कि उन्होंने हीराकुंड जैसा विशाल बांध का निर्माण समेत दामोदर घाटी परियोजना और सोन नदी परियोजना जैसे 8 बड़े बांधो को स्थापित करने मे महत्वपूर्ण कदम उठाया। हम भूल जाते हैं कि उन्होंने संविधान की समानता मूलक धर्मनिरपेक्ष आत्मा को रचने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। हम यह भी भूल जाते हैं कि उन्होंने लोकतंत्र को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए स्वतंत्र चुनाव आयोग का गठन करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। हम उन्हें केवल दलितों का नेता कहकर उनके योगदानों पर पानी फेर देते हैं।
यदि विचार के दृष्टिकोण से देखें तो उनका सबसे बड़ा योगदान यह रहा है उनका वैज्ञानिक चिंतन। उन्होंने एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण दिया एक ऐसा दृष्टिकोण जो अंधविश्वास और पाखंड से परे हो। उन्होंने सबसे पहले जाति उन्मूलन की बात रखी और बकायदा उसका एक खाका तैयार किया जिसे हम जाति उन्मूलन किताब के नाम से जानते हैं। उन्होंने अर्थशास्त्र पर कई महत्वपूर्ण किताबे लिखी जिनमें से एक प्रसिद्धि किताब को प्रॉब्लम ऑफ रूपी के नाम से जाना जाता है।
आजादी के पहले महात्मा गांधी जब एक ओर नमक (स्वाद) के लिए लड़ाई कर रहे थे वहीं दूसरी और डॉक्टर अंबेडकर वंचित जातियों के लिए पीने के पानी की लड़ाई लड़ रहे थे। वहीं दूसरी ओर जब छोटी-छोटी रियासतें अपनी हुकूमत बचाने के लिए अंग्रेजों से संघर्ष कर रही थी। तो डॉक्टर अंबेडकर इन रियासतों ऊंची जातियों से पिछड़ी जातियों के जानवर से बदतर बर्ताव, शोषण से मुक्ति की बात कर रहे थे।  महात्मा फुले के बाद वे ही ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पूरे विश्व पटल में जातिगत शोषण का मुद्दा बड़ी ही मजबूती के साथ पेश किया। दरअसल दलित और पिछड़ी वंचित जातियों का मुद्दा विश्व पटल पर तब गुंजा जब उन्होंने गोलमेज सम्मेलन के दौरान जातिगतआर्थिक और राजनीतिक शोषण होने की बात रखी। बाद में इन मुद्दों को साइमन कमीशन में जगह मिली। पहली बार दबे कुचले वंचित जातियों को अधिकार देने की बात हुई।
उन्होंने देखा कि भारतीय महिलाओं को एक दलित से भी नीचे दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाता था। चाहे वो कितनी भी ऊंची जाति से ताल्लुक रखती हो। उन्हें ना तो अपने नाम पर संपत्ति रखने का अधिकार था ना ही पुरुष के समान उठने-बैठने, पढ़ने का। सामाजिक या सार्वजनिक तौर पर उनकी बातें नहीं सुनी जाती थी। डॉ अंबेडकर ने महिलाओं के लिए शिक्षा नौकरी पिता की संपत्ति में भाइयों के समान अधिकार तथा मातृत्व अवकाश के द्वार खोलें। खासतौर पर हिंदू कोड बिल में उन्होंने महिला और पुरुष को एक समान अधिकार दिए जाने की पुरजोर कोशिश की। बहुपत्‍नी प्रथा को गैरकानूनी बनाया।
 यहां पर उनकी उपलब्धि‍ को गिनाना मकसद नही है। मकसद है उनकी आधुनिक भारत में प्रासंगिकता पर गौर करना। उन्‍होने जो राय, अखण्‍ड भारत के संबंध में रखी थी वह बेहतद महत्‍वपूर्ण है। वे कहते है की आज का विशाल अखण्‍ड भारत धर्मनिरपेक्षता समानता की बुनियाद पर खड़ा है, इसकी अखण्‍डता को बचाये रखने के लिए जरूरी है की इसकी बुनियाद को मजबूत रखा जाय। वे राजनीतिक लोकतंत्र के लिए सामाजिक लोकतंत्र महत्‍वपूर्ण और जरूरी मानते थे। भारत में जिस प्रकार गैरबराबरी है उससे लगता है कि समाजिक लोकतंत्र आने में अभी और समय की जरूरत है। संविधान सभा के समापन भाषण में वे कहते है। ‘’तीसरी चीज जो हमें करनी चाहिएवह है कि मात्र राजनीतिक प्रजातंत्र पर संतोष न करना। हमें हमारे राजनीतिक प्रजातंत्र को एक सामाजिक प्रजातंत्र भी बनाना चाहिए। जब तक उसे सामाजिक प्रजातंत्र का आधार न मिलेराजनीतिक प्रजातंत्र चल नहीं सकता। सामाजिक प्रजातंत्र का अर्थ क्या हैवह एक ऐसी जीवन-पद्धति है जो स्वतंत्रतासमानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में स्वीकार करती है।"
उनके अनुसार धर्मनिरपेक्षता का मतलब यह है कि राजनीति से धर्म पूरी तरह अलग होना चाहिए। राजनीति और धर्म के घाल मेल से भारत की अखण्‍डता को खतरा हो सकता है। वे भारत में नायक वाद को भी एक खतरा बताते है संविधान सभा के समापन भाषण में कहते है कि दूसरी चीज जो हमें करनी चाहिएवह है जॉन स्टुअर्ट मिल की उस चेतावनी को ध्यान में रखनाजो उन्होंने उन लोगों को दी हैजिन्हें प्रजातंत्र को बनाए रखने में दिलचस्पी हैअर्थात् ''अपनी स्वतंत्रता को एक महानायक के चरणों में भी समर्पित न करें या उस पर विश्वास करके उसे इतनी शक्तियां प्रदान न कर दें कि वह संस्थाओं को नष्ट करने में समर्थ हो जाए।''
उन महान व्यक्तियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने में कुछ गलत नहीं हैजिन्होंने जीवनर्पयत देश की सेवा की हो। परंतु कृतज्ञता की भी कुछ सीमाएं हैं। जैसा कि आयरिश देशभक्त डेनियल ओ कॉमेल ने खूब कहा है, ''कोई पुरूष अपने सम्मान की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकताकोई महिला अपने सतीत्व की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकती और कोई राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता।'' यह सावधानी किसी अन्य देश के मुकाबले भारत के मामले में अधिक आवश्यक हैक्योंकि भारत में भक्ति या नायक-पूजा उसकी राजनीति में जो भूमिका अदा करती हैउस भूमिका के परिणाम के मामले में दुनिया का कोई देश भारत की बराबरी नहीं कर सकता। धर्म के क्षेत्र में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकता हैपरंतु राजनीति में भक्ति या नायक पूजा पतन और अंतत: तानाशाही का सीधा रास्ता है।‘’
जाहिर  है डॉं अंबेडकर की चिंता केवल समुदाय विशेष के लिए नही है वे देश को प्रबुध्‍द एवं अखण्‍ड देखना चाहते है। उनका यह प्रयास संविधान तथा उनके विचारो से स्पष्‍ट होता है। आशा ही नही पूर्ण विश्‍वास है कि देश उनके वैज्ञानिक चिंतन से सीख लेता रहेगा और तरक्‍की करता रहेगा।